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न्यूज क्लिपिंग्स् | उत्तराखंड में क्यों धधक रहे हैं जंगल? सारे सवालों के जवाब जानिए

उत्तराखंड में क्यों धधक रहे हैं जंगल? सारे सवालों के जवाब जानिए

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published Published on Apr 10, 2021   modified Modified on Apr 10, 2021

-बीबीसी,

उत्तराखंड वन विभाग के अनुसार सोमवार, 5 अप्रैल को प्रदेश के जंगलों में 45 जगह आग लगी हुई है और इससे 68.7 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ है.

एक अक्टूबर, 2020 से अब तक जंगलों में आग के 667 मामले दर्ज किए गए हैं और इससे 1359.83 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ है.

उत्तराखंड के जंगलों में आग हर साल आने वाली ऐसी आपदा है जिसमें इंसानी दखल मुख्य कारण माना जाता है.

हर साल सैकड़ों हेक्टेयर जंगल आग से ख़ाक हो जाते हैं और इससे जैव विविधता, पर्यावरण और वन्य जीवों का भारी नुक़सान होता है.

हर साल आग लगने पर कई सवाल पूछे जाते हैं, उनके जवाब तलाश जाते हैं लेकिन शायद जंगलों की आग को रोकने पर काम नहीं होता.

उत्तराखंड के जंगलों में हर साल क्यों लगती है आग?

उत्तराखंड के वन विभाग में फॉरेस्ट फ़ायर ऑफ़िसर मान सिंह कहते हैं कि जंगल में आग लगने की वजह 98 फ़ीसदी मानव जनित होती है. अक्सर ग्रामीण जंगल में ज़मीन पर गिरी पत्तियों या सूखी घास में आग लगा देते हैं ताकि उसकी जगह पर नई घास उग सके. यह आग भड़क जाने पर बेक़ाबू हो जाती है, जैसा इस साल भी दिख रहा है.

पिछले साल कोरोना वायरस के कारण लगे लॉकडाउन के चलते जंगलों में इंसानी गतिविधियां कम रहीं और इसलिए जंगलों में लगी आग की घटनाओं में भी रिकॉर्ड कमी देखने को मिली.

चीड़ के जंगलों में सबसे अधिक आग लगती है क्योंकि चीड़ की पत्तियां (पिरुल) और छाल से निकलने वाला रसायन, रेज़िन, बेहद ज्वलनशील होता है.

जानबूझकर या ग़लती से ही अगर इन जंगलों में आग लग जाती है तो वह बेहद तेज़ी से भड़कती है. उत्तराखंड में 16-17 फ़ीसदी जंगल चीड़ के हैं और इन्हें जंगलों की आग के लिए मुख्यतः ज़िम्मेदार माना जाता है.

वन विभाग जंगलों में आग रोकने के लिएक्या करता है?

उत्तराखंड में आमतौर पर 15 फ़रवरी से 15 जून तक फ़ायर सीज़न माना जाता है. इससे पहले हर साल उत्तराखंड का वन विभाग जंगलों में आग को न फैलने देन के लिए कई तरह की तैयारियां करता है.

फ़ॉरेस्ट फ़ायर ऑफ़िसर मान सिंह के अनुसार फ़ायर सीज़न से पहले वन विभाग जंगल में कंट्रोल बर्निंग कर फ़ायर लाइन तैयार करता है, पुरानी फ़ायर लाइन्स की सफ़ाई की जाती है, क्रू स्टेशन्स का रखरखाव किया जाता है और मास्टर क्रू स्टेशन का सुदृढ़ीकरण किया जाता है.

पुराने उपकरणों की मरम्मत के साथ ही हर साल आग बुझाने के लिए कुछ नए उपकरण लिए जाते हैं.

स्टाफ़ की ट्रेनिंग के साथ ही जन-जागरूकता अभियान चलाया जाता है. वन पंचायतों, वन समितियों को सक्रिय किया जाता है ताकि वनाग्नि रोकने में स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके.

इस साल क्यों भड़की इतनी आग?

उत्तराखंड में साल 2020 में फ़ायर सीज़न को चार महीने के बजाय साल भर के लिए घोषित कर दिया गया था और इसकी वजह सर्दियों में वनाग्नि की कई गुना ज़्यादा घटनाएं होना था.

एक अक्टूबर, 2020 से अब तक उत्तराखंड के जंगलों में आग के 667 मामले दर्ज किए गए और इससे 1359.83 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ. इस साल जंगलों में लगी आग कई जगह गांवों तक पहुंच गई है और राज्य सरकार को इस पर काबू पाने के लिए केंद्र से मदद मांगनी पड़ी है.

मान सिंह कहते हैं कि इस बार जंगलों में आग लगने की वजह सर्दियों में बारिश का 65 फ़ीसदी तक कम होना रहा. इसकी वजह से जंगलों में नमी कम रही और मार्च में ही वह मौसम बन गया जो अप्रैल अंत और मई में होता है. इसके अलावा होली के बाद तेज़ हवाएं चलने से भी आग तेज़ी से भड़की और गांवों तक पहुंच गई.

क्या आग लगने की दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है?

फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में कंसल्टेंट डॉक्टर वीके धवन कहते हैं कि वनाग्नि की दुर्घटनाओं को रोकने में नाकामी की वजह वन विभाग की तैयारियों की कमी है.

वह कहते हैं कि बड़े पैमाने पर जो 'फ़्यूल' (चीड़ की पत्तियां और रेज़िन) जंगल में पड़ा है, उसे हटाना तो संभव नहीं है, लेकिन हम रास्तों से, संवेदनशील जगहों से उसे हटा सकते हैं, फ़ायर लाइन साफ़ कर सकते हैं. इसे साफ़ करने के लिए राज्य सरकार पिरुल (चीड़ की पत्तियों) से बिजली-कोयला बनाने के जो प्रोजेक्ट चला रही है, वह पर्याप्त नहीं हैं. इसके लिए दीर्घकालिक योजना बनानी होगी जिसका अभाव साफ़ दिखता है.

लेकिन मान सिंह कहते हैं कि जंगलों की आग को रोकने में नाकामयाबी या कमी के लिए संसाधनों की कमी को दोष नहीं दिया जा सकता. वह कहते हैं ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, रूस और यूरोपीय देशों के पास हमसे कई गुना ज़्यादा संसाधन हैं, लेकिन जंगलों में आग वहां भी लगती है और सैकड़ों हेक्टेयर जंगल नष्ट हो जाते हैं. आग ऐसी चीज़ है जो एक सीमा के बाद नियंत्रित नहीं हो सकती है.

हेस्को के संस्थापक पद्मश्री डॉक्टर अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं कि जंगल अकेले वन विभाग के भरोसे नहीं बचाए जा सकते. जंगल को बचाना है तो अपने फ़ॉरेस्ट ईको-सिस्टम को समझना होगा. चाहे वह चीड़ के जंगल हों या दूसरे वन, सभी जगह रेन वाटर हार्वेस्टिंग की जानी चाहिए. अगर जंगल में और आस-पास नमी होगी तो स्थानीय वनस्पतियां खुद ही फलने-फूलने लगेंगी और उससे भूजल भी बढ़ेगा.

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


राजेश डोबरियाल, https://www.bbc.com/hindi/india-56641426


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