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न्यूज क्लिपिंग्स् | उदारीकरण में पिसती ग्रामीण अर्थव्यवस्था- सुषमा वर्मा

उदारीकरण में पिसती ग्रामीण अर्थव्यवस्था- सुषमा वर्मा

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published Published on Apr 5, 2015   modified Modified on Apr 5, 2015

विश्व बैंक की प्रबंध निदेशक क्रिस्टीना लेगार्ड ने हाल ही में रहस्योद्घाटन किया है कि भारत के अरबपतियों की दौलत पिछले 15 बरस में बढ़कर 12 गुना हो गई है। गौरतलब है कि यह वही दौर है जब भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुए चंद साल ही हुए थे। उदारीकरण के दो दशक बाद शहरी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बीच का फासला लगातार बढ़ता ही नहीं जा रहा बल्कि शहर फल-फूल रहे हैं तो गांव पिस रहे हैं। क्रिस्टीना के अनुसार इन मुट्ठीभर अमीरों के पास इतना पैसा है, जिससे पूरे देश की गरीबी को एक नहीं, दो बार मिटाया जा सकता है।


लेगार्ड की इस बात से पुष्टि होती है कि बाजार आधारित अर्थव्यवस्था अपनाने का लाभ चुनिंदा अमीरों को ही मिला है, गरीब के बीच की खाई और चौड़ी हो गई है तथा देश की अधिकांश संपत्ति चुनिंदा अरबपतियों की मुट्ठी में सिमटती जा रही है। नेशनल सेंपल सर्वे की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में गरीबों और अमीरों के बीच की खाई निरंतर चौड़ी होती जा रही है।


खर्चे और उपभोग के आधार पर किये गए अध्ययन में पाया गया है कि वर्ष 2000 और 2012 के बीच ग्रामीण इलाकों में रईसों के खर्चे में 60 फीसदी इजाफा हुआ जबकि गरीबों का खर्च केवल 30 प्रतिशत बढ़ा। इस दौरान शहरी इलाकों में धनवान और निर्धन के व्यय में क्रमश: 63 और 33 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। जहां वर्ष 2000 में एक अमीर आदमी का खर्च गरीब के मुकाबले 12 गुना था वहीं अब यह बढ़कर 15 गुना हो गया है।


आज शहरों के मुकाबले गांवों में महंगाई की मार ज्यादा है। आंकड़ों के अनुसार दाल, सब्जी, फल, तेल, दूध, चीनी और कपड़ों की कीमत देहाती इलाकों में कहीं ज्यादा है। ग्रामीण इलाकों में गरीबी की रेखा से नीचे जीने को मजबूर लोगों की संख्या भी अधिक है। इसका अर्थ तो यही हुआ कि आज शहरों के मुकाबले गांवों में रहने वालों की हालत कहीं दयनीय है।


वैश्वीकरण और खुली अर्थव्यवस्था की डगर पकड़ने के बाद हर कीमत पर विकास की सनक का मूल्य देश की अधिसंख्यक आबादी को चुकाना पड़ रहा है। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए विकास का ऐसा मॉडल अपनाया गया है जिसमें रोजगार वृद्धि की कोई गुंजाइश नहीं है। नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमृत्‍य सेन और ज्यों द्रेंज की पुस्तक 'इंडिया एंड इट्स कंट्राडिक्शन' से देश के विकास के दावों और पैमानों को गंभीर चुनौती मिलती है।


खुली और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था का मोटा सिद्धांत है कि यदि गरीबों का भला करना है तो देश की आर्थिक विकास दर ऊंची रखो। इस सिद्धांत के अनुसार जब विकास तेजी से होगा तो समृद्धि आएगी और गरीबों को भी इसका लाभ मिलेगा, लेकिन अंतरराष्ट्रीय जगत में आज केवल आर्थिक विकास के पैमाने को अपनाने का चलन खारिज किया जा चुका है।


किसी देश की खुशहाली नापने के लिए अब मानव विकास सूचकांक तथा भूख सूचकांक जैसे मापदंड अपनाए जा रहे हैं और इन दोनों पैमानों पर हमारे देश की हालत दयनीय है। देश में पिछले 17 वर्ष में लगभग तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अधिकांश आत्महत्याओं का कारण कर्ज है जिसे चुकाने में किसान असमर्थ हैं। आज खेती घाटे का सौदा बन चुकी है। इसी कारण 42 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। लेकिन विकल्प न होने के कारण वे जमीन जोतने को मजबूर है।


सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007-2012 के बीच करीब सवा तीन करोड़ किसान अपनी जमीन और घर-बार बेचकर शहरों में आये। कोई हुनर न होने के कारण उनमें से ज्यादातर को निर्माण क्षेत्र में मजदूरी या दिहाड़ी करनी पड़ी। वर्ष 2005-2009 के दौरान जब देश की आर्थिक विकास दर आठ-नौ फीसदी की दर से कुलांचे मार रही थी। तब भी 1.4 करोड़ किसानों ने खेती छोड़ी।


इसका अर्थ यही हुआ कि आर्थिक विकास का फायदा किसानों को नहीं मिला और न ही वहां रहने वाली आबादी की आमदनी में उल्लेखनीय इजाफा हुआ। अर्थशास्त्रियों के अनुसार गांवों से शहरों की ओर पलायन आर्थिक विकास और तरक्की का सूचक होता है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2030 तक भारत की आधी आबादी शहरों में रहने लगेगी, लेकिन हमारे शहरीकरण की प्रक्रिया पेचीदा है।


यह सर्वमान्य सत्य है कि बेहतर रोजगार की तलाश में ही आदमी गांव से शहर आता है, पर नौकरी न मिलने या धंधा न जमने पर वही आदमी गांव लौटने को मजबूर हो जाता है। हमारा विकास का मॉडल रोजगार विहीन है। इसमें नई नौकरियों की गुंजाइश बहुत कम है। इसी कारण सन् 2012-2014 के बीच डेढ़ करोड़ लोग शहर छोड़कर गांव लौटने को मजबूर हुए।


सन् 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 58.2 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर थी जबकि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान महज 14.1 प्रतिशत था। इसका यह भी अर्थ है कि आधी से अधिक जनसंख्या की आमदनी बहुत कम है। दूसरी तरफ शहरों में रहने वाले चंद लोगों ने सारी आय और संपत्ति पर कब्जा जमा रखा है। पिछले एक दशक में सरकार ने जन-कल्याणकारी योजनाओं को 110 खरब रुपए की सब्सिडी दी।


अकेले ईंधन पर वर्ष 2013 में 1.30 लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी दी गई, लेकिन संपन्‍न बीस फीसदी तबके को गरीब बीस प्रतिशत आबादी के मुकाबले छह गुना ज्यादा सब्सिडी मिली। एक उदाहरण से यह बात बेहतर समझी जा सकती है। सरकार एक लीटर डीजल पर नौ रुपए की सब्सिडी देती है, लेकिन इस सस्ते डीजल की 40 प्रतिशत खपत महंगी निजी कारों, उद्योगों, जनरेटरों आदि में होती है।


गरीब किसान के हिस्से बहुत कम डीजल आता है। दूसरी तरफ बड़े उद्योगों और कॉरपोरेट घरानों द्वारा लिए जाने वाले अरबों रुपए के कर्जे का कड़वा सच है। सन् 2013 तक सार्वजनिक बैंकों से लिया 12 खरब रुपए का कर्जा उद्योगों ने नहीं चुकाया। ऋण न चुकाने वालों की जमात में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका नाम अरबपतियों की सूची में शामिल है।


अमृत्‍य सेन के अनुसार 'मार्किट मेनिया' के लोभ और ' मार्किट फोबिया' के भय से निकले बिना देश का कल्याण असंभव है। भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य मूल मुद्दे हैं और इन्हें मुहैया कराना हर सरकार की पहली जिम्मेदारी है। जो सरकार इस जिम्मेदारी को पूरा नहीं कर पाती उसका सत्ता में बने रहना कठिन होता है।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और अर्थव्‍यवस्‍था से जुड़े मामलाें की जानकार हैं।


http://money.bhaskar.com/news/liberalization-in-the-rural-economy-pisati-4526971-NOR.html


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