Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | उन पांच दिनों के नाम-- जयंती रंगनाथन

उन पांच दिनों के नाम-- जयंती रंगनाथन

Share this article Share this article
published Published on Feb 9, 2018   modified Modified on Feb 9, 2018
बात 1993 के अक्तूबर की है। पत्रकारों का एक दल लातूर में आए भूकंप का जायजा लेने मुंबई से वहां जा रहा था। उस दल में मैं भी थी। मुंबई से पुणे होते हुए दस घंटे की उस बस यात्रा के बाद जब सब थके-हारे चाय और खाने की तलाश में दो-चार हो रहे थे, मैं ढूंढ़ रही थी दवाई की दुकान। दुकान तो मिल गई, पर जब उससे पूछा, मुझे ... दे दो, तो उसकी समझ में नहीं आया। दुकान पर खड़े दूसरे आदमियों को लगा, मुझे मराठी नहीं आती, इसलिए अपनी बात ठीक से रख नहीं पा रही। सिर दर्द, पेट दर्द, मोच, गले में दर्द किसकी दवा चाहिए?


अपने अंदर की सकुचाहट, शर्म और द्वंद्व को एक तरफ रखकर मैंने किसी तरह कहा, दवा नहीं, पैड चाहिए, सेनेटरी नैपकिन...। वहां किसी ने सुना नहीं था कि ऐसा कुछ भी होता है। जवाब आया, ये किस बीमारी में वापरते हैं?
प्रकृति ने स्त्री को जिन खूबियों के साथ गढ़ा है, उनमें से ही एक है पीरिएड। जहां स्त्री है, वहां प्रजनन है, तो पीरिएड भी है। स्त्री के बाकी सच तो समाज को स्वीकार्य हैं, पीरिएड नहीं। इसलिए महीने के वो पांच दिन वह कैसे रहती है, उसे क्या होता है, इससे किसी का कोई सरोकार नहीं होता।


लातूर में उस दिन फिर क्या हुआ? दुकान के बाहर कॉलेज जाती कुछ लड़कियां नजर आ गईं। मैंने अपनी दिक्कत किसी तरह उन्हें बताई। उन लड़कियों में से एक मुझे अपने घर ले गई और उसने बोरियों से काटकर बनाया गया पैडनुमा कपड़ा मुझे दिया कि उसके घर की औरतें यही इस्तेमाल करती हैं। उसके अनुसार, अगर पीरिएड में उन्हें पुराना कपड़ा या बोरी मिल जाए, तो बड़ी बात थी। वरना तो वहां की कई औरतें गोबर के कंडों या पत्तों का इस्तेमाल करती थीं। सेनेटरी पैड का नाम उस लड़की ने सुना था, टीवी में भी देखा था, पर कभी इस्तेमाल नहीं किया। उसे लगता था, वे कोई और ही लड़कियां हैं, जो पैड का इस्तेमाल करती हैं।


उस दिन एहसास हुआ कि हम स्त्रियां कितनी क्रूर, हाहाकारी और विपरीत परिस्थितियों में जीने को अभिशप्त हैं। औरतें कामकाजी हों या गृहिणी, महीने के उन पांच दिनों में वे उतना ही काम करती हैं, जितना सामान्य दिनों में। ग्रामीण इलाकों में महिलाएं खेती का काम करती हैं, सिर पर पानी या सामान लादकर घंटों चलती हैं, तो शहरों में रोज की भाग-दौड़ की जद्दोजहद के साथ-साथ काम के दूसरे दबाव भी साथ चलते हैं। कोई महिला सर्कस में स्ट्रेपीज आर्टिस्ट है, तो कोई घंटों खड़ी रहकर स्कूल-कॉलेज में पढ़ाती है। हर क्षेत्र की अपनी मांग होती है। उन पांच दिनों में भी महिला पूरे जोश के साथ अपना काम करती है। लेकिन उसके कपड़े पर लगा एक छोटा सा लाल दाग बहुत बड़ा सवाल बन जाता है।


नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार, आज भी हमारे देश में मात्र 29 प्रतिशत महिलाएं हैं, जो पीरिएड के दौरान पैड का इस्तेमाल करती हैं। बाकी करती हैं रेत, मिट्टी, पुराने अखबार, गोबर के उपले या कंडे, गंदे कपड़े, बोरे आदि। जब एक पैड की कीमत रोज के आटे-दाल से ज्यादा हो, तो इसमें चुनाव का प्रश्न ही कहां है? इन अमानवीय तरीकों की वजह से उनको कई बीमारियां होती हैं। एसटीडी से लेकर सर्वाइकल कैंसर तक। इंफेक्शन की वजह से कई बार गर्भाशय को क्षति पहुंचती है। मगर हम इस विषय पर बात ही नहीं करना चाहते। पीरिएड घर के अंदर, स्त्रियों के बीच अपनी ढकी-छिपी बात है। आज भी ऐसे कई घर-परिवार हैं, जहां पीरिएड के दिनों में औरतें सबसे ढक-छिपकर शर्म से गढ़ती हुई अपने कपड़े घर के सबसे अंधेरे कोने में दूसरे कपड़ों के नीचे सुखाती हैं।


इन कोनों में उजियारा कैसे आएगा? जवाब है, स्थिति को स्वीकारने और बात करने से। यही किया था 1998 में तमिलनाडु के एक गरीब कामगार के बेटे अरुणाचलम मुरुगनाथम ने। दक्षिण भारत में प्रथा है लड़कियों के पहली बार रजस्वला होने पर ऋतु कला संस्कारम मनाने की। पूरा परिवार इसे कुछ इस तरह मनाता है जैसे लड़कों का यज्ञोपवीत संस्कार। यही वजह है कि दक्षिण के घरों में पीरिएड अछूता शब्द नहीं है, लेकिन स्त्रियों से व्यवहार अछूत सा ही होता है। दक्षिण में भी पीरिएड के दौरान लड़कियों को कई बुनियादी जरूरतों से वंचित रखा जाता है। अब जरूर नई पीढ़ी इस प्रथा को मानने से इनकार कर रही है।
अरुणाचलम ने शादी के बाद पत्नी को पीरिएड के दिनों में असुविधाजनक स्थिति में देखा। गरीबी की वजह से वह बाजार से पैड नहीं खरीद सकते थे। तय किया कि वह सस्ते पैड बनाएंगे। इसमें दो साल लग गए। गांव वालों के हंसी का पात्र बने। खुद पत्नी ने सहयोग से इनकार कर दिया। अरुणाचलम ने लंबी लड़ाई लड़ी और आखिर में ऐसी मशीन बनाई, जिससे पैड बहुत सस्ते में तैयार होने लगे। अरुणाचलम का काम इसलिए भी सराहनीय है कि सस्ते सेनेटरी पैड को उन्होंने गरीब औरतों तक न सिर्फ पहुंचाने का काम किया, बल्कि इस पर खुलकर बात करने का रास्ता भी तैयार किया।


वरना आज भी यह आलम है कि हर दुकान में सेनेटरी पैड हमेशा काले बदरंग पॉलीथिन में या अखबारों में लपेटकर दिया जाता है, कुछ इस उद्घोषणा के साथ कि इसके अंदर कुछ ऐसी चीज है, जिसे दुनिया से छिपाकर रखना चाहिए। पीरिएड भी हमारे शरीर के लिए उतना ही सामान्य है, जितना कोई और दर्द। हमारे देश में पीरिएड के बारे में बात करने के लिए एक अरुणाचलम मुरुगनाथम की जरूरत थी। उन पर ट्विंकल खन्ना ने किताब लिखी और अब निर्देशक आर बाल्की इस पर फिल्म लेकर आए हैं। अगर इस मुहिम को वाकई आगे बढ़ाना है, तो पीरिएड को स्त्री के निजी संसार की पीड़ा के दर्जे से निकालकर एक सामाजिक मंच तक पहुंचाना होगा। हम सबको बिना हिचकिचाहट के बात करनी होगी, शर्म से निकलना होगा और हर लड़की तक पैड पहुंचाना होगा। पैड से शुरू करेंगे, तभी तो पीरिएड के दौरान दूसरे सुविधाजनक विकल्प टैंपून और मेन्स्टुअल कप की भी बातें हो सकेंगी, जो पर्यावरण की दृष्टि से दुनिया भर में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। लड़कियों की शिक्षा व टॉयलेट दोनों के रास्ते पैड होकर ही गुजरते हैं।


https://www.livehindustan.com/uttar-pradesh/gorakhpur/story-students-cheating-by-mobile-in-up-board-exam-1791687.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close