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न्यूज क्लिपिंग्स् | उर्वरक उत्पादन में साझेदारी से खुलते नए रास्ते-- अजीत रानाडे

उर्वरक उत्पादन में साझेदारी से खुलते नए रास्ते-- अजीत रानाडे

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published Published on Jan 12, 2017   modified Modified on Jan 12, 2017
भारत दुनिया का सबसे बड़ा रासायनिक खाद आयातक देश है। यह विभिन्न देशों से करीब एक करोड़ टन यूरिया का सालाना आयात करता है। यह मात्रा देश में यूरिया की कुल खपत की एक तिहाई है। यूरिया का मुख्य अवयव प्राकृतिक गैस है, और भारत में इसकी उपलब्धता कम है, इसलिए इसके बड़े पैमाने पर आयात व दूसरे देशों पर निर्भरता की स्थिति लगातार बनी हुई है।


लगभग एक दशक पहले, जब देश के पूर्वी तट पर कृष्णा-गोदावरी बेसिन में समुद्र में दो किलोमीटर नीचे गैस के विशाल भंडार की बात पता चली थी, तब काफी उत्साह का माहौल बना था। रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड, ओएनजीसी लिमिटेड, गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड व दूसरी कई कंपनियों ने तब कहा था कि वहां पर 800 खरब क्यूबिक फीट से भी ज्यादा गैस होने का अनुमान है। यह न सिर्फ उर्वरक उत्पादन के मामले में भारी बदलाव ला सकता है, बल्कि रसोई गैस के साथ-साथ कई शहरों में बिजली आपूर्ति की जरूरतों व मोटर गाड़ियों की स्वच्छ ईंधन की मांग भी पूरी कर सकता है। तब इसे एक क्रांतिकारी खोज माना गया था। लेकिन, आज एक दशक बाद भी विभिन्न कारणों से और गैस की उचित कीमत पर सहमति न बन पाने की वजह से इसका उर्वरक संबंधी लाभ उठाने का काम नहीं हो सका है। यूरिया की उत्पादन-लागत में 80 प्रतिशत हिस्सेदारी गैस की होती है, यूरिया के उत्पादन में सस्ती गैस की अहम भूमिका है।


गैस की कीमत आज कुख्यात रूप से एक अस्थिर अवधारणा से संचालित है। दुनिया के विभिन्न देशों में उपभोक्ताओं तक इसकी उपलब्धता आधा डॉलर से लेकर 15 डॉलर के बीच देखी जा सकती है। भारत के किसान यूरिया की जो कीमत चुकाते हैं, वह दरअसल काफी सब्सिडी के बाद की कीमत है, लगभग 5,000 रुपये प्रति टन। यानी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यूरिया का जो मूल्य है, उसके लिए 60-70 फीसदी की सब्सिडी। जाहिर है, देशी-विदेशी आपूर्तिकर्ताओं को यह बड़ी रकम सरकार से मिलती है। खाद्य व उर्वरक सब्सिडी हमारे केंद्रीय बजट का करीब 12 प्रतिशत बैठती है। तीन साल पहले तो सिर्फ उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी करीब 10 खरब रुपये थी। इस जबर्दस्त बोझ की वजह से घरेलू यूरिया उत्पादकों को सरकार की तरफ से सब्सिडी के भुगतान में देरी होती है। और यह देरी घरेलू उत्पादकों के लिए काफी घातक हो सकती है, क्योंकि यह रकम उनके राजस्व का बहुत बड़ा हिस्सा होती है।


दूसरी तरफ, यूरिया के विदेशी आपूर्तिकर्ताओं को तुरंत भुगतान करना पड़ता है, क्योंकि ऐसा न करने पर वे इसकी सप्लाई रोक सकते हैं। शुक्र है कि पिछले दो वर्षों में तेल और गैस की कीमतें तेजी से नीचे आईं, जिससे सरकार को राजस्व के मामले में काफी राहत मिली है। खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी में सुधार के लिए सरकार ने पोषण आधारित सब्सिडी कार्यक्रम के जरिये अपने तईं प्रयास भी किए। अब ऐसी चर्चा चल रही है कि नकद सब्सिडी सीधे किसानों के जन-धन खातों में भेजी जाएगी और खाद उत्पादकों को बाजार मूल्य पर अपने उत्पाद बेचने की छूट होगी। यह नजरिया कई परेशानियों को जन्म देने वाला है। मसलन, ज्यादातर खेती भूमिहीन कृषकों व बटाईदारों द्वारा की जाती है, न कि वास्तविक मालिकों द्वारा।


ऐसे जटिल परिदृश्य में उर्वरक उत्पादन के एक अनूठे प्रयोग को याद करने और विस्तार देने की जरूरत है। लगभग 11 साल पहले भारत और ओमान के बीच हुए एक करार के तहत ओमान अपने यहां 16 लाख टन यूरिया का उत्पादन करता है, जो पूरी तरह से भारत के लिए होता है। गैस का आयात काफी महंगा है, तो क्यों न उस गैस को परिवर्तित करके यूरिया का आयात किया जाए? चाबहार बंदरगाह पर अब इस प्रयोग को ईरान की मदद से दोहराने का कार्य हो रहा है।


वहां मौजूद गैस के इस्तेमाल से दोनों देश का साझा उपक्रम 10 लाख टन यूरिया का उत्पादन करेगा और ईरान इसे भारत को निर्यात करेगा। यह सभी पक्षों के लिए सुखद है। पहली नजर में यह कोशिश भले ही मेक-इन-इंडिया की भावना के विरुद्ध दिखती हो, मगर यह एक शानदार रणनीतिक पहल है। यह पहल अपार भू-संपदा वाले देशों में साझा खेती को बढ़ावा देकर भारत की खाद्यान्न सुरक्षा भी मजबूत कर सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-open-new-avenues-of-partnership-in-fertilizer-production-661968.html


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