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न्यूज क्लिपिंग्स् | 'एक बड़े पत्रकार, एक सच्चे मानवतावादी'-- अमित सेनगुप्ता

'एक बड़े पत्रकार, एक सच्चे मानवतावादी'-- अमित सेनगुप्ता

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published Published on Jun 25, 2015   modified Modified on Jun 25, 2015
क़रीब दो हफ़्ते पहले की बात है, प्रफुल्ल बिदवई मछली खाना चाहते थे. उन्हें पता था कि मेरे पड़ोस में बंगाली खाने का कारोबार करने वाले सागर चटर्जी मेरे दोस्त हैं. चटर्जी ने साइकिल पर अपने कारोबार की शुरुआत की थी.
सागर और उनकी पत्नी स्वादिष्ट पूर्वी बंगाली व्यंजन बनाते हैं. मैंने प्रफुल्ल को फ़ोन करके यहाँ खाने का न्योता दिया.
उन्होंने बताया कि वो 'भारतीय वामपंथ की चुनौतियाँ' विषय पर अपनी किताब के आखिरी हिस्से को लिखने में काफ़ी थक गए हैं और एक ब्रेक की उन्हें सख्त ज़रूरत है.
भारत और दुनिया के वामपंथ के इतिहास के उनके विशद ज्ञान से रूबरू होने का भी ये एक बढ़िया मौक़ा था. प्रफुल्ल ने अपनी जवानी में मुंबई की ट्रेड यूनियन आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाई थी.
कुछ लोग जानते हैं कि प्रफुल्ल ने लेबर मूवमेंट पर किताबों का श्रमसाध्य लेखन और संपादन किया है.

तीक्ष्णता और मेहनत

उनमें अकादमिक तीक्ष्णता और उनके आईआईटी बॉम्बे के दिनों की वैज्ञानिक मेहनत का बेजोड़ मिश्रण था.
आईआईटी की पढ़ाई उन्होंने बीच में ही छोड़ दी थी. उसके बाद उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से समाज और राजनीति की खुली आलोचनात्मक पड़ताल शुरू की.
'आप' की जीत से मजबूत होंगे वामदल?
उनकी आख़िरी प्रकाशित किताब 'द पॉलिटिक्स ऑफ़ क्लाइमेट चेंज एंड द ग्लोबल क्राइसिसः मार्टगेंजिंग अवर फ़्यूचर' एक जटिल और गूढ़ विषय पर लिखी गई मास्टरपीस है. ऐसे विषय पर इतना समर्पित अथक परिश्रम प्रफुल्ल ही कर सकते थे.
मैंने उनके खस्ताहाल डेस्कटॉप कम्प्यूटर पर इस किताब का एक चैप्टर टाइप करने में मदद की थी.
तब मैं इस बात का गवाह बना कि किसी चैप्टर को काग़ज़ पर लिखने, फिर से लिखने और फिर उसमें सुधार करने में कितनी मेहनत लगी होगी.

गठबंधन की जरुरत

प्रफुल्ल कहते थे, "हमें व्यापक परिदृश्य देखना है. भावी युद्ध, जलवायु परिवर्तन, सैन्यवाद, प्रभु्त्व वर्ग की बढ़ती दौलत और भोगविलास, भयावह व्यापक ग़रीबी और अन्याय, फासीवाद का सामना करने के लिए सभी नागरिक समूहों, पीस एक्टिविस्टों, संयुक्त वामदलों, नारीवादियों, समाजवादियों और पर्यावरण आंदोलनों को एक नॉन-सेक्टेरियन गठजोड़ बनाना होगा. उम्मीदों की एक नई राजनीति."
किताब की भूमिका में उन्होंने लिखा, "अाखिरकार, जलवायु का एजेंडा तभी बदल सकता है जब शोषित वर्ग को जलवायु मुद्दों से जुड़े निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाए. जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ संघर्ष और समतावादी विकास में उनका काफ़ी कुछ दाँव पर लगा है. जलवाय परिवर्तन से मुख्य रूप से वही प्रभावित होते हैं. जलवायु संकट का समाधान तभी हो सकेगा जब जलवायु और विकास से जुड़े एजेंडे ज़मीनी आंदोलन से नियंत्रित होंगे."

बर्फ़ बिल्कुल नहीं

प्रफुल्ल मुझसे मिलने के लिए दो मेट्रो बदलकर पूर्वी दिल्ली में एक पत्रकार दोस्त के घर पहुँचे.
वो दोस्त शाकाहारी है. उसने अपनी पसंद की चीजें, हींग के तड़के वाली अरहर की दाल और बैगन का भर्ता इत्यादि बनाया.
लेकिन इसके साथ बोनस था पूर्वी बंगाल के स्टाइल में बनाया हुआ प्रॉन मलाई करी और सरसों के तले में बनी रोहू.
इसके साथ ही ठीकठाक मात्रा में पहले की बची हुई 'डैलमोर' सिंगल माल्ट व्हिस्की भी थी. प्रफुल्ल सचमुच ख़ुश हुए.
प्रफुल्ल हमेशा बारीकी पसंद करते थे. उस दिन भी उन्होंने ख़ालिस व्हिस्की, कुछ बूंद सादा पानी के साथ ली, बर्फ़ बिल्कुल नहीं.

वो हाल ही में अगरतला से लौटे थे. उन्होंने त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मानिक सरकार का लंबा इंटरव्यू किया था.
त्रिपुरा में सीपीएम को लगातार कई जीत दिलाने वाले अपने इस ईमानदार कम्यूनिस्ट के लिए उनके पास तारीफ ही तारीफ थी.

2014 का चुनाव और वाम दलों का संकट

उन्होंने पूछा कि सीपीएम मानिक सरकार की ईमानदारी और नेतृत्व के शानदार प्रतीक के रूप में क्यों नहीं पेश करती?
साथ ही उन्हें ये भी लगता था कि मानिक सरकार अगर आधिकारिक वामपंथी माइंडसेट से बाहर निकलकर ज़्यादा कल्पनाशीलता दिखाएं तो बेहतर होगा, ख़ासकर इस 'दक्षिणपंथी फासीवादी उभार' के दौर में.
उन्होंने पूछा था, आखिर जब सड़कों पर उतरना चाहिए तब वामपंथी पार्टियाँ अपने दड़बे में क्यों फंस जाती हैं?
प्रफुल्ल को पता था. शीर्ष वामपंथी नेताओं के साथ उनका खुला संवाद था.

वामपंथी नेताओं से संवाद

एक बार उनकी छत पर 'लंच' में रोमिला थापर, कई शीर्ष संपादकों, वाइस-चांसलरों के साथ तीन शीर्ष वामपंथी नेता बार के पास मुझे नज़र आए. असल में उन नेताओं ने एक बूंद भी नहीं पी फिर भी वो वहाँ मौजूद थे.
बीटी रणदिवे और बासवपुन्नैया से लेकर एबी बर्धन और प्रकाश करात तक भारतीय वामपंथ के आलोचनात्मक आख्यान के प्रफुल्ल अभिन्न अंग थे.

वो आईआईटी मद्रास के आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल पर प्रतिबंध के ख़िलाफ़ पूरे देश में प्रतिरोध से बहुत उत्साहित थे.
वो ग़ुस्से में कह रहे थे, "सीता (सीताराम येचुरी) को एकजुटता दिखाने के लिए तुरंत आईआईटी जाना चाहिए था. वो ज़ेनोफ़ोबिया को बढ़ावा देने वाली शक्तियों के ख़िलाफ़ प्रगतिशील बहसों से जुड़ने के ऐसे शानदार मौक़े कैसे छोड़ सकते हैं."

आत्मविश्लेषण

उस रात वो आत्मविश्लेषण के मूड में थे. उन्होंने कहा कि दुनिया को बेहतर बनाने में उन्होंने अपने तरीके से योगदान किया है. वो बोले, "प्रगतिशील ताकतों ने दुनिया को बेहतर बनाया है."
उन्होंने कहा, "ऐसे निराशावादी समय में भी मुझे उम्मीद है कि भारतीय समाज में सच्चा लोकतंत्र, न्याय और बराबरी आएगी. मुझे जनसंघर्ष में पूरा भरोसा है. मुझे अब भी वामपंथ में भरोसा है."

नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर उनका लेख इस मुद्दे पर लिखे सबसे अच्छे लेखों में एक था.
वो भी तब जब मोदी की तारीफ़ों की बाढ़ आई हुई थी और कई मीडिया वाले उनके सामने बिछने के तैयार दिख रहे थे.
हर लेख से पहले वो कई इंटरव्यू करते थे, तथ्यों की गहन छानबीन और शोध करते थे. वो पत्रकारों को नियमित फ़ोन करके उनकी राय जानते रहते थे.

लिखना जारी रखो

विभिन्न विषयों पर विश्व मीडिया में छपने वाले उनके लेखों में आपको एक भी हल्का वाक्य नहीं मिलेगा.
उनके लिखे का एक-एक शब्द, तथ्य, विचार और अवधारणा एक विलक्षण मस्तिष्क में तपने के बाद सामने आते थे.
उन्होंने मुझसे कहा, "तुम्हें लिखना नहीं छोड़ना चाहिए. लिखते रहो, हफ़्ते दर हफ़्ते."
वामपंथ पर अपनी नई किताब के शीर्षक में वो जीजिविषा और पुनरुत्थान के क्षण के लिए फ़ीनिक्स के मिथक का उपयोग करना चाहते थे.
ग्रीक मिथकों के अनुसार फ़ीनिक्स पक्षी मरने के बाद अपनी राख से जी उठता है.
इस किताब के ज़्यादातर चैप्टर उन्होंने पूरे कर लिए थे.

मिलती रहेगी प्रेरणा

मैंने उनसे कई बार कहा था कि उन्हें हर्बर्ट मार्क्यूज की 'एन एसे ऑन लिबर्टी' जैसी एक किताब लिखनी चाहिए.
ये उनके लिए आकर्षक विचार था. लेकिन अब उनके जाने के बाद वो निबंध कभी नहीं लिखा जा सकेगा.
फिर भी, मानव मुक्ति पर प्रफुल्ल बिदवई का विलक्षण और लंबा आख्यान हमेशा जीवित रहेगा और दूसरों को प्रेरित करता रहेगा.

(अमित सेनगुप्ता आईआईएमसी, नई दिल्ली में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं.)



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