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न्यूज क्लिपिंग्स् | किसान आंदोलन: पंजाब की खेती गेहूं, धान और MSP से आबाद हो रही है या बर्बाद?

किसान आंदोलन: पंजाब की खेती गेहूं, धान और MSP से आबाद हो रही है या बर्बाद?

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published Published on Dec 18, 2020   modified Modified on Dec 18, 2020

-बीबीसी,

पंजाब के ज़्यादातर किसान गेहूं और धान की खेती करते हैं. इन दोनों फसलों पर एमएसपी मिलती है और सरकारी ख़रीद की गारंटी भी. जब फसल से कमाई और ख़रीद दोनों सुनिश्चित हो तो भला तीसरी फसल के पीछे किसान क्यों भागेगा?

लेकिन इन दोनों फसलों की कामयाबी ने उसके सामने ऐसा चक्रव्यूह बना दिया है कि वो चाह कर भी इससे बाहर नहीं निकल पा रहा.

दिल्ली के तमाम बॉर्डर पर पिछले तीन सप्ताह से डटे किसान भी इसकी बातें करते हैं, लेकिन दबी जुबान से.

तीन चेहरे, तीन फसलें, तीनों का दर्द अलग
दिल्ली में पिछले 20 दिन से कड़ाके की ठंड में बैठे हैं तरनतारन से आए मेजर सिंह कसैल. सिंघु बॉर्डर पर उनसे हमारी मुलाकात हुई.

बातों बातों में उन्होंने कहा, "धान और गेहूं के अलावा, दूसरी फसल उगाने के लिए काफ़ी प्रयास किया. एक बार सूरजमुखी लगाया. बाज़ार में एक लीटर तेल की कीमत जब 100 रुपये थी, तब हमारी फसल 1000 रुपये क्विंटल में बिकी थी. जब सरसों की खेती की, तो बाज़ार में एक लीटर सरसों के तेल की कीमत 150 रुपये थी और एक क्विंटल की कीमत हमें 2000 रुपये मिली. एक क्विंटल में से 45 किलो तेल निकलता है. यानी बाज़ार में जिसकी कीमत 6500 रुपये थी, हमारी जेब में आया आधे का भी आधा. हमारी मेहनत की कीमत कोई और खाता है और दूसरी फसल उगा कर हम फंस जाते हैं."

मेजर सिंह कसैल, राजबीर ख़लीफ़ा और सुरेंद्र सिंह

मेजर सिंह कसैल आज भी गेहूं, धान के अलावा दूसरी फसल उगाने को तैयार है. उनकी खेतों में भूमिगत जलस्तर काफ़ी नीचे चला गया है. आज तरनतारन में पानी 80 फुट पर मिल रहा है. इसी समस्या से निपटने के लिए उन्होंने खेतों में सूरजमुखी लगाने का फैसला किया था. लेकिन जब फसल के भाव सही नहीं मिले तो उन्हें अपने फैसले पर पछतावा हुआ. अब वो दोबारा से गेहूं और धान की खेती कर रहे हैं.

मेजर सिंह कसैल की तरह का दर्द हरियाणा के भिवानी ज़िले से आए राजबीर ख़लीफ़ा का भी है.

मेजर सिंह कसैल से हमारी बातचीत सुन कर वो ख़ुद ही अपना दर्द साझा करने लगे. उन्होंने कहा,"इस बार मैंने गाजर उगाया. लेकिन मुझे मंडी में कीमत मिली 5 रुपये 7 रुपये. उसी मंडी में बड़े किसानों को कीमत मिली 20 रुपये तक."

सुरेंद्र सिंह, हमारी बातचीत को बड़े ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने अपने दर्द को अलग तरीके से समझाया. वो कहते हैं, "कोई दूसरी फसल उगाओ तो उसके पैसे मिलने में महीनों लग जाते हैं. गेहूं और सरसों तो अढ़ातिए सीधे ख़रीद कर पैसे तुरंत दे देता है. आधी रात को उसके पास जाओ या फिर फसल सीज़न के बीच में वो हमेशा मदद के लिए तैयार रहता है. मैंने ख़ुद गाजर उगाने की कोशिश की. बाज़ार में भाव नहीं मिले. कौन रेट तय करता है, कैसे रेट तय करते हैं इसके बारे में कोई जानकारी ही नहीं है."

चाहे मेजर सिंह कसैल हो या फिर राजबीर ख़लीफ़ा या फिर सुरेंद्र सिंह.... ये तीनों तो बस चेहरे हैं. कहानी पंजाब-हरियाणा के ज़्यादातर किसानों की एक सी है. गेहूं धान की खेती के अलावा उन्हें किसी तीसरे फसल की अकसर सही कीमत नहीं मिलती और ना ही उनके बारे में उनके पास बहुत जानकारी है.

2015-16 में हुई कृषि गणना के अनुसार, भारत के 86 फ़ीसदी किसानों के पास छोटी जोत की ज़मीन है या ये वो किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन है.

इसलिए सालों से चली आ रही गेहूं-धान जैसी परंपरागत फसलों को उगाते आ रहे हैं, जो हर सीज़न में रिस्क नहीं ले सकते. खेती की इस परंपरागत तरीके को 'मोनोकल्चर' कहा जाता है.

क्या सरकार और किसानों के बीच सुलह का कोई ‘फ़ॉर्मूला’ है?

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 


बीबीसी, https://www.bbc.com/hindi/india-55346276


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