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न्यूज क्लिपिंग्स् | कब कमर कसेगी सरकार-- शंकर अय्यर

कब कमर कसेगी सरकार-- शंकर अय्यर

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published Published on Feb 8, 2016   modified Modified on Feb 8, 2016
आप इसे बजट राग कह सकते हैं, जो पैसे के मूल मंत्र पर केंद्रित है। बजट के मौसम में सरकारी विचार कक्ष में पैसे के बारे में काफी चर्चा होती है। इस बार भी चर्चा हो रही है कि सरकार को राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करना चाहिए या उसकी चिंता छोड़ देनी चाहिए। चर्चा इस पर भी है कि किसे दर्द सहना चाहिए और किसे फायदा होगा। विकास का सिद्धांत सरल है। इसे हमारी नीतिकथा में भी बेहतर ढंग से समझाया गया है कि घड़े के पानी को ऊपर लाने के लिए कौआ उसमें कंकड़ डालता है।

सामाजिक एवं भौतिक ढांचों पर पैसा खर्च करने से ही विकास दर ऊपर उठेगी। पर, भारत के साथ समस्या दोहरी है। यहां कंकड़ (निवेश) की कमी है और अक्षमता, भ्रष्टाचार तथा चोरी के कारण घड़े में रिसाव है। यहां खर्च पर तो चर्चा होती है, लेकिन बचत पर पर्याप्त बहस का अभाव है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार की आय करीब 12 लाख करोड़ रुपये है और व्यय 18 लाख करोड़ रुपये। छह लाख करोड़ रुपये के इस अंतर को उधार के जरिये पाटा जाता है। केंद्र और राज्य का सकल राजकोषीय घाटा (आय से ज्यादा खर्च की जाने वाली रकम) नौ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है। केंद्र एवं राज्यों की सकल बाजार उधारी करीब 8.5 लाख करोड़ रुपये है, यानी 2,328 करोड़ रुपये प्रतिदिन या 97 करोड़ रुपये प्रति घंटे।

इस पैसे को कैसे खर्च किया जाता है? एक रुपया में से बीस से ज्यादा पैसे अक्षमता, विचलन एवं चोरी में चले जाते हैं। हर वर्ष उत्पादित ऊर्जा का बीस फीसदी से ज्यादा नुकसान पारेषण एवं वितरण घाटे के कारण होता है, जिसकी कीमत करीब एक लाख करोड़ रुपये यानी प्रतिदिन 270 करोड़ रुपये से ज्यादा होगी। इसी चोरी और रिसाव के कारण राज्य विद्युत बोर्डों पर नौ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज है।

खाद्य सब्सिडी पर केंद्र 1.15 लाख करोड़ रुपये खर्च करता है, पर जन वितरण प्रणाली का 46 फीसदी से ज्यादा अनाज जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाता। केवल केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों का सालाना घाटा 20 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा है, यानी 54 करोड़ रुपये प्रतिदिन। सार्वजनिक उपक्रमों का कुल नुकसान 1.19 लाख करोड़ रुपये है। सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं में होने वाली देरी की वजह से अवसर एवं लागत मूल्यों को भी इसमें जोड़ लिया जाए, तो सार्वजनिक पैसे की बर्बादी का बखूबी अंदाजा लगाया जा सकता है।

​पिछले एक दशक में केंद्र एवं राज्यों द्वारा सामाजिक क्षेत्र में खर्च 1.7 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर आठ लाख करोड़ रुपये हो गया है। फिर भी भारत शिक्षा, कुपोषण, मातृत्व मृत्यु दर जैसी मानव विकास से जुड़ी रैंकिंग में पिछड़ा हुआ है। खर्च की अक्षमता राज्यों के स्तर पर भी है। इसका कारण सरकार की व्यवस्थागत जवाबदेही में छिपा है। फिर भी सभी वेतन आयोगों की इस सिफारिश को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है कि कर्मचारियों के वेतन को उनके कामकाज के आधार पर निर्धारित किया जाए।

इस वर्ष सरकार सातवें केंद्रीय वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करेगी। इससे सरकार पर एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का बोझ पड़ने का अनुमान है। यही नहीं, राज्यों और सार्वजनिक उपक्रमों आदि द्वारा नया वेतनमान लागू करने पर इसकी लागत अनुमानतः करीब चार लाख करोड़ रुपये आएगी। मात्र केंद्र सरकार के कर्मचारियों (रक्षा विभाग शामिल) के वेतन-भत्ते का खर्च वर्ष 2007-08 के 74,647 करोड़ रुपये से बढ़कर 2011-12 में 1,66,792 करोड़ रुपये हो गया। चौदहवें वित्त आयोग ने 2011-12 में पाया कि सभी राज्यों के राजस्व खर्च का 64.1 फीसदी वेतन, ब्याज भुगतान और पेंशन पर खर्च होता है। और अक्सर राजस्व खर्च में बढ़ोतरी योजनाबद्ध निवेश की कीमत पर होती है।

बेशक मोदी सरकार ने अक्षमता और रिसाव से निपटने के प्रयास किए हैं, प्रत्यक्ष नकद लाभ हस्तांतरण की पहल प्रशंसनीय है, पर 'मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस' का वायदा पूरा करने के लिए काफी कुछ करने की जरूरत है। 2014-15 के बजट में डॉ. विमल जालान के नेतृत्व में खर्च प्रबंधन आयोग के गठन की घोषणा की गई थी, उससे संबंधित रिपोर्ट का क्या हुआ? खाद्य सब्सिडी पर शांता कुमार समिति की रिपोर्ट धूल फांक रही है। विवेक देबरॉय कमिटी ने रेलवे से संबंधित एक चौंकाने वाली रिपोर्ट दी थी कि रेलवे के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे पता लगाया जा सके कि हर ट्रेन को चलाने की लागत क्या है! उस रिपोर्ट को पूरी तरह लागू करने की जरूरत है।

सरकारी कोष की बरबादी और विचलन को रोकना राजनीतिक रूप से मुश्किल है और उसमें समय भी काफी लगेगा। मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को रसोई गैस सब्सिडी छोड़ने के लिए तो कहा गया, पर राजनीतिक वर्ग अपना हक छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। एक सांसद को सालाना 50 हजार यूनिट बिजली और डेढ़ लाख फोन कॉल्स की सुविधा है। तमाम सरकारें मुश्किल वक्त में लोगों को कमर कसने के लिए कहती हैंै, लेकिन केंद्र व राज्यों की सरकारें अपना खर्च घटाने की कोशिश नहीं करतीं। यह देखने लायक है कि एक के बाद एक सरकारों ने किस तरह उधार एवं कर्ज के जरिये ही समाधान तलाशा है। पिछले एक दशक में भारत सरकार की सकल उधारी 1,31,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 6,00,000� करोड़ रुपये तक पहुंच गई। केंद्र एवं राज्यों का सकल कर्ज 2005-06 से 2014-15 के बीच 28.9 लाख करोड़ से बढ़कर 83.6 लाख करोड़ रुपये हो गया है।

जाहिर है, विकास का यह मॉडल टिकाऊ नहीं है। सरकारों को लगता है कि जीएसटी, भूमि अधिग्रहण या प्रत्यक्ष विदेशी निवेश ही बड़े सुधार हैं। बड़े सुधार से लोग यह समझते हैं कि उन्हें कितना ज्यादा लाभ मिलने वाला है। इसलिए बजट में-क्या किया जा सकता है-के बजाय चर्चा इस पर होनी चाहिए कि क्या करना जरूरी है। प्रश्न यह है कि सरकार कब कमर कसेगी?

अर्थशास्त्र की राजनीति के विशेषज्ञ एवं 'एक्सीडेंटल इंडिया' के लेखक


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/when-govt-will-take-a-stand-hindi/


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