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न्यूज क्लिपिंग्स् | किताबें तो अब भी काम की हैं- चंद्रशेखर तिवारी

किताबें तो अब भी काम की हैं- चंद्रशेखर तिवारी

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published Published on Aug 12, 2015   modified Modified on Aug 12, 2015
ज्ञान को सर्वसुलभ बनाने में पुस्तकालय से बेहतर दूसरा विकल्प शायद ही हो सकता है। इसी बात को ध्यान में रखकर वर्ष 2005 में गठित भारतीय ज्ञान आयोग की पहल पर देश में एक स्वायत्त राष्ट्रीय पुस्तकालय आयोग की स्थापना की गई। इस आयोग की देखरेख में पुस्तकालयों के विकास, संरक्षण व संवर्धन की दिशा में कार्य किया जा रहा है। वर्तमान में देश में सार्वजनिक पुस्तकालयों के चार स्तर मौजूद हैं- राज्य केंद्रीय पुस्तकालय, जिला पुस्तकालय, उपमंडल/नगर पुस्तकालय और ग्रामीण ज्ञान केंद्र/समुदाय सूचना केंद्र। देश के लगभग हर छोटे-बड़े शहरों व कुछ गांवों में स्थित ये सार्वजनिक पुस्तकालय शासकीय अथवा अशासकीय व्यवस्था से संचालित हो रहे हैं। इनका सामान्य कार्य हर वर्ग, धर्म, संप्रदाय को पठन सामग्री के उपयोग की सुविधाएं प्रदान करना है।

आज जिस तरह देश में पुस्तक प्रकाशन से जुड़े व्यवसाय में निरंतर वृद्धि हो रही है, और जिस तरह अनेक स्थानों में आयोजित छोटे-बड़े साहित्यिक उत्सवों व पुस्तक मेलों में लोगों की भागीदारी बढ़ रही है, उसके सापेक्ष सार्वजनिक पुस्तकालयों की तस्वीर विपरीत है। वहां अपेक्षाकृत पाठकों की इतनी भीड़ नहीं दिखाई देती। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा संचालित होने वाले तथा कुछ अन्य विशिष्ट सार्वजनिक पुस्तकालयों को छोड़कर ज्यादातर पुस्तकालयों में गिने-चुने पाठक, जीर्ण-शीर्ण भवन, व धूल फांकती किताबें, खस्ताहाल फर्नीचर, अप्रशिक्षित पुस्तकालय कर्मचारी और वहां मौजूद सन्नाटे को देखकर निराशा होनी स्वाभाविक है।

यों तो हर सार्वजनिक पुस्तकालयों के संचालन व रख-रखाव के लिए व्यवस्था की गई है। तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, गोवा, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, केरल, मिजोरम, राजस्थान, छत्तीसगढ, लक्षद्वीप व ओडिशा की राज्य सरकारों ने तो अपने यहां सार्वजनिक पुस्तकालय अधिनियम भी पारित किया हुआ है। बावजूद इनके पुस्तकालयों की स्थिति में खास बदलाव देखने को नहीं मिल रहा। एक ओर जहां अनेक पुस्तकालय अच्छी-खासी पाठक संख्या होने पर भी वित्तीय व अन्य संसाधनों की समस्या का सामना कर रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर कई साधन-संपन्न पुस्तकालय ऐसे भी हैं, जो पाठकों की राह निहार रहे होते हैं।

लिहाजा सार्वजनिक पुस्तकालयों को सांस्कृतिक व बौद्धिक गतिविधियों के केंद्र के तौर पर विकसित करने की पहल होनी चाहिए। स्तरीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन के साथ ही व्याख्यान, साहित्यिक गोष्ठी, प्रदर्शनी व कलात्मक व फीचर फिल्मों का प्रदर्शन जैसे कार्यक्रम पुस्तकालयों पर किए जाने चाहिए। युवा पाठकों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने, रोजगार संबंधी जानकारी उपलब्ध कराने एवं स्वाध्याय का साधन भी पुस्तकालय को बनाया जा सकता है। संचार व सूचना तकनीक के आधुनिक युग में सार्वजनिक पुस्तकालयों को कंप्यूटर, इंटरनेट सुविधा, लाइब्रेरी नेटवर्किंग, डिजिटल लाइब्रेरी सर्विस, ऑनलाइन सर्विस जैसी अन्य सुविधाओं से जोड़ने की प्रारंभिक पहल भी की जा सकती है। बच्चों के लिए पृथक चिल्ड्रेन सेक्शन की स्थापना और वरिष्ठ नागरिकों व शारीरिक तौर पर अशक्त पाठकों के लिए सचल पुस्तकालय की व्यवस्था पर भी विचार किया जाना चाहिए।

-दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में रिसर्च एसोसिएट


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/books-are-still-useful-hindi/


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