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न्यूज क्लिपिंग्स् | किसान मदद के मोहताज क्यों हैं -- रमेश कुमार दुबे

किसान मदद के मोहताज क्यों हैं -- रमेश कुमार दुबे

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published Published on Apr 7, 2017   modified Modified on Apr 7, 2017
तमिलनाडु के कावेरी बेसिन के सूखा-पीड़ित किसान पिछले तीन हफ्तों से इंसानी खोपड़ियों के साथ दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे हैं ताकि दिल्ली के हुक्मरानों को अपनी आवाज सुना सकें। इनका दावा है कि ये खोपड़ियां उन किसानों की हैं जिन्होंने कर्ज के दुश्चक्र में फंस कर आत्महत्या कर ली या भूख ने जिनकी जान ले ली। एक नई प्रवृत्ति यह है कि यहां के लोग आत्महत्या करने वाले किसानों के शवों को जलाने के बजाय दफना रहे हैं ताकि भविष्य में उनके अवशेषों को दिखा सकें। धीरे-धीरे प्रदर्शनकारी किसानों के समर्थन में नेताओं की आवाजाही शुरू हुई और किसानों को राहत पैकेज देने की मांग जोर पकड़ने लगी है। इस बीच मद्रास हाइकोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को सूखा प्रभावित क्षेत्रों के किसानों के कर्ज माफ करने का आदेश दिया। इसके साथ ही अदालत ने सहकारी समितियों और बैंकों से कहा है कि वे बकाया वसूली करने से बचें।


इसी दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य मंत्रिमंडल की पहली बैठक में सूबे के दो करोड़ से अधिक छोटे व सीमांत किसानों के कुल 36,359 करोड़ रुपए के फसली कर्ज माफ कर दिए। उत्तर प्रदेश सरकार ने इसके लिए केंद्र से मदद की बाट जोहने के बजाय किसान राहत बांड जारी करने का फैसला किया है ताकि दूसरे राज्य उत्तर प्रदेश का उदाहरण देकर केंद्र पर कर्जमाफी के लिए दबाव न बनाएं। इसके बावजूद महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तराखंड से कर्जमाफी की आवाज उठने लगी है। आने वाले दिनों में कई और राज्यों से कर्जमाफी की मांग उठने लगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।


पर दुर्भाग्यवश कोई राजनेता उन कारणों को दूर करने का उपाय नहीं सुझा रहा है जिनके चलते खेती-किसानी बदहाल है। यहां तमिलनाडु का उदाहरण प्रासंगिक है। बारिश की कमी, सिंचाई के पुख्ता इंतजाम न होने, जल-स्तर नीचे जाने से कावेरी नदी के डेल्टाई इलाकों (कावेरी बेसिन) में डेढ़ सौ साल का सबसे भीषण सूखा पड़ा है। तमिलनाडु के कावेरी बेसिन का इलाका चोलमंडलम के नाम से जाना था। इसकी गिनती देश के सबसे उपजाऊ इलाकों में की जाती है, जहां साल में दो-तीन फसलें ली जाती रही हैं। कावेरी बेसिन की उर्वरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दस साल पहले तक इलाके में जब किसी के यहां शानदार वैवाहिक समारोह होता था तो लोग अपने आप मान लेते थे कि यह घर किसान का होगा। लेकिन आज उसी इलाके में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। मानसून की बढ़ती अनिश्चितता, कावेरी नदी से पानी मिलने में कर्नाटक के साथ होने वाली राजनीति, गिरता भूजल स्तर और बढ़ती लागत के चलते अब किसान साल में मुश्किल से एक फसल उगा पाते हैं। इस साल तो उसकी भी उम्मीद नहीं है।


जो हालत तमिलनाडु के कावेरी बेसिन की है वही कमोबेश पूरे देश की होती जा रही है। जो किसान आत्महत्याएं कभी पश्चिमी और दक्षिणी भारत के नकदी खेती वाले इलाकों तक सिमटी थीं उनका दायरा अब समूचे देश में फैलता जा रहा है। मौसम की बढ़ती अनिश्चितता, कुदरती आपदाओं में इजाफा, बढ़ती लागत आदि के चलते खेती घाटे का सौदा बनती जा रही है। फलस्वरूप किसानों की ऋणग्रस्तता बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक देश के नौ करोड़ कृषि परिवारों में से 52 फीसद परिवारों ने खेती-किसानी के लिए कर्ज लिया हुआ है। फसल बरबाद होने पर यही कर्ज किसानों को आत्महत्या के फंदे तक पहुंचा देता है।


http://www.jansatta.com/politics/opinion-tamil-nadu-farmers/293790/


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