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न्यूज क्लिपिंग्स् | किसानों की आत्महत्याः एक 12 साल लंबी दारूण कथा

किसानों की आत्महत्याः एक 12 साल लंबी दारूण कथा

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published Published on May 6, 2010   modified Modified on May 6, 2010
 
 कुछ लोगों के लिए किसानी मुनाफे का धंधा हो सकती है, लेकिन देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए यह घाटे का सौदा बना दी गई है. न सिर्फ घाटे का सौदा, बल्कि मौत का सौदा भी. और यह सिर्फ इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि खेती से महज कुछ लोगों का मुनाफा सुनिश्चित रहे. यही वजह है कि खेतिहरों के कर्जे की माफी का फायदा भी आम खेतिहरों को नहीं मिला बल्कि बड़े किसानों को मिला. हाशिया पर तभी इसकी आशंका जतायी गयी थी. किसानों की हालिया आत्महत्याओं और इस पूरे सिलसिले पर पी साइनाथ की रिपोर्ट. इसका अनुवाद किया है हमारे साथी मनीष शांडिल्य ने.
 
 
 
 
 
 
2006-08 के बीच महाराष्ट्र में 12,493 किसानों ने आत्महत्या की. किसानों की आत्महत्या का यह आंकड़ा 1997-1999 के दौरान दर्ज किये गये आंकड़ों से 85 प्रतिशत अधिक है. 1997-1999 के दौरान 6,745 किसानों ने आत्महत्या की थी. किसी भी राज्य में तीन वर्षों के किसी भी अंतराल में इतनी बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं नहीं की गयी थीं.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2008 के ऋण माफी वाला साल देश में 16,196 किसानों की आत्महत्याओं का गवाह बना. 2007 की तुलना में ऋण माफी वाले साल आत्महत्याओं के आंकड़े में सिर्फ 436 की ही गिरावट दर्ज हुई. किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों पर गहराई से काम करने वाले अर्थशास्त्री प्रोफेसर के. नागराज कहते हैं, ''इन आंकड़ों को लेकर कहीं से भी आश्वस्त होने की कोई गुंजाइश नहीं है और न ही इन आंकड़ों पर खुद अपनी पीठ ही थपथपाई जा सकती है.'' 1990 के दशक के उत्तरार्ध में जो सिलसिला शुरू हुआ था और 2002 के बाद जो और बदतर हो गया, उसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं आया था. निराशाजनक सच्चाई यह है कि तेजी से घटती कृषक आबादी के भीतर किसान काफी बड़ी संखया में अब भी आत्महत्याएं कर रहे हैं.
अभी हाल के 1991 और 2001 की जनगणना के बीच लगभग 80 लाख किसानों ने खेती छोड़ दी. लगभग एक साल बाद 2011 की जनगणना हमें यह बतायेगी कि बीते दशक में और कितने किसानों ने खेती छोड़ी. इस आंकड़े के 80 लाख से कम रहने की संभावना नहीं है. आने वाले जनगणना के आंकड़े पिछले आंकड़ों को भी शायद बौना साबित कर सकते हैं क्योंकि 2001 के बाद खेती से पलायन संभवतः तेज ही हुआ है. राज्यवार कृषि आत्महत्या अनुपात - प्रति 10 लाख किसानों पर आत्महत्या करने वाले किसानों की संखया - अब भी 2001 के पुराने आंकड़े पर ही आंकी जाती हैं. इस कारण 2011 की जनगणना किसानों की अधिक प्रामाणिक गिनती के साथ संभवतः वर्तमान परिस्थितियों की और भयावह तस्वीर ही प्रस्तुत करे.
भारत में कुल आत्महत्या के एक हिस्से के रूप में किसानों की आत्महत्याओं पर ध्यान केंद्रित करना गुमराह करता है. कुछ इस तरह, ''अहा! यह प्रतिशत तो नीचे आ रहा है.'' यह बकवास है. पहली बात तो यह कि एक बढ़ती हुई आबादी में आत्महत्या की कुल संख्या (सभी समूहों में, सिर्फ किसानों में ही नहीं) बढ़ रही है. लेकिन किसानों की घटती आबादी के बावजूद उनकी आत्महत्याएं बढ़ रही है. दूसरा यह कि, एक अखिल भारतीय तस्वीर इस संकट की भयावहता को छुपा लेता है. तबाही 5 बड़े राज्यों (महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) में केंद्रित है. 2003-08 के दौरान जितने किसानों ने आत्महत्या की थी, उनमें से दो तिहाई किसान इन्हीं 05 बड़े राज्यों से थे. इन 05 बड़े राज्यों में किसानों की आत्महत्याओं का प्रतिशत बढ़ गया है. इससे भी बदतर स्थिति यह है कि इन राज्यों में कुल अखिल भारतीय आत्महत्या (सभी श्रेणियों) का प्रतिशत भी बढ़ा है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे गरीब राज्य बीते कुछ वर्षों में इस संकट से बहुत बुरी तरह से प्रभावित रहे हैं.
1997-2002 के बीच देश के 5 बड़े राज्यों में होने वाली 12 आत्महत्याओं में से लगभग 1 आत्महत्या किसानों की होती थी. यह अनुपात 2003-08 की अवधि के बीच बढ़ा और इन राज्यों में होने वाली 10 आत्महत्याओं में से लगभग एक हिस्सा किसानों की आबादी का हो गया.
एनसीआरबी के पास अब 12 साल के दौरान किये गये किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा है. वास्तव में, किसानों से संबंधित आंकड़े 1995 के बाद से एक स्वतंत्र आंकड़े के रूप में दर्ज किये जाने लगे, लेकिन कुछ राज्य पहले दो वर्षों में यह आंकड़ा जुटाने में विफल रहे. इसलिए 1997 एक अधिक विश्वसनीय आधार वर्ष है क्योंकि इसी साल से सभी राज्य किसानों की आत्महत्या से संबंधित आंकड़े उपलब्ध करा रहे हैं. एनसीआरबी ने पिछले सभी वर्षों के ''भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्याएं'' के रपटों को अपनी वेबसाइट पर रखकर ऐसे आंकड़ों का आसानी से उपयोग सुनिश्चित कर दिया है.
1997 से 2008 के बीच की 12 साल की अवधि हमें किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों की तुलना करने का मौका देती है. हम यह पता लगा सकते हैं कि 1997-2002 के पहले 6 वर्षों के मुकाबले अगले 6 वर्षों 2003-2008 की अवधि में किस तेजी से किसानों की आत्महत्या दर में वृद्धि हुई. 12 साल का यह पूरा समय ही किसानों के लिए काफी बुरा गुजरा, लेकिन बाद के छह साल निश्चित ही ज्यादा बुरे थे.
किसी एक साल की आत्महत्या में गिरावट या वृद्धि के अध्ययन की 'प्रवृत्ति' भ्रामक है. वर्ष 1997-2008 के बीच के 3 या 6 साल के अंतराल का अध्ययन करना ज्यादा बेहतर है. उदाहरण के लिए, 2005में महाराष्ट्र के किसानों की आत्महत्या की संख्या में गिरावट देखी गयी थी, लेकिन अगला ही साल इस मामले में सबसे भयावह साबित हुई. 2006 के बाद से राज्य में कई पहल हुए हैं. मनमोहन सिंह की विदर्भ यात्रा उस साल क्षेत्र के छह संकट ग्रस्त जिलों के लिए 3,750 करोड़ रुपए का ''प्रधानमंत्री राहत पैकेज'' भी अपने साथ लायी थी. यह पैकेज तत्कालीन मुखयमंत्री विलासराव देशमुख के 1,075 करोड़ रुपए के ''मुखयमंत्री राहत पैकेज'' की घोषणा के बाद मिला था. इसके बाद महाराष्ट्र को किसानों को दिये गये 70,000 करोड़ रुपये के केन्द्रीय कर्ज माफी में अपने हिस्से के करीब 9,000 करोड़ मिले. इस कर्ज माफी का लाभ जिन किसानों को नहीं मिल सकता था, उनको राहत देने के लिए राज्य सरकार ने इस केन्द्रीय कर्ज माफी में 6,200 करोड़ रुपए जोड़े. पांच एकड़ से अधिक जमीन पर मालिकाना होने के कारण जिन गरीब किसानों को कर्ज माफी की परिधि से बाहर रखा गया था, उनके साथ एकमुश्त बंदोबस्ती (ओटीएस) करने के लिए राज्य सरकार ने कर्ज माफी की राशि में अतिरिक्त 500 करोड़ रुपए जोड़े.
कुल मिलाकर, 2006, 2007 और 2008 में महाराष्ट्र में इस कृषि संकट का सामना करने के लिए 20,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि उपलब्ध कराई गयी. (और इसमें चीनी मिल मालकों द्वारा उदारतापूर्वक किये गये विशाल दान को शामिल नहीं किया गया है.) फिर भी, खेती संबंधी आंकड़ों की गणना शुरू होने के बाद से ये तीन साल किसी भी समय में किसी भी राज्य के लिए सबसे ज्यादा बुरे साबित हुए. 2006-08 में, महाराष्ट्र में 12, 493 किसानों ने आत्महत्या की. यह पिछले 2002-2005 के सबसे खराब वर्षां से लगभग 600 अधिक था और 1997-1999 की तीन वर्ष की अवधि के दौरान दर्ज किये गये 6,745 आत्महत्याओं से 85 प्रतिशत ज्यादा था. संयोग से, सबसे ज्यादा बुरे इन छह वर्षां में एक ही सरकार सत्ता में थी. इसके अलावा, आत्महत्याओं की संखया एक सिकुड़ते कृषि आबादी में बढ़ रही है. 2001 तक महाराष्ट्र की 42 प्रतिशत जनसंख्या पहले से ही शहरी आबादी में तब्दील हो चुकी थी. इसका कृषक आधार निश्चित रूप से नहीं बढ़ा है.
तो क्या कर्ज माफी बेकार था? कर्ज माफी का विचार एक बुरी सोच नहीं थी. और यह एक सही हस्तक्षेप था. लेकिन इस संबंध में उठाये गये विशेष कदम गलत दिशा में और गुमराह करने वाले थे. लेकिन तर्क यह भी दिया जा सकता है कि कर्ज माफी कम से कम कुछ किसानों के लिए तो राहत लाया, नहीं तो 2008 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संखया भयावह रूप से बढ़ सकती थी. कर्ज माफी किसानों के लिए एक स्वागत योग्य कदम था, लेकिन इसकी संरचना त्रुटिपूर्ण थी. इस एक बिंदु को प्रमुखता से इस पत्रिका में उठाया गया (ओह, क्या एक प्यारी छूट, 10 मार्च, 2008). यह कर्ज माफी सिर्फ बैंक ऋण से ही संबंधित थी और इसमें साहूकार से लिये गये कर्जों की अनदेखी की गयी थी. इस कारण केवल उन्हीं किसानों को ही लाभ हुआ जिनकी संस्थागत ऋण तक पहुंच थी. आंध्र प्रदेश में बंटाई पर खेती करने वाले और विदर्भ एवं दूसरी जगहों में गरीब किसानों को मुखय रूप से साहूकारों से ही कर्ज मिलता है. ऐसे में वास्तव में, केरल के किसानों, जहां हर किसान का अपना एक बैंक खाता है, को अधिक लाभ होने की संभावना थी. (केरल एक राज्य था जहां साहूकारों से मिलने वाले कर्ज के मुद्दे को संबोधित किया जाना था.)
2008 की कर्ज माफी की परिधि से पांच एकड़ से अधिक जमीन रखने वाले किसानों को बाहर रखा गया, इसमें सिंचित और असिंचित भूमि के बीच कोई फर्क नहीं किया गया था. इस फैसले ने आठ या 10 एकड़ की जोतवाली कम उपजाऊ और सूखी जमीन पर संघर्ष कर रहे किसानों को बर्बाद कर दिया. दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल के किसानों, जिनमें बड़ी संख्या 5 एकड़ की सीमा के नीचे आने वाले छोटे किसानों थी, को इस कर्ज माफी का कहीं ज्यादा लाभ मिला.
हरेक आत्महत्या के एक नहीं कई कारण हैं. लेकिन जब आपके सामने ऐसे करीब 2,00,000 कारण मौजूद हों, तो उनमें से कुछ अहम लेकिन समान कारणों को सूचीबद्ध करना बुद्धिमानी होगी. जैसा कि डा. नागराज बार-बार बताते हैं कि आत्महत्याएं ऐसे क्षेत्रों में केंद्रित दिखाई देती हैं, जहां कृषि का बड़े पैमाने पर व्यावसायीकरण हुआ है और जहां किसान कर्ज के बोझ तले बहुत अधिक दबे हैं. नकदी फसल उगाने वाले किसान खाद्य फसल उगाने वाले किसानों की तुलना में कहीं अधिक संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं. फिर भी संकट के मूल बुनियादी कारण अब तक अछूते ही हैं. जिनमें प्रमुख हैं : खेती को लूटने वाला कृषि के व्यावसायीकरण की प्रक्रिया, कृषि क्षेत्र में निवेश में भारी गिरावट, खेती में काम आने वाले सामानों के आसमान छूती कीमतों के समय में बैंक ऋण की वापसी, खेती की लागत में विस्फोटक वृद्धि और इसके साथ ही खेती से होने वाली आय में भारी कमी, इससे जुड़े सभी जोखिमों को जानते हुए भी खाद्य फसल से नकदी फसल की खेती की ओर लाखों किसानों का स्थानांतरण, कृषि के हर बड़े क्षेत्र, विशेष रूप से बीज, पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा, बढ़ता जल संकट और संसाधनों के निजीकरण की ओर उठाये गये कदम. इस संकट के सभी मूल कारणों को दूर किये बगैर सरकार सिर्फ एक कर्ज माफी के सहारे ही संकट को समाप्त करने की कोशिश कर रही थी.
2007 के अंतिम महीनों में द हिंदू (12-15 नवम्बर) ने डा. नागराज द्वारा किये गये एनसीआरबी के आंकड़ों के अध्ययन से उभरते नतीजों पर यह लेख प्रकाशित किया था कि 1997 और 2005 के बीच लगभग 1.5 लाख किसानों ने निराशा में अपना जीवन समाप्त कर लिया. इसके कुछ दिनों बाद ही केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने संसद में इन आत्महत्याओं (राज्य सभा-तारांकित प्रश्न संखया 238, 30 नवम्बर, 2007) की पुष्टि एनसीआरबी के आंकड़ों का ही हवाला देते हुए की थी. यह त्रासद है कि 27 महीने बाद, उसी अखबार की मुख्य खबर यह बनी कि यह संख्या लगभग 2 लाख पर पहुंच गयी है. यह संकट किसी भी मायने में दूर नहीं हुआ है. अपने शिकार का मजाक उड़ा रहा है, अपने आलोचकों पर ताने कस रहा है. और दिखावटी बदलावों से यह दूर भी नहीं होगा

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