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न्यूज क्लिपिंग्स् | किसानों की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार- राम कौंडिन्या

किसानों की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार- राम कौंडिन्या

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published Published on Dec 23, 2011   modified Modified on Dec 23, 2011
भारतीय किसान की तस्वीर आज भी कमोबेश कक्षा आठ में लिखे जाने वाले उस निबंध से बाहर नहीं निकल पाई है, जहां हम पहली लाइन में तो यह लिखते थे कि किसान देश का पेट पालते हैं, लेकिन आखिरी लाइन यही रहती थी कि किसान किसानी से इतना कमा नहीं पाते कि वे अपना पेट पाल सकें। भारतीय किसान की यह तस्वीर बदलती क्यों नहीं है? जीवन के हर हर क्षेत्रों में हमने बदलाव देखा और स्वीकारा भी, लेकिन खेती में होने वाले बदलावों को स्वीकारना कभी हमारी प्राथमिकता में क्यों नहीं आता? वर्षो पहले ऑस्ट्रेलिया हमसे मुट्ठी भर दाल सैंपल के तौर पर ले गया और आज दलहन का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया। लेकिन हम आज भी खेती को पारंपरिकता से जोड़े रखने में गौरव महसूस करते हैं। विश्व ग्लोबल विलेज में बदल रहा है और इस बदलाव को कृषि में महसूस करने की जरूरत है। अन्न को लेकर हमें भले भी काफी भावनात्मक रहते हैं, लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि गेहूं के उत्पादन में हमें जो पहली ऐतिहासिक सफलता मिली, वह बौने मैक्सिकन बीजों के इस्तेमाल से मिली। इसी प्रकार धान की उपज में आइआरआरआइ बीजों (जैसे कि आइआर-8, आइआर-64 आदि) के द्वारा क्रांति आई जो फिलिपींस से आए थे। बाद में हमने आयातित किस्मों को अपनी देसी किस्मों के साथ मिलाकर विकसित किया और हमने देश में ही उच्च उपज देने वाले बीज तैयार कर लिए। वास्तव में भारत की खाद्य सुरक्षा और स्वावलंबन की कहानी कहीं अकेले में बैठकर नहीं लिखी गई, बल्कि ऐसा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि कई अन्य देशों से बीजों की विभिन्न किस्में यहां आई। कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठनों और भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने इस विषय पर काम किया, उन्होंने अपनी सर्वोत्कृष्ट सामग्री को संयोजित किया। कुछ पाया तो कुछ खोया भी इसमें कोई शक नहीं है कि 1970 और 1980 के दशकों में हमने खाद्यान्न उत्पादन में जो जबरदस्त तरक्की की है, उससे हममें खाद्य सुरक्षा का भाव जागा है। लेकिन जिस तरह से जनसंख्या वृद्धि हो रही है, उसे देखते हुए स्थिति संतोषजनक नहीं लगती। भारत की अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (आइसीआरआइईआर) के एक कार्य-पत्र के मुताबिक, वर्ष 2020 तक भारत को अपनी पैदावार दोगुनी करनी होगी। मांस, मछली और अंडों के लिए मांग में 2.8 गुना वृद्धि हो जाएगी। अनाज के लिए मांग में दोगुना इजाफा होगा। फलों और सब्जियों के लिए मांग में 1.8 गुना की बढ़ोतरी का अनुमान है और दूध की मांग 2.6 गुना होने की अपेक्षा है। ये सभी अनुमान वर्ष 2007 की मांग पर आधारित हैं। मांग में इस प्रगति के चलते अगले 10 से 15 सालों में भूमि तथा जल संसाधनों पर और ज्यादा दबाव पड़ेगा। अगर कपास को छोड़ दें तो वर्ष 1991 और 2007 के बीच भारत में अन्य सभी फसलों की पैदावार स्थिर रही। कृषि मंत्रालय के आंकड़े यह जाहिर करते हैं कि इस अवधि में गेहूं, धान, दालों, सोयाबीन और गन्ने की उपज में वृद्धि मात्र 0.19 प्रतिशत से लेकर 1.4 प्रतिशत सालाना रही है। हालांकि इसी दौरान कपास की पैदावार 4.38 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ी है, जो वास्तव में यह दर्शाती है कि जीएम तकनीक की बदौलत कितनी तरक्की हुई है। अब तक बीटी कॉटन ही ऐसी एकमात्र जीएम फसल है, जिसे भारत में खेती के लिए मंजूरी दी गई है और इस किस्म ने भारतीय किसानों को अत्यधिक लाभ पहुंचाया है। आज करीब 58 लाख भारतीय कपास किसान ढाई करोड़ एकड़ से ज्यादा जमीन पर बीटी कॉटन उगा रहे हैं। साल 2002 में इस तकनीक के भारत में इस्तेमाल शुरू किए जाने के बाद से कपास का उत्पादन दोगुना हो चुका है। कभी भारत कपास को आयात किया करता था। आज यह दुनिया में कपास का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। बीटी कॉटन से उत्पाद बढ़ा और कीटनाशकों की खपत कम हुई। इन दोनों पहलुओं के चलते किसानों की आमदनी में लगभग 31,500 करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है। यह एक अभूतपूर्व सफलता है, जो इस तकनीक के अमल में आने के बाद मात्र सात सालों में प्राप्त की गई है। इससे साबित होता है कि किसानों ने इस प्रौद्योगिकी को स्वीकार किया है और उनका अनुभव बेहद अच्छा रहा है। खाद्य की उपलब्धता को बढ़ाने के महत्वपूर्ण तरीकों में से एक यह है कि देश में भूमि और जल की उत्पादकता को बढ़ाया जाए। औद्योगिकरण का दबाव, कृषि योग्य भूमि की कमी और घटते जल स्तर के चलते यह काम सरल प्रतीत नहीं होता। हालांकि कृषि के तौर तरीकों और उपज में सुधार के जरिये इस समस्या से निपटने के बेहतरीन मौके हमारे पास हैं। अनुमान है कि बेहतर कृषि विधियों से पैदावार को 50 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है, जबकि फसल सुधार के द्वारा उपज में 50 प्रतिशत से भी अधिक वृद्धि की जा सकती है। आपूर्ति श्रृंखला में कम बर्बादी, जमीन, पानी, लवणीय मिट्टी की बढ़ी उत्पादकता, कृषि विधियों और फसल में सुधार आदि इन सभी उपायों को एक पैकेज के तौर पर प्रयोग करना होगा, तभी अगले 25 से 40 सालों में हम अपनी बढ़ती आबादी के लिए पर्याप्त खाद्य उपलब्ध करा सकेंगे। इनमें से किसी भी एक तरीके के दम पर पूर्ण सफलता हासिल नहीं की जा सकती। हमें बॉयो टेक्नोलॉजी को भी अपनाना पड़ेगा। पारंपरिक तरीकों को बाय-बाय लोगों में एक गलत धारणा फैली हुई है कि कृषि जैव प्रौद्योगिकी का अर्थ सिर्फ आनुवांशिक संशोधन है। यह सही नहीं है। कृषि जैव प्रौद्योगिकी की कई विशेषताएं और तकनीकें होती हैं, जिनमें से आनुवांशिक संशोधन सबसे मशहूर टेक्नोलॉजी है। आणविक चिह्नक आधारित चयन वह साधन है, जो भारत और विदेशों में व्यापक तौर पर प्रयोग किया जाता है। इससे पादप प्रजनन की गति और शुद्धता में वृद्धि की जाती है। इसके अलावा और भी कई जैव तकनीकी साधन हैं, जिनका इस्तेमाल पादप प्रजनन के लिए काफी किया जाता है। जैसे कि डिहाप्लॉयड्स, ट्शि्यू कल्चर आदि। बीटी से परहेज क्यों आनुवांशिक रूप से से उन्नत बीज सबसे पहले 1996 में दुनिया में पेश किए गए थे। वर्ष 2010 में 29 देशों के 1 करोड़ 54 लाख किसानों ने 14 करोड़ 80 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बॉयोटेक फसलों को बोया, 90 प्रतिशत यानी 1 करोड़ 44 लाख किसान विकासशील देशों के गरीब तथा अल्प-संसाधन युक्त किसान थे। यह हिस्सेदारी पिछले 5 सालों से बेहद तेजी से बढ़ रही है, जीएम फसलों की स्वीकृति का स्तर काफी ऊपर पहुंच चुका है। जीएम की दो किस्म की विशेषताएं होती हैं। वे हैं इनपुट ट्रेट्स और आउटपुट ट्रेट्स। इनपुट ट्रेट्स वे होते हैं, जो पौधे में एक गुण डालते हैं। इसकी वजह से फसल में जो चीजें डाली जाती हैं, वे बदल जाती हैं। इससे सबसे पहला फायदा किसान को होता है। इसका एक उदाहरण है कीटों को सहन करने की क्षमता (बीटी), जिससे पौधे को ऐसी शक्ति मिलती है कि वह फसलों पर हमला करने वाले कीटों का मुकाबला कर पाता है। इस विशेषता से फसलों में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों के प्रयुक्त होने का तरीका बदल जाता है। अन्य उदाहरण है खरपतवार सहने की क्षमता, जो खरपतवार के इस्तेमाल के तरीके को बदल देती है। अब तक केवल बीटी कॉटन ऐसी जीएम फसल है, जिसे भारत में खेती की अनुमति मिली है। मैंने पहले भी कहा कि जीवन के हर क्षेत्र में आधुनिकता प्रवेश कर रही है। परंपरा के मोह में हम आधुनिकता का विरोध करते हैं, लेकिन हमारी जीवनशैली ऐसी हो गई है कि विरोध के बाद भी आधुनिकता चुपके से हमारे साथ हो लेती है। कृषि को भी हमें इसी तरीके से देखना होगा। बदलाव को महसूस करते हुए नई तकनीकि और प्रौद्योगिकी को अपनाना होगा, तभी भारतीय किसान की तस्वीर भी बदलेगी और किसान देश का पेट पालने के साथ-साथ अपना पेट भी पाल सकेंगे। (लेखक एसोसिएशन ऑफ बायोटेक लेड एंटरप्राइसिस एग्रीकल्चर ग्रुप के चेयरमैन हैं)

http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-12-23&pageno=9#id=1117291042114553242_49_2011-12-23


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