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न्यूज क्लिपिंग्स् | किसानों की नाराजगी का नतीजा-- नीरजा चौधरी

किसानों की नाराजगी का नतीजा-- नीरजा चौधरी

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published Published on Dec 13, 2018   modified Modified on Dec 13, 2018
पांच राज्यों के चुनावी नतीजों ने किसानों को फिर से राजनीति के केंद्र में ला दिया है। संदेश साफ है कि खेती-किसानी के हित में हमारे नेताओं को अब गंभीरता से सोचना ही होगा। जनादेश बता रहा है कि लोग अब अपनी जरूरतों को अहमियत देने लगे हैं। खासतौर से नौकरी और आमदनी उनके लिए महत्वपूर्ण सवाल बनकर उभरे हैं। इसीलिए चुनावों में उन्होंने अन्य सभी ‘इमोशनल' मुद्दों को किनारे कर दिया।

किसान आम लोगों की इसी भावना की अगुवाई कर रहे हैं। हमारे सत्ता-प्रतिष्ठानों ने जिस तरह बीते कुछ दशकों से खेती-किसानी से मुंह मोड़ लिया है, उस कारण कृषि पर निर्भर परिवारों की हालत लगातार बिगड़ती गई है। हाल के नोटबंदी जैसे कदमों ने भी किसानों की कमर तोड़ दी। खेती में जब फायदा कम होने लगा था, तो किसान परिवारों का कोई न कोई सदस्य शहर में काम करने जाया करता था। वह वहां निर्माण-कार्यों में जुट जाता या फिर मजदूरी आदि करता। मगर नोटबंदी की वजह से अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती से ऐसी संभावनाएं भी खत्म हो गईं। इसीलिए ये बातें मतदाताओं में भरोसा नहीं जगा पाईं कि सूबे में कितनी सड़कें बन गई हैं या फिर कितने घरों को उज्ज्वला योजना का लाभ मिला है? मतदान रोजी-रोटी के सवालों पर आकर ठहर गया।

देश में किसानों की राह इसलिए भी पथरीली हो गई है कि उनकी लागत जितनी बढ़ी है, आमदनी में उतनी ही कमी आई है। ऐसा नहीं है कि सरकारें यह नहीं समझ रही हैं। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाए। वहां ‘भावांतर योजना' भी शुरू की गई। मगर इसका जमीन पर प्रभावी रूप से लागू न हो पाना, उनकी हार का कारण बना। छत्तीसगढ़ में भी रमन सिंह सरकार ने किसानों को प्रति क्विंटल 300 रुपये बोनस देने का एलान किया था। इस वजह से किसानों में समर्थन मूल्य के साथ लगभग 2,100 रुपये मिलने का भरोसा जगा था। लेकिन यह भी ठीक ढंग से नहीं हो सका। किसानों को तेलंगाना में उम्मीद दिखी, तो उन्होंने के चंद्रशेखर राव का पूरा साथ दिया। वहां रायथू बंधु (किसानों का मित्र) योजना के तहत किसानों को प्रति फसल 4,000 रुपये प्रति एकड़ दिया गया। नतीजतन, जनता ने तेलंगाना राष्ट्र समिति को फिर से सत्ता सौंप दी। अब मुख्यमंत्री ने सिंचाई योजनाओं पर गंभीरता से काम करने का वादा खेतिहर समाज से किया है।

किसानों की नाराजगी दरअसल, कई मुद्दों को लेकर है। उन्हें अपनी उपज का वाजिब दाम नहीं मिल रहा, और लागत बढ़ने के कारण फसलों की बिक्री के बाद भी उनके हाथ खाली रह जाते हैं। इस तंगी के कारण ही वे अब लगातर मुखर विरोध कर रहे हैं। यह नाराजगी कई बार जातिगत मुद्दों का रूप भी ले रही है। जैसे, मराठा अब आरक्षण की मांग करने लगे हैं। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात में भी हमने आरक्षण-आंदोलन के पक्ष में माहौल बनते-बिगड़ते देखा है। नौकरी न होने और अर्थव्यवस्था में सुस्ती बने रहने के कारण भविष्य में ऐसे कई विरोध-प्रदर्शन देश भर में हो सकते हैं। किसानों का मसला स्थानीय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय है। आम चुनाव में भी इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकेगा।

बहरहाल, कांग्रेस ने तमाम राज्यों में किसानों से कई चुनावी वादे किए हैं। छत्तीसगढ़ में तो उसकी सफलता की बड़ी वजह यही थी कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लोगों की नब्ज पकड़ ली। उन्होंने किसानों की बेचैनी को नोटबंदी और रोजगार से जोड़ दिया। इसीलिए किसान अपनी फसलों को मंडी में लेकर भी नहीं आए। उन्हें यह उम्मीद थी कि नई सरकार बनते ही उनसे किया गया वादा पूरा होगा। उनकी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ेंगे और कर्ज-माफी भी होगी। मगर कांग्रेस कर्ज-माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि से आगे बढ़ती हुई नहीं दिख रही है। साल 2008 में पार्टी ने किसानों के 60,000 करोड़ रुपये से अधिक के कर्ज माफ किए थे, जिसका फायदा उसे 2009 के आम चुनाव में मिला था। मगर आज फिर किसान कर्ज के जाल में फंस चुका है। अकेले

कर्ज-माफी या न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि किसानों की समस्या का समाधान नहीं है। फिर, इन सबके लिए कांग्रेस धन कहां से जुटाएगी, इसका कोई रोडमैप भी पार्टी अध्यक्ष अब तक पेश नहीं कर पाए हैं।

असल में, कृषि अर्थव्यवस्था को संवारने के लिए एक समग्र नीति की दरकार है। कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता में शामिल करना ही होगा। अब तक सरकारों का सारा जोर मैन्युफेक्चरिंग और सर्विस सेक्टर पर ही रहा है, कृषि-अर्थव्यवस्था काफी पीछे छूट गई है, जबकि देश का एक बड़ा तबका आज भी खेती-किसानी में लगा है। इसी कारण, लगभग सात फीसदी की आर्थिक दर को कई अर्थशास्त्री न्यायसंगत नहीं मानते। उनका तर्क है कि यदि वाकई हमारी विकास दर इतनी है, तो किसानों के जीवन में खुशहाली दिखनी चाहिए थी। जाहिर है, उनका इशारा आर्थिक विकास के मॉडल में छिपी खामी की ओर है। इसीलिए चुनावी जंग में तमाम नेताओं को लोक-लुभावन घोषणाएं करनी पड़ती हैं। हालांकि विकासशील देशों में ऐसा किया जाना गलत भी नहीं जान पड़ता, मगर यह हमेशा के लिए नहीं हो सकता। हमारे नीति-नियंताओं को समाधान की ओर बढ़ना चाहिए।

इन चुनावी नतीजों के बाद राहुल गांधी का कद बढ़ गया है। वह सुर्खियों में आ गए हैं। पार्टियों में ही नहीं, जनता में भी अब उनके नेतृत्व पर मुहर लग गई है। उन्हें नए नजरिए से देखा जाने लगा है। लिहाजा उन पर अब कहीं ज्यादा जिम्मेदारी भी आ गई है। देश में एक समान आर्थिक विकास की संकल्पना साकार हो सके, इस पर उन्हें गहरा चिंतन करना ही चाहिए। इसका रोडमैप उन्हें जनता के सामने रखना होगा। अब जब हिंदी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों में कांग्रेस को जनादेश मिला है, तो पार्टी अध्यक्ष की जवाबदेही कहीं ज्यादा बढ़ जाती है। खेती-किसानी का मुद्दा सिर्फ 2019 के आम चुनाव से नहीं, बल्कि देश के भविष्य से जुड़ा है। हमारे राजनीतिज्ञों को इन पांच राज्यों के चुनाव नतीजों का यह संदेश समझना चाहिए।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-opinion-hindustan-column-on-13-december-2310851.html


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