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न्यूज क्लिपिंग्स् | इस फसल को चाहिए नई बहार- हरजिंदर

इस फसल को चाहिए नई बहार- हरजिंदर

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published Published on Aug 14, 2019   modified Modified on Aug 14, 2019

बरसों से वे हमारे दरवाजे पर खड़ी थीं और हम कोई फैसला नहीं कर सके, वही जीएम या जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलें अब जब पिछले दरवाजे से हमारे घर में घुस आई हैं, तो हम परेशान हैं कि इसका करें क्या? वैसे इसे रोकने के बाकायदा नियम-कानून हैं। पर्यावरण संरक्षण कानून के तहत ऐसे लोगों के लिए पांच साल की कैद और एक लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है, जो गैर-कानूनी रूप से ऐसी जीएम फसलों की खेती कर रहे, जिन्हें अभी सरकार से इजाजत नहीं मिली। लेकिन यह आसान नहीं है। खासकर तब, जब खबर यह आ रही है कि देश का 15 फीसदी कपास उत्पादन ऐसी ही फसलों से हो रहा है। तस्करी के जरिए इसके बीज देश में आ रहे हैं और बाजारों में आसानी से उपलब्ध हैं। कहा जाता है कि महाराष्ट्र के कुछ किसानों ने इसकी सफलता का स्वाद पिछली फसल के समय चख लिया था और अब जब मानसून की बारिश ने महाराष्ट्र को भिगोना शुरू किया है, तो किसान इसी फसल की बिजाई पर अड़ गए हैं।

 

इसके लिए अकोला के किसानों ने जो विद्रोह या सिविल नाफरमानी आंदोलन शुरू किया था, वह अब 11 जिलों में फैल चुका है। यहां तक कहा जा रहा है कि किसान अपने खेत में क्या बोना चाहता है, इसे तय करने का हक उसे दिया जाए। बाकी राज्यों की तरह ही महाराष्ट्र में भी किसान सबसे बड़ा वोट बैंक हैं और जब विधानसभा चुनाव बहुत दूर न हों, तो कोई भी दल पर्यावरण संरक्षण कानून के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल की बात सोच नहीं सकता। बात सिर्फ महाराष्ट्र की ही नहीं है। पिछले दिनों हरियाणा के फतेहाबाद में अचानक ही पता चला कि एक किसान के खेत में जीएम बैंगन की फसल लहलहा रही है। उसकी फसल तो नष्ट कर दी गई, लेकिन आगे की जांच में पता पड़ा कि जीएम बैंगन के बीज बड़े पैमाने पर पहुंच चुके हैं और शायद इस्तेमाल भी हो रहे हैं। यह वही जीएम बैंगन है, जिसे तमाम तरह के फील्ड ट्रायल पास करने के बावजूद देश में घुसने की इजाजत कई कारणों से नहीं मिली थी। कोई आश्चर्य नहीं कि अगली बैसाखी तक इस इलाके के कुछ एक खेतों में जीएम सरसों के पीले फूल खिले दिखाई दें। 


जीएम बीजों की तस्करी की आशंका काफी पहले से थी। भारत के आस-पास तकरीबन सभी देशों ने जीएम फसलों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए हैं। चीन तो इन्हीं के दम पर बहुत बड़ा कृषि निर्यातक बनने का सपना पाल रहा है। ये फसलें नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी पहुंच गई हैं। ऐसे में, भारत में इन पर पाबंदी का एक ही अर्थ होगा, तस्करों को एक नया कारोबार मिल जाना। यही हो रहा है। माना जाता है कि किसी चीज की तस्करी को खत्म करने का सबसे अच्छा तरीका है, देश के भीतर उस मांग को खत्म करना, जो तस्करी को पालती-पोसती है। जीएम बीजों की तस्करी भी इसी तरीके से खत्म हो सकेगी। कुछ साल पहले एक दिन अचानक यह पता पड़ा था कि पंजाब के खेतों में धान की एक ऐसी फसल लहलहाने लगी है, जिसे दुनिया भर में पाकिस्तानी सुपर बासमती के नाम से जाना जाता है। अगर हमारे कृषि के नीति-नियामकों ने उस मामले से सबक लिया होता, तो शायद आज यह समस्या इस तरह से न टकराती।

 

बाकी जहां तक किसानों का मामला है, उन्हें जिस रास्ते पर अच्छी फसल और बेहतर लाभ या कम घाटे की उम्मीद दिखेगी, वे जाएंगे ही। भले ही यह लाभ मामूली हो, या हो सकता है कि सिर्फ एक भ्रम ही हो। अभी तक बीटी कॉटन ही एकमात्र ऐसी जीएम फसल है, जिसकी देश में इजाजत है और किसानों के इसके अनुभव बहुत बुरे नहीं हैं, बावजूद इसके कि इसकी कई खामियां सामने आने लगी हैं। देश में कपास का जो उत्पादन पहले 191 किलो प्रति हेक्टेयर होता था, वह पिछले डेढ़ दशक में बढ़कर 477 किलो प्रति हेक्टेयर हो गया है। और इसी की बदौलत भारत दुनिया का सबसे बड़ा कपास निर्यातक बन चुका है। यह ऐसा लाभ है, जो किसानों को साफ दिख रहा है।

 

जीएम फसलों के लिए महाराष्ट्र में जो आंदोलन चल रहा है, उसके पीछे उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का षड्यंत्र भी बताया जा रहा है, जो दुनिया भर में इसका कारोबार करती हैं। यह सच भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि जो कंपनियां सीधे रास्ते से अपना बाजार बनाने में नाकाम रहीं, वे तस्करी शुरू होने के बाद से भारतीय बाजार में फिर नई संभावनाएं देखने लगी हों। और ये बातें गलत भी हों, तो महाराष्ट्र के आंदोलन और तस्करी से जो दबाव बना है, उसका फायदा इन कंपनियों को तो मिलेगा ही। हालांकि किसे फायदा मिलेगा, अब इससे आगे जाकर सोचने की जरूरत है।


आंदोलन और तस्करी ने एक बात तो साबित कर दी है कि जीएम फसलों को रोकना नामुमकिन भले ही न हो, लेकिन आसान भी नहीं है। अगर यह बड़े पैमाने पर होने लगा, तो खेतों में खड़ी फसलों को नष्ट करने का जोखिम कोई भी सरकार नहीं ले सकती है। और दूसरे, आप उन सभी किसानों को अपराधी भी नहीं ठहरा सकते, जो मामूली सी बेहतर उपज के लिए बाजार में उपलब्ध सबसे अच्छा विकल्प चुन रहे हैं। लेकिन इसी के साथ बिना किसी फील्ड ट्रॉयल और भारतीय पर्यावरण पर फसल के प्रभाव का अध्ययन किए ऐसी फसलों को निर्बाध आने देना जोखिम भरा तो होगा ही अंतरराष्ट्रीय बॉयोसेफ्टी नियमों का उल्लंघन भी होगा। अब विकल्प सिर्फ यही है कि नई तकनीक की फसलों के भारत में आने का रास्ता खुद सरकार हर एक का गुण-दोष परखते हुए खोले। इसमें देरी का अर्थ हम देख ही रहे हैं। 


लेकिन ठीक यहीं पर यह समझना भी जरूरी है कि जीएम फसलें किसानों को थोड़ा-बहुत लाभ या उपज ज्यादा हो जाने पर कुछ नुकसान तो दे सकती हैं, लेकिन ये मौजूदा कृषि संकट का समाधान नहीं हैं। हमारा कृषि संकट अर्थव्यवस्था और बाजार के कई दबावों का नतीजा है, जिसका हल आर्थिक और व्यापारिक समाधान से ही निकलेगा, किसी तकनीक से नहीं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-hindustan-opinion-column-june-28-2595769.html


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