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न्यूज क्लिपिंग्स् | कैसे थमे नक्सली कहर-- प्रमोद भार्गव

कैसे थमे नक्सली कहर-- प्रमोद भार्गव

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published Published on May 4, 2017   modified Modified on May 4, 2017
छत्तीसगढ़ में माओवादी नक्सलियों ने सीआरपीएफ के जवानों पर एक बार फिर हमला किया। इसमें छब्बीस जवान शहीद हो गए। इस बार नक्सलियों ने हमले का नया तरीका अपनाया। करीब तीन सौ की संख्या में आए नक्सली काली वर्दी पहने हुए थे। उन्होंने महिलाओं और बच्चों को ढाल बना कर गोलियां दागीं। इसी साल 11 मार्च को भी सुकमा में नक्सली हमला हुआ था, जिसमें सीआरपीएफ के बारह जवान हताहत हुए थे। ऐसे समय जबकि प्रदेश सरकार और केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल को यह लग रहा था कि अब लाल आतंक की कमर टूट चुकी है, नक्सलियों ने यह कहर बरपाया है। ये जवान चौहत्तरवीं बटालियन के थे। यह हमला बुरकापाल और चिंतागुफा के बीच हुआ। यहां सुरक्षा बलों की सुरक्षा में सड़क निर्माण कार्य चल रहा है। सुरक्षा बलों के अधिकारियों ने इस हमले के बाद कहा कि नक्सली मार्च से जून माह के बीच अक्सर बदले की कार्रवाई तेज कर देते हैं। क्योंकि इस दौरान घात लगा कर हमला करना आसान होता है। जब यह सूचना अधिकारियों के पास थी, तो उन्हें और सतर्कता बरतने की जरूरत क्यों नहीं महसूस हुई? दरअसल, ऐसे तर्क अधिकारी अपनी खामियों पर परदा डालने के लिए देते हैं। इस हमले से सच्चाई सामने आई है कि नक्सलियों का तंत्र और विकसित हुआ है, साथ ही उनके पास सूचनाएं हासिल करने का मुखबिर तंत्र भी है। हमला करके बच निकलने की रणनीति बनाने में भी वे सक्षम हैं। इसीलिए वे कामयाब हो जाते हैं।


बस्तर के इस जंगली क्षेत्र में नक्सली नेता हिडमा का बोलबाला है। वह सरकार और सुरक्षाबलों को लगातार चुनौती दे रहा है और इसके बरक्स राज्य तथा केंद्र सरकार के पास रणनीति की कमी है। यही वजह है कि नक्सली क्षेत्र में जब भी कोई विकास कार्य होता है तो नक्सली उसमें रोड़ा अटकाते हैं। सड़क निर्माण के पक्ष में नक्सली कतई नहीं रहते क्योंकि इससे पुलिस और सुरक्षाबलों की आवाजाही आसान हो जाएगी। नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्य और केंद्र सरकार दावा करती हैं कि विकास इस समस्या का निदान है। अगर छत्तीसगढ़ सरकार के विकास संबंधी विज्ञापनों में दिए जा रहे आकड़ों पर भरोसा करें तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर विकास के मानदंडों को छूती दिख रही है, लेकिन इस अनुपात में यह दावा बेमानी है कि समस्या पर अंकुश लग रहा है। सुकमा की खबरें इन आंकड़ों पर पानी फेरती दिख रही हैं। समस्या को केवल सुरक्षाबलों के भरोसे छोड़ कर चैन की नींद सो जाना आत्मघाती कदम है। इस नाते अच्छा है कि इस समस्या से निपटने की नीति की नए सिरे से समीक्षा की जाए।


फिलहाल हमलों के बाद मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री शहीद जवानों के परिजनों के साथ सहानुभूति जता कर और अतिरिक्त आर्थिक मदद करके समस्या की गहराई में जाने से अक्सर बच निकलते हंै। यही वजह है कि नक्सली समस्या अपने गढ़ में दिन-प्रतिदिन न केवल मजबूत हुई है, बल्कि समस्याग्रस्त राज्यों में कहीं भी उसके सिमट जाने के संकेत नहीं मिल रहे हैं। अब तो बड़ी संख्या में महिलाओं को नक्सली बनाए जाने के प्रमाण भी मिल रहे हैं। विषमता और शोषण से जुड़ी भूमंडलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्रिया ने देश में एक बड़े लाल गलियारे का निर्माण कर दिया है, जो पशुपति (नेपाल) से तिरुपति (आंध्रप्रदेश) तक जाता है। इस पूरे क्षेत्र में माओवादी वाम चरमपंथ पसरा हुआ है। इसने नेपाल, झारखंड, बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश के एक ऐसे बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, जो बेशकीमती जंगलों और खनिजों से भरा है। छत्तीसगढ़ के बैलाडीला में लौह अयस्क के उत्खनन से हुई यह शुरुआत ओडिशा की नियमगिरि पहाड़ियों में मौजूद बॉक्साइट के खनन तक पहुंच गई है। यहां आदिवासियों की जमीनें वेदांता समूह ने अवैध हथकंडे अपना कर जिस तरीके से छीनी थीं, उसे खुद सर्वोच्च न्यायालय ने गैरकानूनी माना है।


शोषण और बेदखली के ये उपाय लाल गलियारे को प्रशस्त करने वाले हैं। अगर सर्वोच्च न्यायालय भी इन आदिवासियों के साथ न्याय नहीं करता तो इनमें से कई उग्र चरमपंथ का रुख कर सकते थे। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को मिसाल मान कर केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे उपाय कर सकती हैं, जो चरमपंथ को आगे बढ़ने से रोकने वाले हों। लेकिन तात्कालिक हित साधने की राजनीति के चलते ऐसा नहीं हो रहा है। राज्य सरकारें केवल इतना चाहती हैं कि उनका राज्य नक्सली हमले से बचा रहे। छत्तीसगढ़ इस नजरिए से और ज्यादा दलगत हित साधने वाला राज्य है क्योंकि भाजपा के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीत कर आते हैं। यह ठीक है कि कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के कुर्तु विकासखंड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े हुए थे। नतीजतन, नक्सलियों की महेंद्र कर्मा से नाराजगी एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। लेकिन कांग्रेस के हरिप्रसाद समेत अन्य नेता इस समस्या का हल सैन्य शक्ति के बजाय बातचीत से खोजने की वकालत कर रहे थे। नक्सली हमले में मारे गए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और विद्याचरण शुक्ल इसी पक्ष के हिमायती थे।


सुनियोजित दरभा हत्याकांड के बाद जो जानकारियां सामने आई थीं, उनसे खुलासा हुआ था कि नक्सलियों के पास आधुनिक तकनीक से समृद्ध खतरनाक हथियार हैं। इनमें रॉकेट लांचर, इंसास, हैंडग्रेनेड, ऐके-56, एसएलआर और एके-47 जैसे घातक हथियार शामिल हैं। साथ ही आरडीएक्स जैसे विस्फोटक हैं। लैपटॉप, वॉकी-टॉकी, आईपॉड जैसे संचार के संसाधन हैं। साथ ही वे भलीभांति अंग्रेजी जानते हैं। तय है, ये हथियार न तो नक्सली बनाते हैं और न ही नक्सली क्षेत्रों में इनके कारखाने हैं। जाहिर है, ये सभी हथियार नगरीय क्षेत्रों से पहुंचाए जाते हैं। हालांकि खबरें तो यहां तक हैं कि पाकिस्तान और चीन माओवाद को बढ़ावा देने की दृष्टि से हथियार पहुंचाने की पूरी एक शृंखला बनाए हुए हैं। चीन ने नेपाल को माओवाद का गढ़ ऐसे ही सुनियोजित षड्यंत्र रच कर वहां के हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को ध्वस्त किया। नेपाल के पशुपति से तिरुपति तक इसी तर्ज के माओवाद को आगे बढ़ाया जा रहा है। हमारी खुफिया एजेंसियां नगरों से चलने वाले हथियारों की सप्लाई चेन का भी पर्दाफाश करने में कमोबेश नाकाम रही हैं।


अगर ये एजेंसियां इस चेन की नाकेबंदी करने में कामयाब हो जाती हैं तो एक हद तक नक्सली बनाम माओवाद पर लगाम लग सकती है।जब किसी भी किस्म का चरमपंथ राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना के लिए चुनौती बन जाए तो जरूरी हो जाता है कि उसे नेस्तनाबूद करने के लिए जो भी कारगर उपाय उचित हों, उनका उपयोग किया जाए। इस सिलसिले में खासकर केंद्र सरकार को सबक लेने की जरूरत इंदिरा गांधी और पीवी नरसिंह राव से है, जिन्होंने पंजाब और जम्मू-कश्मीर के उग्रवाद को खत्म करने के लिए सेना का सहयोग लिया, उसी तर्ज पर माओवाद से निपटने के लिए अब सेना की जरूरत अनुभव होने लगी है। क्योंकि माओवादियों के एक-एक हजार के सशस्त्र जत्थों से राज्य पुलिस और अर्ध सैनिक बल मुकाबला नहीं कर सकते। धोखे से किए जाने वाले हमलों के बरक्स एकाएक मोर्चा संभालना और भी मुश्किल है। माओवाद प्रभावित राज्य सरकारों को संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठ कर खुद सेना तैनाती की मांग केंद्र से करने की जरूरत है। देश में सशस्त्र दस हजार तांडवी माओवादियों से सेना ही निपट सकती है। अन्यथा हमारे जवान इसी तरह खून की होली खेलते हुए शहीद होते रहेंगे।


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