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न्यूज क्लिपिंग्स् | क्यों सरकारी योजनाओं के बावजूद झारखंड की आदिम जनजातियों को खाने की किल्लत से दो-चार होना पड़ता है- विवेक कुमार

क्यों सरकारी योजनाओं के बावजूद झारखंड की आदिम जनजातियों को खाने की किल्लत से दो-चार होना पड़ता है- विवेक कुमार

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published Published on Jan 25, 2019   modified Modified on Jan 25, 2019
झारखंड के लातेहार ज़िले के मनिका प्रखंड के सेवधरा गांव के अमरेश परहैया अपने परिवार के साथ में विभिन्न मूलभूत सुविधाओं से दूर अपना जीवन बिता रहे है. परिवार की आय का मुख्य स्रोत अकुशल मज़दूरी है. इनके पास खेती योग्य भूमि नही हैं.

अमरेश को मुश्किल से एक महीने में 8 से 10 दिन ही 150 रुपये/प्रतिदिन की मज़दूरी दर पर काम मिल पाता है. अनाज की कमी और आर्थिक तंगी के कारण महीने में चार से छह दिन परिवार भूख की स्थिति में रहता है. दाल व अन्य पौष्टिक आहार तो दूर की बात है.

बता दें कि परहैया समुदाय झारखंड की लगातार घटती आदिम जनजाति समुदायों (विशेष रूप से वंचित आदिवासी) में से एक है. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश अनुसार, सभी आदिम जनजाति परिवारों को अन्त्योदय अन्न योजना अंतर्गत सस्ते दर पर 35 किलो प्रति माह अनाज प्राप्त करने का अधिकार है (झारखंड में इन्हें अनाज नि:शुल्क मिलता है). एवं राज्य के सभी आदिम जनजाति परिवारों, जिन्हें सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना का लाभ नहीं मिल रहा है, राज्य सरकार की ओर से 600 रुपये प्रति माह पेंशन मिलनी तय है.

हालांकि अमरेश परहैया का परिवार इन दोनों अधिकारों से वंचित है. आधार न होने के कारण राशन कार्ड नहीं बना है एवं कई बार पेंशन के लिए आवेदन देने के बावजूद अभी तक उनका परिवार पेंशन से वंचित हैं.

द वायर हिन्दी पर प्रकाशित इस कथा को विस्तार से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें 


http://thewirehindi.com/69789/jharkhand-parhaiya-tribes-food-security-raghubar-das/


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