Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | खुदकुशी के सामाजिक सबक-- ज्योति सिडाना

खुदकुशी के सामाजिक सबक-- ज्योति सिडाना

Share this article Share this article
published Published on Mar 13, 2018   modified Modified on Mar 13, 2018
अभी हाल ही में शाहबाद (कुरुक्षेत्र) में एक व्यक्ति ने फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली और मरने से पहले उसने अपने घर की दीवारों और फेसबुक पर लिखा कि मेरी मौत के लिए मेरी पत्नी जिम्मेवार है। अपनी पत्नी के साथ हुई अनबन को इसका कारण बताया गया। हिसार में एक दंपति ने ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली। मरने से पहले महिला ने वीडियो बनाया और सोशल मीडिया पर अपलोड कर तीन लोगों पर आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप लगाया। महिला ने वीडियो में कहा कि ये लोग उनका उत्पीड़न करते हैं और उनके साथ मारपीट भी करते हैं। वीडियो अपलोड करने के बाद दंपति घर से स्कूटी पर निकले और रेलगाड़ी के आगे कूद कर दोनों ने जान दे दी। यह किस तरह का समाज बन रहा है? समाज किधर जा रहा है? यह गहरी चिंता का विषय है। मानो आत्महत्या एक खेल है, जब कोई समस्या हो तुरंत आत्महत्या कर लो! आज के दौर में मरना और मारना लोगों को आसान लगने लगा है शायद। समाज वैज्ञानिक दुर्खीम ने कहा था कि यदि किसी समाज में आत्महत्या की दर अधिक हो तो यह कहा जा सकता है कि उस समाज में सामाजिक संरचना को विघटित करने वाली विपथगामी शक्तियां तीव्रगति से कार्यरत हैं। उनका मानना था कि सामाजिक विघटन के परिणामस्वरूप या सामाजिक एकता की कमी के कारण आत्महत्या मूर्त रूप लेती है। संभवत: उपर्युक्त आत्महत्याओं को देख कर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान समाज में सामाजिक विघटन की स्थितियां उत्पन्न हो गई हैं।

 

दूसरी तरफ मनोवैज्ञानिक जीन बीचलर के अनुसार, आत्महत्या किसी समस्या का प्रत्युत्तर भी है और एक पद्धति भी, जिसके माध्यम से समस्या को हल करने की कोशिश की जाती है। क्या वास्तव में आत्महत्या कर लेने से समस्या हल हो जाती है? संभवत: नहीं, बल्कि जो जीवित रहते हैं उनके लिए समस्या और बढ़ जाती है। किसी समस्या से भागना पलायनवाद है, उसका हल नहीं। क्योंकि कोई भी समस्या दुनिया में इतनी बड़ी नहीं हो सकती कि उसका हल नहीं निकला जा सकता। इसलिए आत्महत्या किसी समस्या का हल नहीं है बल्कि ऐसे में जरूरत होती है कि परिवार और समाज में एकजुटता स्थापित की जाए और मिल कर तथा परस्पर विचार करके समस्या का समाधान निकाला जाए।

 


 
यह एक तथ्य है कि सामाजिक संबंधों के प्रति तटस्थ होते जाना व्यक्ति को सामूहिकता से पृथक करता चला जाता है और ऐसे में अनेक निर्णय व्यक्ति-केंद्रित हो जाते हैं। वहीं दूसरी ओर सामूहिकता इतनी प्रभावी हो जाती है कि व्यक्ति न चाहते हुए भी अनेक दबावों के कारण अपनी तार्किकता और चयन क्षमता से पृथक हो जाता है। दोनों ही स्थितियों में उत्पन्न हुआ विघटन आत्महत्या की दर की व्याख्या करने में एक निर्णायक भूमिका निभाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जब व्यक्ति के जीवन में सामाजिक दिशा का अभाव हो या उस पर समाज का अत्यधिक नियंत्रण हो, दोनों ही स्थितियों में उसमें आत्महत्या की प्रवृत्ति विकसित हो सकती है। इसलिए कहा जा सकता है कि प्रत्येक समाज में सामाजिक नियंत्रण, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्रत्येक स्तर पर सबकी सहभागिता किसी न किसी रूप में होनी चाहिए, तभी एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकता है। और तभी वे तनाव, दबाव, कुंठा और संकट का अपनी तार्किकता के आधार पर सामना करने की क्षमता विकसित कर सकते हैं।

 

 


 
यह कैसा अंतर्विरोध है कि एक तरफ व्यक्ति सफलता पाने का इच्छुक है और दूसरी तरफ तार्किकता को पृथक कर स्वयं को समाप्त करने की जल्दी करता है। परिवार, विवाह संबंध, समूह संबंध और आर्थिक संबंधों में अब वह सुरक्षा व सामूहिकता नहीं है जो पूर्व में हुआ करती थी। आज के डिजिटल युग में सार्वजनिक स्थान हो या निजी स्थान, सब इलेक्ट्रॉनिक उपकरण की तरह संचालित होने लगे हैं। संभवत: इसलिए आज का मनुष्य स्वयं को समाप्त करने में भी उतनी ही देर लगाता है जितनी किसी इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स का बटन आॅन-आॅफ करने में लगाता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि व्यक्ति को स्वतंत्रता और सृजनात्मकता को अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाना चाहिए ताकि वह इनके द्वारा अपनी आंतरिक और बाह्य चुनौतियों से सफलतापूर्वक पार पा सके, क्योंकि लोगों में विशेष रूप से युवाओं में संघर्ष करने का जज्बा कम हो गया है। आज के उपभोक्तावादी समाज में ‘अलगाव' का अहसास गहरा और व्यापक होता जा रहा है, पर आश्चर्य इस बात का है कि लोग स्वयं के अलगाव को समाप्त करने का कोई प्रयास ही नहीं करना चाहते।

 

 


 
इस संदर्भ में मीडिया की भूमिका को भी तलाशना चाहिए। मीडिया अनेक बार यथार्थ को गलत तरीके से प्रस्तुत करता है या अति-यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करता है और उसकी यह भूमिका समाज के एक हिस्से को पलायनवादी बना देती है। चूंकि मीडिया उसे यह सिखाता है कि विभिन्न सफलताएं कुछ ही लोग प्राप्त कर सकते हैं और शेष के लिए ये सफलताएं सिर्फ एक भ्रम हैं। अपने निजी जीवन में वह संस्कृति, मूल्यों, परंपराओं आदि से भयभीत रहता है क्योंकि सामाजिक व्यवस्थाओं ने उसमें भयभीत होने की आदत डाल दी है। जबकि जो व्यक्ति अपने जीवन में स्वतंत्र निर्णय लेगा, वह सार्वजनिक जीवन में संघर्षों का न केवल प्रभावी मुकाबला कर सकेगा बल्कि व्यवस्था को बदलने का साहस भी जुटा सकेगा।

 

 


 
यह एक तथ्य है कि दुनिया में बढ़ते मशीनीकरण ने अलगाव को प्रत्येक व्यक्ति के न केवल व्यक्तित्व का हिस्सा बनाया है बल्कि उसे एक सीमित दायरे में बंद कर दिया है जहां वह स्वाभाविकता से दूर होता जा रहा है और अपनी कुशलता, योग्यता और भावनाओं को प्रस्तुत करना भूल गया है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, सर्वाधिक खुशहाल 155 देशों की वैश्विक सूची में भारत 122वें पायदान पर है, जबकि पिछले साल भारत 118वें स्थान पर था और आतंकवाद से त्रस्त पाकिस्तान और गरीबी से जूझ रहा नेपाल इस सूचकांक में भारत से बेहतर स्थिति में हैं।

 

 


उपभोक्तावाद-जनित अलगाव के अहसास के कारण व्यक्ति स्वाभाविक रूप से जीना भूल गया है और तनाव में रहने लगा है जिससे जीवन असहज हो गया है। बढ़ती व्यक्तिवादिता और समाप्त होती सामूहिकता के कारण छोटी-छोटी समस्याएं भी विकराल रूप में नजर आती हैं। ये पक्ष हर जगह देखे जा सकते हैं जैसे परिवार, नातेदारी, विवाह संबंध, मित्रता, व्यावसायिक और पेशेवर संबंधों आदि में। परिणामस्वरूप हर स्तर पर निराशा और आक्रामकता उत्पन्न हो रही है, जो मरने-मारने की हद तक व्यक्ति को ले जा रही है।

 

 


 
परिवर्तन तो प्रकृति का शाश्वत नियम है और हर दौर में सामाजिक व्यवस्थाओं में बदलाव होते आए हैं। पर खुदकुशी की बढ़ती घटनाओं ने समाज को लेकर कई महत्त्वपूर्ण सवाल पैदा किए हैं। वर्तमान में ऐसा कौन-सा बदलाव हुआ जिसके कारण निकट संबंधों पर से भी लोगों का भरोसा समाप्त हो गया? चाहे पति-पत्नी हो, माता-पिता हों या फिर भाई-बहन, संदेह और अविश्वास का कांटा हर जगह दिखेगा। फि र बाकी नातेदारों की बाबत क्या कहें। ऐसी कौन-सी चीज है जो इतनी महत्त्वपूर्ण हो गई है कि आपसी रिश्ते गौण होते जा रहे हैं? मनुष्य इतना संवदेनहीन और भावनाशून्य कैसे हो सकता है, जबकि संवेदनशीलता और भावनात्मकता उसके नैसर्गिक गुण माने जाते रहे हैं। अगर हम अपने समाज में उभर रही आत्मघात की प्रवृत्तियों को रोकना चाहते हैं तो इन सवालों के जवाब हमें ढूंढ़ने ही होंगे।

 


https://www.jansatta.com/politics/opinion-about-social-lessons-of-suicide/598043/


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close