Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | गांधी और कॉपीराइट का सवाल-- रामचंद्र गुहा

गांधी और कॉपीराइट का सवाल-- रामचंद्र गुहा

Share this article Share this article
published Published on Oct 17, 2018   modified Modified on Oct 17, 2018
आर ई हॉकिंस ऐसे अंग्रेज थे, जिन्हें ज्यादा शोहरत तो नहीं मिली, लेकिन बतौर प्रकाशक उन्होंने अपनी जड़ें जमाईं और भारत में ही बस गए। दिल्ली के स्कूल में अध्यापन के लिए 1930 में भारत आए हॉकिंस असहयोग आंदोलन में स्कूल बंद हो जाने पर बंबई चले गए और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से जुड़ गए। 1937 में इसके महाप्रबंधक बने और अगले 30 साल तक इसे खासी सफलता से संचालित किया। उनके नाम जिम कार्बेट, सलीम अली और वेरियर एल्विन सरीखे तमाम नामी-गिरामी लोगों की पुस्तकें हैं।


हॉकिंस गांधीजी के प्रशंसक थे। बंबई आकर तो उन्होंने खादी ही अपना ली और कुछ ही दिन बीते कि गांधीजी के सचिव महादेव देसाई को स्कूली बच्चों के लिए माइ एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ (सत्य के प्रयोग) का संक्षिप्त संस्करण निकालने पर राजी कर लिया। अभिलेखागार में शोध के दौरान मुझे गांधीजी और हॉकिंस के कुछ दिलचस्प और अब तक अज्ञात पत्राचार देखने को मिले। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में गांधीजी जब पूना जेल गए, हॉकिंस बंबई में ही थे। विश्व युद्ध जारी था और ब्रिटिश प्रेस गांधी और कांग्रेस को लेकर दुष्प्रचार में लगा हुआ था। उन्हें हिटलर और उसकी सहयोगी ताकतों का पिट्ठू बताने का खेल चल रहा था। इसी समय हॉकिंस ने गांधीजी के ऐसे लेखों का संकलन प्रकाशित करने का फैसला लिया, जो उनकी सोच खुलकर सामने लाने में सहायक होते।
1909 में गांधीजी की पहली किताब हिंद स्वराज आई, तो उसके पहले पन्ने पर लिखा था- इसका कोई कॉपीराइट सुरक्षित नहीं है। तब तक गांधीजी कॉपीराइट में भरोसा नहीं करते थे। लेकिन जैसा कि कानूनविद् श्यामकृष्ण बालगणेश ने गांधी और कॉपीराइट की व्यावहारिकता (कैलिफोर्निया लॉ रिव्यू, 2013) शीर्षक लेख में जिक्र किया है, समय के साथ वह इसे लेकर थोड़ा सचेत हो गए थे। गांधीजी प्राय: गुजराती में लिखते, लेकिन अन्य भाषाओं में अनुवाद होते-होते अर्थ बदल जाने की आशंका उनकी चिंता में थी।


1920 के दशक के उत्तराद्र्ध में जब उनकी आत्मकथा आई, तो उनके अमेरिकी शिष्य जॉन हेन्स होम्स ने उन्हें इसके वल्र्ड राइट्स मैकमिलन को देने की सलाह दी, ताकि उसका व्यापक प्रसार हो सके। गांधीजी इस सोच के साथ सहमत हुए कि ‘कॉपीराइट से प्राप्त धन का इस्तेमाल चरखा के प्रचार-प्रसार और समाज के दबे-कुचले लोगों के हित में किया जाए, तो इसमें कोई नुकसान नहीं है।'


1920 के दशक के अंत तक गांधीजी के समस्त लेखन का कॉपीराइट नवजीवन ट्रस्ट के पास आ गया। 1943 में जब हॉकिंस गांधीजी के लेखों का संकलन प्रकाशित करने की सोच रहे थे, गांधीजी जेल में थे। उसी साल अगस्त में उन्होंने गांधीजी को चिट्ठी लिखकर बताया कि वह उनके लेखों का चयन आर के प्रभु से कराना चाहते हैं। वही आर के प्रभु, जो तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के दक्षिण कनारा के थे, 1930-31 के असहयोग आंदोलन में जेल गए और खासा लंबा वक्त पत्रकार के रूप में और गांधीजी का अध्ययन करते गुजारा था। यह चिट्ठी अधिकारियों तक नहीं भेजी गई, तो हॉकिंस ने सीधे नवजीवन ट्रस्ट को लिखा, लेकिन ट्रस्ट ने अनुमति देने से इनकार कर दिया। हॉकिंस ने गांधीजी का हवाला देते हुए बताया कि ‘गांधीजी ने स्वयं माना है कि उनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं में प्रकाशित उनका लेखन सार्वजनिक संपत्ति है, क्योंकि कॉपीराइट अपने आप में कोई स्वाभाविक चीज नहीं।' उन्होंने ट्रस्ट को आश्वस्त किया कि पुस्तक पश्चिम से लेकर उनके देशवासियों तक गांधीजी की सोच सही अर्थों में पहुंचाने का जरिया बनेगी और किताब के प्रकाशन के लिए यह सर्वथा उपयुक्त समय है। ट्रस्ट पर इन बातों का कोई असर नहीं पड़ा, बल्कि हॉकिंस को जवाब मिला कि उन्होंने गांधीजी की बात को अपनी सुविधा से और गलत तरीके से प्रस्तुत करने के चक्कर में वे शब्द छोड़ दिए हैं, जहां कॉपीराइट के बारे में गांधीजी कहते हैं कि ‘यह आधुनिक संस्था है और शायद किसी सीमा तक वांछनीय भी।'


मई 1944 में गांधीजी जेल से रिहा हुए। तब तक महादेव देसाई की मृत्यु हो चुकी थी और अब प्यारेलाल नय्यर गांधीजी के सचिव थे। हॉकिंस ने अपनी बात प्यारेलाल को लिखी और नवजीवन के साथ हुआ पत्राचार भी साथ भेजा। उन्होंने लिखा कि ‘अगर महात्मा गांधी पुस्तक प्रकाशन के लिए अपने लेखन और अन्य चीजों पर कॉपीराइट का दावा करते हैं, तो हम निश्चित तौर पर इसका प्रकाशन नहीं करेंगे। लेकिन यदि वह कॉपीराइट की बात नहीं करते और जैसा कि हमारा भरोसा भी है, वह हमें अनुमति दे देंगे, तो हम आश्वस्त हैं कि हम अच्छा संकलन दे पाएंगे और यह किताब को सामने लाने का एकदम उपयुक्त समय होगा। खासतौर से अमेरिका और इंग्लैंड के लिए, जहां गांधीजी को लेकर कई पूर्वाग्रही और पक्षपातपूर्ण बातें प्रचारित हैं।'


जुलाई 1944 में गांधीजी ने हॉकिंस को लिखा कि ऑक्सफोर्ड यह संकलन छाप सकता है, बशर्ते इसमें कॉपीराइट के तौर पर नवजीवन के उल्लेख के साथ सौ प्रतियां नि:शुल्क देने और उसे अपने अंग्रेजी के साथ ही सभी भारतीय भाषाओं के संस्करण निकालने का अधिकार रहे।' हॉकिंस नवजीवन द्वारा अपने अलग अंगे्रजी संस्करण वाली शर्त छोड़ बाकी सब पर सहमत हो गए, क्योंकि इस शर्त से भारत में उनके अंग्रेजी संस्करण की सफलता संदिग्ध हो रही थी। गांधीजी पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वह भारत में अंग्रेजी संस्करण न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध कराने के पक्ष में थे। सितंबर 1944 में गांधीजी के बंबई प्रवास के दौरान प्रभु और हॉकिंस उनसे मिले, जिसके बाद बहुत कुछ साफ हुआ। अंतत: मार्च 1945 में हॉकिंस की मेहनत रंग लाई। द माइंड ऑफ महात्मा गांधी शीर्षक से किताब आ चुकी थी, जिसका संपादन आर के प्रभु और यू आर राव ने संयुक्त रूप से किया था।


निधन के 60 साल बाद गांधीजी का लेखन कॉपीराइट के दायरे से मुक्त हो गया। यानी 30 जनवरी, 2008 के बाद कोई भी उनका कुछ भी छापने के लिए आजाद था। जाहिर है, इसके बाद बहुत कुछ सामने आया, जिसमें कहीं-कहीं बहुत गुणात्मक अंतर है। अब समय है कि कोई सुरुचि संपन्न और समझदार व्यक्ति द माइंड ऑफ महात्मा गांधी को फिर से छापे। यह दो स्वदेशी पत्रकारों और उस भारतप्रेमी अंग्रेज के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी, जिसने उनका काम सामने लाने का महत्वपूर्ण काम किया। महात्मा गांधी को जानने-समझने के लिए यह किताब अपने आप में पर्याप्त है। इसे अब इसके नए पाठकों के सामने लाया जाना चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-opinion-hindustan-column-on-13-october-2219444.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close