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न्यूज क्लिपिंग्स् | गुड गवर्नेस की उम्मीद या दिखावा - अश्विनी कुमार

गुड गवर्नेस की उम्मीद या दिखावा - अश्विनी कुमार

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published Published on Dec 16, 2010   modified Modified on Dec 16, 2010

मध्य प्रदेश के पब्लिक सर्विस गारंटी एक्ट 2010 से प्रेरणा लेकर बिहार पब्लिक सर्विस गारंटी एक्ट लागू करने के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रस्ताव से बिहार में गवर्नेस के नये युग की शुरुआत होने की उम्मीद है.

इस कानून के संबंध में नीतीश ने विधानसभा में कहा कि राज्य सरकार और उसकी संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली सुविधा पाना लोगों का अधिकार है और इस काम में लगे अधिकारी अगर ऐसा नहीं करते हैं तो यह इस कानून का उल्लंघन माना जायेगा. इससे पहले बिहार सरकार बिहार स्पेशल कोर्ट एक्ट को पारित कर चुकी है.


इसके तहत राज्य सरकार भ्रष्ट अधिकारियों की संपत्ति जब्त कर सकती है. मुख्यमंत्री का मकसद अक्षम, भ्रष्ट और सामंती ब्यूरोक्रेसी में पारदर्शिता, जबावदेही और जिम्मेदारी लाने का है.नीतीश सरकार के इन कदमों के कट्टर विरोधी और इन्हें संदेह से देखने वाले भी इस बात से सहमत होंगे कि काफ़ी समय बाद, संपूर्ण क्रांति के दौर के बाद, बिहार में राजनीतिक विेषकों के शब्दों में सामान्य राजनीति की वापसी हुई है.

राजनीति में गुड गवर्नेस राजनीतिक सफ़लता और विफ़लता का पैमाना बन जाता है. दूसरे शब्दों में गुड गवर्नेस को राजनीति के केंद्र में लाने का
Þोय नीतीश कुमार को दिया ही जाना चाहिए, जिसे दार्शनिक चार्ल्स टेलर बिहार में आधुनिक सामाजिक सोच की संज्ञा देते हैं. इस सामाजिक सोच का उभार हालिया चुनावी नतीजे से साफ़ देखा गया, जिसमें लोगों ने गुड गवर्नेस और विकास को अपार समर्थन दिया. इसलिए नीतीश कुमार की दुबारा सत्ता में वापसी कोई सामान्य चुनावी जीत नहीं है.

यह बिहार की स्वयं की बुराइयों जातिवाद, अपराध और भ्रष्टाचार से संघर्ष की याद दिलाता है. ऐसा कहा जाता है कि नीतीश कुमार की विकासवादी दृष्टि में जहां समेकित सामाजिक न्याय है वहीं अति आधुनिकता के साथ राज्य को विकसित राज्य बनाने का सपना भी. और इस काम को पूरा करने के लिए सरकार को फ़िर से पुनर्जीवित करने की जरूरत है, तभी वे अपने सुशासन और विकास के चुनावी वादे को पूरा कर सकते हैं.

ब्यूरोक्रेसी में जबावदेही
, सक्रियता, पारदर्शिता लाने के लिए मध्य प्रदेश पब्लिक सर्विस गारंटी एक्ट 2010 को देखना आवश्यक है, ताकि नीति निर्माण, प्रक्रिया को समझा जा सके. मध्य प्रदेश का लोक सेवा अधिनियम भारत में पहला ऐसा प्रयोग है. इससे पहले कोई दूसरा राज्य ऐसा कानून नहीं बना पाया है, जिससे भ्रष्टाचार को खत्म किया जा सके और आम लोगों को सरकारी सेवा का लाभ मिल सके. इस कानून में लोगों को तय समयसीमा के अंदर सेवा देना अनिवार्य है.

 अगर इस काम के लिए जिम्मेवार अधिकारी ऐसा करने में असफ़ल रहता है तो उसे जुर्माना देना होगा. इस सेवा के तहत जन्म प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र, आवास प्रमाण पत्र , पानी का कनेक्शन, मृत्यु प्रमाण पत्र जैसी सेवा को शामिल किया गया है. इस कानून में अपीलीय आवेदन भी शामिल है और देरी के मामले में जुर्माना का भी प्रावधान है.

तय समयसीमा के अंदर सेवा देने में देरी के मामले में सबंधित अधिकारी को कम से कम
250 रुपये रोजाना और अधिकतम 5000 रुपये का जुर्माना देना होगा. मध्य प्रदेश में अपीलीय अधिकारी पर भी जुर्माना लगाने का प्रावधान है, अगर वह तय सीमा में सेवा प्रदान करने में असफ़ल रहता है.

 मध्य प्रदेश के कानून को देखकर ऐसा लगता है कि बिहार भी उसी की राह पर चलते हुए लोगों के अधिकार को कानूनी मान्यता देने और प्रशासन में लोगों की भागीदारी बढ़ाने का प्रयास कर रहा है. हालांकि मध्य प्रदेश का यह कानून नया है, इसलिए इसमें कई खामियां भी हैं. इस कानून में भ्रष्टाचार के दो मूल कारणों मांग और आपूर्ति के बारे में स्पष्ट उल्लेख नहीं है. बिहार धीरे-धीरे निजी क्षेत्र के लिए पसंदीदा जगह बन रहा है, ऐसे में सरकारी अधिकारी और निजी क्षेत्र पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है.

चूंकि बिहार के अधिकारी राजनीतिक पक्षधरता के साथ आगे बढ़ने के लिए बदनाम है
, ऐसे में सेवा कानून में ब्यूरोक्रेसी को निष्पक्ष और पेशेवर बनाने का भी प्रावधान होना चाहिए. न्यू पब्लिक मैनेजमेंट के कुछ प्रावधानों को लागू कर इस दिशा में कदम बढ़ाया जा सकता है.2007 में योजना आयोग की टास्क फ़ोर्स की रिपोर्ट बिहार एक्सपोजर टू इनोवेटिव गवर्नेस प्रैक्टिस ने न्यू माइंडसेट प्रोग्राम, टोटल क्वालिटी मैनेजमेंट, सरकार को संस्थागत रूप देने और कुछ सरकारी सेवाओं को आउटसोर्स करने की सिफ़ारिश की थी.

साथ ही आयोग ने बिहार सरकार को लोगों से जुड़े मामले जैसे स्कूल
, अस्पताल, खेल, सफ़ाई जैसी सुविधाओं को मध्य प्रदेश की रोगी कल्याण समिति की तर्ज पर धीरे-धीरे एक शक्ति संपन्न कौंसिल को सौंपने की सलाह दी थी, जिसमें वहां के स्थानीय लोगों की भागीदारी हो. टास्क फ़ोर्स ने बिहार सरकार को लोगों से जुड़ी सेवाओं जैसे पानी, सफ़ाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और कल्याण से जुड़ी योजनाओं के असर का भी नियमित रूप से आकलन करने को कहा था, ताकि इनकी निगरानी की प्रक्रिया तय की जा सके.

साथ ही टास्क फ़ोर्स ने सिविल सोसाइटी की बातों को नीति निर्माण में तरजीह देने और उनसे कार्यक्रमों के बारे में जानकारी लेने की सिफ़ारिश की थी. इसी संदर्भ में बिहार सरकार की बिहार प्रशासनिक सुधार मिशन की पहल पब्लिक सर्विस एक्ट की सफ़लता के लिए अति आवश्यक है.

2008 में बिहार सरकार ने ब्रिटेन के डिपार्टमेंट फ़ॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट के सहयोग से पंचवर्षीय प्रशासनिक सुधार मिशन की शुरुआत की थी. इसका मकसद प्रशासन में पारदर्शिता, ई-गवर्नेंस, सरकारी सेवाओं को बेहतर करना और सरकार के काम में जबादेही लाना था. शुरुआती दौर में इसके लिए जबरदस्त माहौल बनाया गया, लेकिन कमियों को रेखांकित करने के अलावा जमीनी स्तर पर कुछ खास हासिल नहीं हो पाया है.

बोधगया और बाराचट्टी में इस साल मनरेगा से संबंधित दौरे में मुङो इसका एहसास हुआ. सेंट्रल इंप्लायमेंट गारंटी कौंसिल के सदस्य को जिलाधिकारी के सामने ब्लॉक ओफ़स में गैरजरूरी तर्क के आधार पर मस्टर रोल को जांचने की इजाजत नहीं दी गयी. मुङो नहीं मालूम है कि मेरे दौरे के बाद इस दिशा में सही कदम उठाये गये हैं. प्रशासनिक व्यवस्था अब तक यह नहीं जान पायी है कि मनरेगा के सफ़ल क्रियान्वयन के लिए बड़े कदम उठाने की जरूरत है.

मेरा मानना है कि पब्लिक सर्विस गारंटी एक्ट के सामने भी ऐसी ही स्थिति उत्पन्न होगी.नये कानून में आवेदन देने के बाद तारीख लिखी रसीद देने का प्रावधान होना चाहिए. दूसरा सिटीजन चार्टर के अभाव में स्वतंत्र सोशल ऑडिट डायरेक्टोरेट और एमआइएस सिस्टम होना चाहिए
, नहीं तो यह कानून भी प्रशासनिक कमी का शिकार हो जायेगा. बिहार विकास की राह पर अग्रसर है, जिसमें निजी और सरकारी क्षेत्र की भूमिका महत्वपूर्ण होगी.

ऐसे में नीतीश कुमार को प्रशासनिक सुधार
, भ्रष्टाचार निरोधी कानून को मजबूत करना और सोशट ओडट की प्रक्रिया को मजबूत करना होगा, ताकि बिहार पिछड़ेपन को दूर करने की बजाए क्रोनी कैपटलिज्म का सहायक न बन जाए, जैसा कि राडिया टेप और टू जी स्पेक्ट्रम विवाद से पता चलता है. अन्य की तरह मैं भी बदलाव की उम्मीद से खुश हूं, लेकिन इतिहास याद दिलाता है कि क्रांति कभी-कभी नायकों को समाप्त कर देती है.

(लेखक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर हैं)

http://www.prabhatkhabar.com/news/62992.aspx


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