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न्यूज क्लिपिंग्स् | ग्राम सभाएं दिलायेंगी असली आजादी

ग्राम सभाएं दिलायेंगी असली आजादी

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published Published on Aug 18, 2013   modified Modified on Aug 18, 2013

कहते हैं लोक सभा न विधान सभा, सबसे ऊंची ग्राम सभा. इस बात को ओड़िशा के नियमगिरि पहाड़ पर खनन रोकने से संबंधित ग्राम सभा के फैसलों ने और पुष्ट किया है. वेदांता जैसी बड़ी वैश्विक कंपनी को ग्राम सभा के फैसलों के आगे झुकना पड़ रहा है. मगर अपने राज्य झारखंड में गांव के लोगों ने अब तक ग्राम सभा की ताकत को नहीं पहचाना है. पंचायती राज के हक की बात तो जोर-शोर से हो रही है, मगर कहीं से यह सुगबुगाहट नहीं है कि ग्राम सभाएं नियमित तौर पर हों और पंचायत में होने वाले हर काम और वहां कार्यरत हर प्रतिनिधि व कर्मचारी ग्राम सभा के प्रति उत्तरदायी हों. इस आलेख में हमने इन्हीं मसलों पर बात करने कोशिश की है.

पुष्यमित्र
सोमवार, 5 अगस्त को रांची के ओरमांझी प्रखंड के बारीडीह पंचायत के झिरी आनंदी गांव में कई महंगी गाड़ियों पर सवार कुछ लोग पहुंचे. वे लोग इस गांव की 20 एकड़ जमीन का अधिग्रहण करना चाह रहे थे. इस जमीन पर भारत पेट्रोलियम का बॉटलिंग प्लांट स्थापित किया जाना है. आगंतुकों में भारत पेट्रोलियम के अधिकारी, ओरमांझी प्रखंड के कुछ पदाधिकारी और कुछ अमीन थे. ग्रामीणों की सहमति के बाद जमीन की माप-जोख चल रही थी. वहीं गांव के प्रधान जो उस वक्त धान की रोपनी करा रहे होंगे, घुटने तक कीचड़ में सने गमछे में ही आ गये थे. वहां मौजूद तमाम अधिकारी उन्हें इस तरह घेरे थे जैसे वे प्रधानमंत्री हों और प्रधान पूरे आत्मविश्वास से उन्हें बता रहे थे कि हालांकि गांव के लोग कह रहे हैं कि वे बिना नौकरी जमीन नहीं देंगे फिर भी हमको लगता है कि एक बार ग्राम सभा बुलाया जाना जरूरी है. ग्राम सभा में गांव के सारे लोग आ जायेंगे, आप लोग भी आ जाइये फिर वहीं बैठ कर तय कर लेंगे कि जमीन देना है, नहीं देना है और देना है तो किस कंडीशन पर देना है. भारत पेट्रोलियम से लेकर प्रखंड तक के अधिकारी तक उनकी बातों में हां में हां मिला रहे थे.

महज कुछ साल पहले तक झारखंड क्या पूरे देश में ऐसे हालात नहीं थे. किसी कंपनी को चाहे वह सरकारी हो या निजी जमीन अधिग्रहित करने के लिए अधिक सोचना नहीं पड़ता था. एक बार सरकार से अनुमति मिल गयी फिर गांव की जनता को पुलिस के बल पर जमीन से हटा दिया जाता था. मगर पंचायती राज व्यवस्था और पेसा कानून ने गांव के लोगों को एक बड़ी ताकत दी है. और यह ताकत उन्हें ग्राम सभाओं के जरिये मिली है. ओड़िशा के नियमगिरि का उदाहरण अपने-आप में प्रासंगिक है. एक बड़ी कॉरपोरेट कंपनी वेदांता अल्युमिनी वहां खनन करना चाह रही है. मगर नियमगिरि के आसपास के ग्रामीण जो विलुप्तप्राय आदिवासी समुदाय से आते हैं, नहीं चाहते कि उनके लिए पूज्य नियमगिरि पहाड़ को तोड़ा जाये. वे लगातार इस बात का विरोध करते आये थे. मगर ओड़िशा की सरकार इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं थी. हार कर आदिवासियों ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली और सुप्रीम कोर्ट ने खनन की इजाजत ग्राम सभाओं के जरिये लेने का सुझाव दिया. सरकार ने इसके लिए 12 पल्ली(ग्राम) सभाओं का चयन किया. 12 में से अब तक दस पल्ली सभाओं ने वेदांता के प्रस्ताव को सम्वेत स्वर में खारिज कर दिया है. यह देश भर के गांव के लोगों के लिए एक बड़ी जीत है. अब जब भी सरकार या निजी कंपनियां गांव के लोगों के हक को हड़पने की कोशिश करेगी तो नियमगिरि को हमेशा नजीर की तरह पेश किया जायेगा.

झारखंड में ग्राम सभाओं की स्थिति
यह तो किसी खास अवसर की बात है, मगर आम तौर पर देखा जाये तो झारखंड में ग्राम सभाएं आज भी एक औपचारिकता की तरह हैं. गांवों में ग्रामसभाएं तभी होती हैं जब सरकार को किसी योजना के लिए स्वीकृति लेनी हो. हर बैठक का एजेंडा जिला प्रशासन की ओर से भेजा जाता है और ग्राम सभा में चर्चा भी उसी मसले पर होती है. रांची और लातेहार जैसे कुछ जिलों में ग्राम सभा के लिए हर महीने की एक खास तारीख तय कर दी गयी है.

ग्रामसभा को मिले खनिज में रॉयल्टी
नियमगिरि में सुप्रीम कोर्ट ने ग्रामसभा करवाने का फैसला 2006 के वनाधिकार कानून को ध्यान में रखते हुए दिया है.  वनाधिकार कानून से गांव के लोगों को वन पर सामुदायिक अधिकार मिला है. वेदांता कंपनी को बॉक्साइट खनन की अनुमति देने से पूर्व अदालत ने एडिशनल जज की देखरेख में ग्रामसभा कर लोगों को फैसला लेने का अधिकार दिया. नियमगिरि में डोंगरिया कंध, झरनिया कंध नामक जनजाति रहती हैं. वे झूम खेती करते हैं और नदी-नाला व झरना उनके जीवन का आधार है. नियम राजा यानी नियम पहाड़ को वे भगवान मानते हैं. वनाधिकार कानून आध्यात्मिक व धार्मिक अधिकार देने की भी बात करता है. ऐसे में अगर किसी समुदाय या गांव के लोगों की आस्था किसी चीज में है, तो उसे नष्ट नहीं किया जा सकता. इस तरह का कोई कदम उठाने से पहले ग्रामसभा का फैसला व उसका नजरिया जानना सबसे अहम है. वह क्षेत्र पेसा कानून के दायरे में आता है. उसको लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गयी थी. ग्रामसभा का अपने गांव के संसाधनों पर अधिकार होना चाहिए. खनिजों का अधिकार उन्हें ही मिलना चाहिए. उन्हें उसके राजस्व में हिस्सा मिलना चाहिए. इसके लिए जगह-जगह संघर्ष चल रहा है. नियमगिरि की तरह ग्रामसभा की ताकत का अभी झारखंड में अहसास नहीं कराया गया है, लेकिन इसको लेकर जगह-जगह आंदोलन चल रहे हैं.

रांची में हर महीने की 26 तारीख को और लातेहार में 20 तारीख को ग्राम सभा अनिवार्य रूप से होना तय किया गया है. मगर इन ग्राम सभाओं के लिए एजेंडा हर बार जिला प्रशासन सभी पंचायतों को भेज देता है.

रांची के ओरमांझी प्रखंड के दरदाग गांव के प्रधान प्रेमनाथ मुंडा भी इस बात की तस्दीक करते हैं, वे कहते हैं कि जिला प्रशासन की चिट्ठी के आधार पर ही वे ग्राम सभा की तैयारी करते हैं. दो-तीन दिन पहले से ढोल बजाकर सूचना जारी करते हैं और उसी मसले पर ग्राम सभा में चर्चा भी करते हैं. जब उनसे यह पूछा गया कि क्या किसी ग्राम सभा में आप लोगों ने भी एजेंडा तय किया है तो वे कहते हैं, हमलोग कैसे एजेंडा तय कर सकते हैं. एजेंडा तो डीसी आफिस से ही तय होता है. उन्हें यह पता नहीं कि यह बात ग्राम सभा की मूल भावना के ही विपरीत है. ग्राम सभा का एजेंडा गांव के लोगों को ही तय करना है. ग्राम सभाएं योजनाओं के अनुमोदन के लिए ही नहीं बल्कि गांव की समस्याओं पर विचार करने के लिए भी बुलायी जा सकती है. प्रेमनाथ मुंडा जैसे कई प्रधान हैं जो इस बात को अब तक नहीं समझ पाये हैं. मगर कई प्रधान व गांव के दूसरे लोग इस बात को समझते हैं. मगर व्यवस्था की कमियों के कारण वे इस विचार को बहुत व्यावहारिक नहीं मानते.

धूल फांकते ग्राम सभा के प्रस्ताव
रांची में एक कार्यशाला के दौरान गांव के कुछ लोगों ने ग्राम सभा के सवाल पर ऐसे ही सवाल खड़े कर दिये. उनका कहना था कि हमने कई दफा गांव के विकास के लिए कुछ प्रस्ताव पास कर प्रखंड कार्यालय को भेजा था, मगर वे प्रस्ताव पिछले डेढ़ साल से वहीं धूल फांक रहे हैं. ऐसे में धीरे-धीरे लोगों की रुचि ग्राम सभा से घटने लगी. अब कभी बीपीएल या इंदिरा आवास योजना के मसले पर अगर ग्राम सभा होती है तो उसमें आम तौर पर वही लोग आते हैं जिन्हें उम्मीद होती है कि उन्हें इस योजना का लाभ मिल सकता है. लोगों ने यह सवाल भी उठाया कि कई दफा गांव के लोगों को किसी और चीज की जरूरत होती है और एजेंडा तय होकर यह चला आता है कि आप फलां चीज पर ग्राम सभा करें. जो गांव की प्राथमिक जरूरत नहीं होती.

टाइड-अनटाइड फंड
इस सवाल का जवाब देते हुए पंचायती राज के  विशेषज्ञ और राज्य ग्रामीण विकास संस्थान, झारखंड के फैकल्टी मेंम्बर अजीत कुमार सिंह कहते हैं कि ऐसा इस वजह से होता है. क्योंकि पंचायतों के लिए दो तरह के फंड की व्यवस्था है. एक टाइड यानी किसी योजना से बंधे फंड और दूसरे अनटाइड यानी ऐसे फंड जो किसी योजना से संबंधित नहीं होते हैं. उन्हें आप अपनी इच्छानुसार खर्च कर सकते हैं. इसलिए लोग गांव की विशेष समस्याओं के लिए अनटाइड फंड का इस्तेमाल कर सकते हैं.

राजस्व की वसूली नहीं
अजीत जी आगे बताते हैं कि ग्राम सभा अगर अपनी योजनाओं को लागू करना चाहती है तो उसे अपने क्षेत्र में राजस्व की वसूली कर अपने संसाधनों को विकसित करना चाहिये. हाट से लेकर जलकर तक और लघु खनिज उत्पादों पर कर लगा कर वह अपना फंड बढ़ा सकते हैं और फिर उस फंड से अपने गांव के विकास की योजना तैयार कर सकते हैं.

सालाना योजना बनाये पंचायत
सामाजिक कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट में भोजन के अधिकार के लिए बनी समिति के सलाहकार बलराम ने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि इस समस्या का सबसे बेहतर समाधान यह होगा कि पंचायतें या ग्राम सभा एक साथ पूरे साल के लिए योजना बनायें. इस योजना में तय कर लें कि साल भर के दौरान आपके गांव को किस-किस बात की जरूरत होगी.


अगर आप ऐसा करते हैं तो फिर आप पायेंगे कि इनमें से अधिकांश योजनाएं किसी न किसी विभाग की योजना से संबंधित हैं. फिर आप उस योजना का लाभ उठा सकते हैं. कुछ ऐसी योजनाएं भी होंगी जो किसी विभाग से संबंधित नहीं होंगी. उन योजनाओं के लिए बीआरजीएफ तथा दूसरी योजनाओं का पैसा इस्तेमाल कर सकते हैं.

स्थानीय समितियों का नहीं होना
पंचायती राज के विशेषज्ञ अजीत कुमार सिंह कहते हैं ग्राम सभाओं के सक्रिय नहीं होने के पीछे एक बड़ी वजह गांवों में स्थायी समितियों का गठन नहीं होना हैं. उनके मुताबिक हर ग्राम सभा की मदद के लिए सात स्थायी समितियों का गठन जरूरी है. इन्हीं स्थायी समितियों की मदद से सारी योजनाए और ग्राम सभा का एजेंडा तय होना है. गांव के विकास के लिए बनी किसी योजना को लागू कराने का जिम्मा भी इन्हीं स्थायी समितियों पर होगा. मगर वजह जो भी हो आज तक शायद ही किसी गांव में स्थायी समितियों का गठन हुआ है. इस तरह से देखा जाये तो गांव के लोग और पंचायत के प्रतिनिधि भी ग्राम सभा को सुदृढ़ बनाने के लिए उतने इच्छुक नजर नहीं आते.

विधान सभा जैसा प्रश्न काल
कई विशेषज्ञ ग्राम सभा को सफल बनाने के लिए इसमें संसद और विधान सभा जैसे प्रश्न काल की व्यवस्था करने की सलाह देते हैं. वे कहते हैं कि ग्राम सभा में आंगनबाड़ी सेविका, स्कूल के शिक्षक, एएनएम, मनरेगा के रोजगार सेवक समेत पंचायत के लिए कार्यरत सभी कर्मियों की उपस्थिति अनिवार्य करनी चाहिये. साथ ही ग्राम सभा के दौरान गांव के लोगों को यह छूट होनी चाहिये कि वे इन कर्मियों से उनके काम के संबंध में पूछताछ कर सकें. इससे स्वभाविक रूप ग्राम सभा में लोगों की रुचि जागृत हो जायेगी.

ग्रामसभा को करना होगा मजबूत
झारखंड में ग्रामसभा की स्थिति बहुत ज्यादा नहीं बदल सकी है. हां, कुछ जगहों पर ग्रामसभा अच्छा कार्य कर रही हैं. मेरा मानना है कि ग्रामसभाओं को सशक्त कर व्यवस्था को काफी हद तक सुधारा जा सकता है और भ्रष्टाचार को कम करते हुए खत्म किया जा सकता है. मनरेगा व सरकार की दूसरी महत्वकांक्षी योजनाओं को ग्रामसभा से मंजूरी के साथ ही उसकी नियमित मॉनिटरिंग भी ग्रामसभा की टीम को करनी चाहिए. इसके लिए ग्रामस्तर पर टीम गठित की जानी चाहिए. इसमें बुद्धिजीवियों व जागरूक लोगों को भागीदार बनाया जाना चाहिए. गांव के लोगों को यह समझना होगा कि गांव में अगर कोई चीज बन रही है, तैयार हो रही है, तो इसका लाभ उन्हें ही मिलेगा. इसलिए उसकी निगरानी व व्यवस्था बनाये रखने की उन्हें जिम्मेवारी लेनी चाहिए. ग्रामसभा में गांव के मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए. अभी बड़ी परेशानी यह है कि वैसी योजनाएं जो ग्रामसभा से पारित होने चाहिए, उसकी कागजी ग्रामसभा में पारित कर दी जाती है. गांव वालों को इसे समझना होगा कि यह उनके लिए ही नुकसानदेह है और यही ग्रामसभा की सबसे बड़ी समस्या भी है.


http://www.prabhatkhabar.com/news/33438-story.html


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