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न्यूज क्लिपिंग्स् | चलो, चलें गांव की ओर?-- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

चलो, चलें गांव की ओर?-- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

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published Published on Sep 8, 2017   modified Modified on Sep 8, 2017
सत्तर के आखिरी दशक में मेरी मुलाकात अस्सी साल के बुजुर्ग शिक्षाविद श्रीमान जीवन नाथ दर से हुई थी. मैं जिस विद्यालय की आठवीं-नवीं कक्षा में पढ़ता था, ये कभी वहीं प्राचार्य हुआ करते थे. 

कहते हैं कि जब बिहार सरकार ने भारत सरकार की सलाह पर इस प्रयोगात्मक विद्यालय खोलने का निर्णय लिया, तो पंडित नेहरू ने उनसे यहां आने का आग्रह किया था. शांतिनिकेतन के तर्ज पर बिना सीमा रेखा के गांव के बीच इस विद्यालय का निर्माण किया गया था. अवकाश प्राप्ति के वर्षों बाद इनके विद्यालय में आने से उत्साह था. हम उनके इस प्रयोग के विजन के बारे में जानने को इच्छुक थे, लेकिन हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्होंने नारा दिया ‘चलो, चलें गांव की ओर'. बिल्कुल आधुनिक व्यक्ति, दुनियाभर की जानकारी रखनेवाले शिक्षक, अपने बुढ़ापे में भारी उत्साह के साथ छात्रों को लेकर आदिवासी गांवों की ओर चल पड़े. 

उस समय हम इतना ही समझ पाये कि शायद इस उम्र में उन्हें समाज सेवा का धुन सवार हो गया है, लेकिन दूसरे ही पल उनके इस वाक्य ने हमें और आश्चर्य में डाल दिया कि ‘आसमान की तरह ज्ञान की भी कोई सीमा नहीं है'. अब सवाल था कि इन दोनों वाक्यों में क्या संबंध था? बहुत प्रयास कर भी कुछ समझ नहीं आया कि गांव जाकर ज्ञान कैसे हो सकता है? 

वर्षों बाद जब भारत की ज्ञान परंपराओं पर शोध शुरू किया, तो पता चला कि इनके बीच एक गहरा रिश्ता है, जिसकी ओर उनका इशारा था. फिर यह भी समझ में आने लगा कि गांधी क्यों बार-बार गांव की बात करते थे? 

हजारों वर्ष तक भारत के गांव ज्ञान केंद्र के रूप में रहे थे. ऐसा नहीं था कि यहां शहर नहीं थे, हर साम्राज्य में बड़े-बड़े नगर थे, लेकिन नगर व्यापार के केंद्र थे और गांव ज्ञान के. मगध में पाटलिपुत्र व्यापार और शक्ति का केंद्र था, लेकिन मिथिला के गांव ज्ञान के केंद्र थे. ऐसा ही कुछ दक्षिण भारत में भी था. ग्रामीण सभ्यता में शहर एवं शहरी सभ्यता में गांव के होने में बहुत अंतर है. 

ज्ञान और गांव का यह रिश्ता गांधी के अलावा रबींद्र नाथ ठाकुर को भी समझ में आता था. इसलिए उन्होंने शांति निकेतन को न केवल गांवों के बीच बनाया, बल्कि विश्वविद्यालय की कोई चाहरदिवारी नहीं बनायी. ग्रामीणों को भी उनके प्रबंध समिति का हिस्सा बनाया. यहां तक कि आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के भाषण में अपने दर्शन का स्रोत बाउल गायकों को बताया. 

इस ग्रामीण संस्कृति की खासियत ज्ञान सृजन करने की क्षमता थी. इस ज्ञान के साथ जुड़ा खास सामाजिक मूल्य था. इस सामाजिक मूल्य का अंतर ही संस्कृतियों का अंतर है. एक संस्कृति में ज्ञान का मूल उद्देश्य लोक कल्याण है, दूसरे में शक्ति और धन संचय. एक में ज्ञान सामूहिक है और दूसरे में व्यक्तिगत. एक में ज्ञान के उपयोग में ईमानदारी मूल्य है और दूसरे में नीति. इसलिए गांधी ने हिंद स्वराज में डॉक्टरों और वकीलों की कटु आलोचना की है. 

इस संदर्भ में एक उदाहरण देखें. बिहार के मधुबनी जिले में एक गांव है सरिसब पाही. इस गांव में न्याय और मीमांसा दर्शन के बड़े-बड़े विद्वान हुआ करते थे. 

उनमें से प्रसिद्ध कहानी है चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी के विद्वान अयाचि मिश्र की. लोग उन्हें अयाचि कहते थे, क्योंकि गरीब होने के बावजूद उनका प्रण था कि किसी से याचना नहीं करेंगे. स्वयं तो उद्भट विद्वान थे ही, उनका पुत्र भी बाल्यावस्था में ही काफी ज्ञानवान था. एक बार राजा ने खुश होकर अपना मूल्यवान हार उस बालक को उपहार में दे दिया. बालक ने मां को दिया. 

मां ने उसे उस दलित महिला को दिया, जिसने उसके जन्म के समय प्रसव में सहायता की थी और परंपरा के अनुसार बालक की पहली कमाई पर उसका अधिकार था. हार लेकर वह महिला दुविधा में पड़ गयी और लौटाना चाहा, लेकिन यह संभव नहीं था. अंत में उस महिला ने हार को बेच कर गांव के लिए एक विशाल पोखर का निर्माण करवाया. आज भी यह पोखर गांव में है. इतना ही नहीं, उस गांव में कोई भी शुभ कार्य बिना इस पोखर के पानी से नहीं संपन्न होता है. ग्रामीण संस्कृति की यही नैतिक परंपरा इसे शहरी सभ्यता से अलग करती है. 

क्या आनेवाले समय में ज्ञान की इस ग्रामीण संस्कृति का पुनर्जागरण संभव है? कुछ घटनाओं से मेरी उम्मीदें जगी हैं. कई ऐसे युवा हैं, जो अच्छा-खासा शहरी जीवन को छोड़कर वापस गांव चले गये. पूर्णिया के गांव में ‘चनका रेजिडेंसी' नामक एक जगह बनायी गयी है. 

यहां एक छोटा-सा दो कमरे का गेस्ट हाउस है, जिसमें अक्सर फणीश्वर नाथ रेणु पर शोध करनेवाले विदेशी छात्र-छात्रा आकर रहते हैं. इसी तरह बंगाल के वीरभूम जिले में शांति निकेतन के पास के एक गांव में अमेरिका से पढ़े दो युवा साथी वापस गांव आकर रहने लगे हैं. मिट्टी का घर बनाया है. ‘स्मेल ऑफ द अर्थ' नामक यह संस्था प्राकृतिक खेती करती है और इसकी शिक्षा भी देती हैं. मजे की बात यह है कि दोनों ही मामले में उनका अध्ययन और लेखन बंद नहीं हुआ है. 

इसी तरह अयाची के गांव के लोग मिल-जुल कर ज्ञान की उस परंपरा को पुनर्जीवित करना चाहते हैं. ‘अयाचि डीह विकास समिति' बनायी गयी है. लोग उसमें अनुदान दे रहे हैं. 

इस क्षेत्र की जिस ज्ञान परंपरा पर दुनियाभर में शोध चल रहा हो, उसे इस गांव में पुनर्जीवित करने का यह प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय है. गांव में पहली बार देश के अलग-अलग हिस्सों से विद्वतगण जमा होंगे और दो दिनों का संवाद होगा. क्या कभी ऐसा भी हो सकेगा कि इन ग्रामीण इलाकों में ऐसे कई केंद्र बन जाएं, जहां लोग ज्ञान अर्जन के लिए वापस आने लगें?

मैं यह कतई नहीं कहना चाहता हूं कि आज के युग में शहरी सभ्यता से बचा जा सकता है. लेकिन, क्या भारत की खासियत रही ग्रामीण सभ्यता को भी उसके साथ ही जीवित किया जा सकता है?

क्या ज्ञान की उस नैतिक परंपरा को पुनः जीवित किया जा सकता है, जिसमें ज्ञान का उद्देश्य बाजार में बिकना नहीं, बल्कि लोक कल्याण हो? मुझे अब ‘चलो चलें गांव की ओर' के नारे का मतलब कुछ-कुछ समझ में आने लगा है. यह एक शिक्षक के द्वारा ग्रामीणों और विद्वतजन दोनों के लिए भारतीय ज्ञान परंपरा के जनवादी पक्ष को जीवित करने का अवाहन था.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1051118.html


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