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न्यूज क्लिपिंग्स् | चिपको आंदोलन: याद रखेंगी पीढियां

चिपको आंदोलन: याद रखेंगी पीढियां

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published Published on May 16, 2010   modified Modified on May 16, 2010

नई दिल्ली। पेड़ों को लेकर लोग मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं लेकिन चिपको और अप्पिको आंदोलन में हरियाली के दूतों के बलिदान की तत्परता को पीढि़यां याद रखेंगी। ऐसा जनजागरण जिसमें विशेष तौर पर स्त्री शक्ति का प्रदर्शन हुआ था।

सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में चिपको आंदोलन ने लोगों को वन रक्षा की प्रेरणा दी और सरकार को भी वनों की कटाई रोकने को विवश कर दिया। उत्तर भारत के चिपको आंदोलन से प्रेरित होकर दक्षिण भारत के पश्चिमी घाट पर्वतीय क्षेत्रों में भी वन संपदा की रक्षा का आंदोलन अप्पिको चलाया गया।

विकास के नाम पर देश के विभिन्न भागों में जिस प्रकार वनों की धड़ल्ले से कटाई हो रही है उससे नक्सलवाद जैसी कई सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। दक्षिण भारत में कर्नाटक के उत्तरी कन्नड़ जिले का अप्पिको आंदोलन हमेशा याद रखा जाएगा। सितंबर 1983 में यह आंदोलन चला।

आगे चलकर वनों के संरक्षण के लिए इसने प्रेरणास्त्रोत का कार्य किया। 1950 में इस जिले का 81 फीसदी हिस्सा अनाच्छादित था। सरकार ने इसे पिछड़ा क्षेत्र घोषित किया और विकास की प्रक्रिया शुरू की गई। यहां कारखाने लगाए गए और पनबिजली के लिए नदी पर बांध बनाए गए। यहां विकास नहीं विनाश हुआ और 1980 का दशक आते आते वन घटकर 25 फीसदी रह गए। विकास नहीं विनाश का कारण बने।

कहा जाता है तीन प्रकार के पी- पेपर, प्लाईवुड और पावर के चक्कर में स्थानीय लोग चौथे पी-पोवर्टी यानी गरीबी के भंवर में फंस गए। आंदोलन तो होना ही था। वन मामलों के विशेषज्ञ और पर्यावरण संस्था ग्रीनपीस से जुड़े अभिषेक प्रताप ने बताया कि कई क्षेत्र संवेदनशील हैं। मध्य भारत में खनन, वनोपज आधारित उद्योग तथा संसाधनों के दोहन के कारण ऊष्णकटिबंधीय वनों के इस क्षेत्र में वृक्ष विरल हो गए हैं।

प्रताप ने कहा कि उनका निजी तौर पर मानना है कि वनों के अत्यधिक दोहन के कारण इस क्षेत्र में कई सामाजिक समस्याएं जैसे नक्सलवाद और हिंसा पनप रहे हैं। उन्होंने कहा कि उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य इस प्रकार के उदाहरण हैं, जहां विस्थापन के आसन्न संकट और इन सामाजिक समस्याओं को देखा जा सकता है।

वहीं चिपको आंदोलन में शामिल रह चुके एमके जोशी ने कहा कि यह एक क्रांति थी। जोशी के अनुसार भले ही चिपको आंदोलन के पहले चरण का आंदोलन 1981 में समाप्त हो गया था लेकिन यह अपने मकसद में सफल रहा। उत्तराखंड क्षेत्र सहित कई राज्यों की सरकार को विवश होकर वनों की कटाई पर रोक लगानी पड़ी।

जोशी ने कहा कि चिपको एक जनांदोलन था, जिसका सबसे प्रत्यक्ष प्रभाव तो पश्चिमी घाट क्षेत्र के वनों के संरक्षण के अभियान पर देखने को मिला। प्रताप ने कहा कि वनों के विनाश को लोग जीविका के संकट के रूप में देखते हैं, इसलिए उनका पुरजोर विरोध जारी है।


http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_6414875.html


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