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न्यूज क्लिपिंग्स् | चुनौती से ज्यादा उपेक्षा के मारे

चुनौती से ज्यादा उपेक्षा के मारे

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published Published on Aug 10, 2010   modified Modified on Aug 10, 2010
छत्तीसगढ़ के जंगलों में एक हफ्ता गुजारकर लौटे बृजेश पांडे बता रहे हैं कि देश की सबसे बड़ी चुनौती का मुकाबला करने के लिए तैनात सीआरपीएफ के जवानों के मनोबल की हालत क्या है

बारिश लगातार हो रही है. कभी हल्की तो कभी तेज बौछार के साथ. संभल-संभलकर चलते हुए  हमें तीन घंटे हो गए हैं. यहां-वहां देखते हुए, दुश्मन की तलाश करते हुए. दुनिया के सबसे बड़े अर्धसैनिक बलों में से एक सीआरपीएफ में लंबे समय से काम कर रहे रमेश कुमार सिंह (बदला हुआ नाम) ने तीन घंटों से कुछ नहीं कहा है. मैं कई बार उनसे बात करने की कोशिश कर चुका हूं और थक-हारकर अब उनके पीछे चल रहा हूं.

' कई बार मजबूरी में हमें ऐसे तालाब का पानी भी पीना पड़ता है जिसका इस्तेमाल जानवर भी करते हैं. आधे वक्त तो जवान उल्टियां ही करते रहते हैं.’

हम छत्तीसगढ़ में हैं, माओवादियों के इलाके में जहां उग्र माओवादी दस्ते कई सीआरपीएफ जवानों की हत्या कर चुके हैं. रमेश की टुकड़ी में 16 लोग हैं. कीचड़ से लथपथ रास्ते पर हम 15 किमी चल चुके हैं और तेज होती बारिश में ओट लेने के लिए अब एक पेड़ की ओर बढ़ रहे हैं. अचानक रमेश मुझसे कहते हैं, ’आप खुद इस इलाके को देखिए. अचानक एक आदिवासी हमारी तरफ आता है और हम नहीं जानते कि वह नक्सली है. अगर हम गोली चलाते हैं और एक निर्दोष मारा जाता है तो जान को आफत है और अगर हम गोली नहीं चलाते और उस आदमी को जाने देते हैं तो हो सकता है कि वह एक बड़ा नक्सली नेता हो जो कुछ देर बाद ही हमारी मौत की योजना बना डाले. तब भी हमारे लिए मुसीबत है. हमें मौत का डर नहीं लेकिन उस व्यवहार का दुख है जो हमारी मौत के बाद होता है. एक नक्सली की मौत पर खबरें बनती हैं और लोग चाहते हैं कि एक भी नक्सली न मारा जाए. लेकिन हमारा क्या? हम तो 25-50 पैसे के सिक्के हैं जिनकी कोई अहमियत नहीं. हमारी कोई गिनती नहीं है, कम से कम दिल्ली में तो नहीं.’

ये वे पहले शब्द हैं जिनसे मुझे पहली झलक मिलती है कि सीआरपीएफ के भीतर क्या चल रहा है. रमेश बताते हैं कि वे कश्मीर में भी रह चुके हैं जो सेवाओं के लिए एक मानक की तरह है. उनकी एक पत्नी है, एक बेटा शुभ और डेढ़ साल की बेटी जानकी है. बेटी का जिक्र करते ही उनके चेहरे पर मुसकान आ जाती है. कई साल पहले उन्होंने सीआरपीएफ के लिए इसलिए अप्लाई किया था कि उनका सबसे अच्छा दोस्त सेना में चला गया था. वे भी देश की सेवा करना चाहते थे.
रमेश कहते हैं, ’कश्मीर में हालात काफी विस्फोटक थे, लेकिन हम जानते थे कि हम किससे लड़ रहे हैं और सबसे बड़ी बात यह थी कि हम जानते थे कि नई दिल्ली हमारे साथ है. यहां छत्तीसगढ़ में इससे अलग हालात हैं. हमें यहां पटक दिया गया है. हमारे साथ इस तरह का व्यवहार हो रहा है मानो हम नक्सलियों के साथ कोई निजी लड़ाई लड़ रहे हों.’
अनुमानों के मुताबिक घाटी में एक हजार चरमपंथी हो सकते हैं. माओवादियों के असर वाले इलाकों में उनकी संख्या इससे कई गुना अधिक है. कश्मीर में सीआरपीएफ की 70 यूनिटें कानून व्यवस्था की बहाली के लिए तैनात हैं और छत्तीसगढ़ में 18. इसका मतलब यह है कि छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के 18,000 जवान माओवादियों से लड़ रहे हैं जबकि कश्मीर में शांति बरकरार रखने के लिए 70,000 जवान तैनात हैं.

जवान जानते हैं कि उनके नियंत्रण से इतर कई चीजें हैं जिन्हें आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता. जैसे स्थानीय प्रशासन और नक्सलियों में सांठगांठ

रमेश को लगभग हमेशा ही पैदल चलना होता है. यहां पैदल चलना जोखिम भरा हो सकता है. लेकिन वाहनों का इस्तेमाल तो जानलेवा है. माओवादियों ने सीआरपीएफ के कई वाहन उड़ाए हैं. बार-बार कही जा रही कहानियों में माओवादियों की कामयाबियों और असर का मिथक बड़ा होता जाता है जबकि सीआरपीएफ के पास सुनाने के लिए कामयाबी की बहुत थोड़ी-सी कहानियां हैं. नाम नहीं बताने की शर्त पर एक अधिकारी कहते हैं, ’माओवादी अपनी लड़ाई अधूरी नहीं छोड़ते. एक बार जब लड़ाई शुरू हो जाती है तो वे कभी पीछे नहीं हटते.’

अब हम एक कैंप में लौट आए हैं क्योंकि बारिश बहुत तेज हो गई है जिससे लंबी गश्त नहीं हो सकती.  अंधेरा हो गया है. कैंप की कंटीले तारों से घेरेबंदी की गई है. प्रवेश द्वार पर एक चेक पोस्ट है, जहां चार कमांडो तैनात हैं. उनके हाथ में असॉल्ट राइफलें हैं और उंगलियां ट्रिगर पर हैं. 32 साल का एक जवान बताता है, ’ यहां बस्तर के जंगलों में हम लाचार महसूस कर रहे हैं.’

सीआरपीएफ के पास तीन लाख जवान हैं लेकिन इस जवान के आगे के शब्द सुनकर यह बड़ी संख्या उतना बड़ा भरोसा नहीं जगाती. वह कहता है, ’आप बताइए कि मुझे किस चीज पर ध्यान लगाना चाहिए. मैं तिरंगे के लिए लडूं़ या या खाने और पानी के लिए. मैं नहीं जानता कि कब मुझे गोली लग जाएगी. मैं जानता हूं कि फोर्स से मेरी रोजी-रोटी चलती है और मुझे ऐसी बात नहीं करनी चाहिए, लेकिन मुझे बताइए कि मैं अपनी बीवी को क्या बताऊं जो दंतेवाड़ा हत्याकांड के बाद पागल-सी हो गई है. जब भी उसे पता लगता है कि मैं गश्त या एरिया डोमिनेशन पर जा रहा हूं तो वह बेकाबू हो जाती है.’

वह आगे कहता है, ’62वीं यूनिट के 76 लोग मर गए और हमने बस यह सुना कि हम कितने अक्षम हैं, कि कैसे हमें ठीक से प्रशिक्षण नहीं दिया गया, कि कैसे हम रास्ता खुलवाने के लिए ड्रिलों जैसी चीजों के बारे में नहीं जानते, और कैसे हमने नियमों का उल्लंघन किया. क्या दिल्ली में बैठे ऊंचे अधिकारी जानते हैं कि वे क्या कह रहे हैं? क्या उन्हें पता भी है कि जमीन पर क्या हो रहा है? देश हमारे साथ नहीं है.’

अब उसकी आवाज ऊंची हो गई है. वह बताता है कि बल के पास इतनी यूनिटें नहीं हैं कि एक बार रास्ता खुलवाने के बाद वे उस हिस्से को सुरक्षित रख सकें. जवानों ने बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक ईएन राममोहन द्वारा ’नेतृत्व की नाकामी’ और ’सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के बीच तालमेल के अभाव’ के कारण हुई दंतेवाड़ा घटना पर सौंपी गई रिपोर्ट के बारे में सुना है. वे कहते हैं, ’हम यहां प्रशासन की मदद करने के लिए आए हैं, लेकिन हमारे साथ सहयोग नहीं होता.’
राकेश चौबे (बदला हुआ नाम) को सीआरपीएफ में छह साल हो गए हैं. इसके पहले वे पूर्वोत्तर में तैनात थे. राकेश 14 साल के ही थे जब उनके पिता चल बसे. तब से उनके ऊपर अपनी मां और दो छोटे भाइयों का जिम्मा  है. वे कहते हैं कि उनपर अगर अपने परिवार की जिम्मेदारी नहीं होती तो वे एक साल पहले ही नौकरी छोड़ चुके होते. वे कहते हैं, 'कई बार मजबूरी में हमें पीने के लिए ऐसे तालाब का पानी इस्तेमाल करना पड़ता है जहां जानवर भी पानी पी रहे होते हैं. हमारा बस चले तो हम ऐसा पानी किसी को न पीने दें. आधे वक्त तो हमारे जवान उल्टियां ही करते रहते हैं.’ वे आगे कहते हैं, 'क्या आपने कभी देखा है कि कोई युद्ध इस तरह भी लड़ा जाता है? हम नहीं जानते कि हम यहां राज्य पुलिस की कानून व्यवस्था के लिए मदद करने के लिए हैं या नक्सलियों के खात्मे के लिए या फिर महज समस्याग्रस्त इलाकों के बीच झूलते रहने के लिए, जिसमें कई बार जवान बिना किसी वजह के ही मर रहे हैं. अगर यह युद्ध है तो पूरे बस्तर को क्यों नहीं युद्ध क्षेत्र घोषित किया जाता? अगर यह एक समस्याग्रस्त इलाका है तो फिर इसे यही कहा जाए. लेकिन अगर बस्तर यह भी नहीं है तो कृपया नक्सलवाद को देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती कहना बंद कीजिए.’

सीआरपीएफ में भय व्याप्त है. छोटे-छोटे नक्सली समूह एक पूरी यूनिट पर अचानक हमला करते हैं और जवानों के संभलने के पहले फिर से जंगल में गायब हो जाते हैं. ऐसा नहीं है कि सीआरपीएफ संघर्ष की प्रकृति से वाकिफ नहीं हैः छत्तीसगढ़ में तैनात यूनिटों को दो माह तक ऐसे विशेष प्रशिक्षण दिए गए हैं जिनमें उन्हें इलाके की बनावट और हालात, जंगल युद्ध और इलाके में रहने के तरीकों के बारे में बताया गया है.

लेकिन कितना भी प्रशिक्षण पर्याप्त बैकअप के बिना काम नहीं करता. वरिष्ठ अधिकारी गुस्से में हैं कि दंतेवाड़ा मंे पूरी यूनिट के सफाए के बावजूद महानिदेशक ने वहां एक और नियमित यूनिट की तैनाती जरूरी नहीं समझी. यह मनोबल को तो बढ़ाता ही, निचली कतारों तक यह संदेश भी जाता कि ऐसे हर हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

माओवादियों के उलट, जो इस युद्ध के राजनीतिक उद्देश्यों के बारे में बहुत साफ-साफ सोचते हैं, सीआरपीएफ के जवानों से राजनीति में न फंसने और बिना सवाल किए आदेशों को मानने की अपेक्षा की जाती है. लेकिन राजनीतिक खेल के बारे में कानाफूसियां चलने लगी हैं. जवान जानते हैं कि कई चीजें उनके नियंत्रण से बाहर हैं और उन्हें आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता. जैसे स्थानीय प्रशासन और नक्सलियों के बीच सांठगांठ. वे एक घटना का जिक्र करते हैं कि एक विधायक अपनी काली स्कॉर्पियो से नक्सली असर वाले इलाके में बिना किसी सुरक्षा के आए और सुरक्षित लौट भी गए. यहां तक कि जब नक्सली पूर्ण बंद की घोषणा करते हैं तब भी वन विभाग की गाड़ियां आजादी से घूमती हैं क्योंकि बजाहिर वे जंगल के संसाधनों के दोहन में नक्सलियों की मदद करते हैं.

स्थानीय प्रशासन की कृपा पर रहना भी जवानों के मनोबल को तोड़ता है. राकेश सवाल करते हैं, ’आईजी और डीआईजी को क्यों नियमित रूप से कलेक्टर और एसपी से जवानों को बेहतर हालात देने के लिए  प्रार्थना करनी पड़ती है. हम यहां प्रशासन की मदद करने के लिए हैं लेकिन वे हमारे साथ सहयोग नहीं करते.’ इसके उलट आंध्र प्रदेश में पुलिस, अर्धसैनिक बलों और ग्रेहाउंड्स के बीच बेहतर तालमेल रहा जिससे वहां से नक्सलियों का सफाया हो गया. राकेश कहते हैं, ’एक घटना बेहतर तरीके से बता सकती है कि हमारा मनोबल कैसा है. हम चिंतलनार में तैनात थे. वहां केवल एक बस थी जो दिन में एक बार चलती थी. वही बस पूरे कैंप के लिए राशन ढोती थी. बस सुबह 6 बजे चलती थी. हमारे कैंप से महज 5 किमी पहले नक्सलियों ने चेक पोस्ट लगाया और राशन ले लिया. हमारा पूरा कैंप इस राशन पर निर्भर था लेकिन हम कुछ नहीं कर सके. जब हम अपना भोजन तक नहीं बचा सकते तो सोचिए कि तब हमारा मनोबल क्या होता होगा जब बात जान बचाने की हो.’

जवानों में यह भावना घर कर रही है कि उनके साथ भेदभाव होता है. उदाहरण के लिए, सीआरपीएफ सीधे एक विवादग्रस्त इलाके से दूसरे विवादग्रस्त इलाके में भेज दी जाती है. इसका मतलब यह है कि 90 प्रतिशत जवान अपना पूरा सेवाकाल संघर्षरत इलाकों में बिताते हैं. इसके विपरीत सेना में तीन साल की कठिन तैनाती के बाद सैनिकों को पीस पोस्टिंग मिलती है. यानी वे किसी सामान्य इलाके में अपने परिवार के साथ रह सकते हैं. इसके बाद सेना जब अपनी जगह बदलती है तो उससे पहले नई जगह पर उचित बैरकें, मेस और दूसरी सुविधाएं मुहैया करवाई जाती हैं.सेना का आपूर्ति कोर भोजन और दूसरी जरूरी चीजों का इंतजाम करता है. आंध्र प्रदेश में नक्सलियों का सफाया करने वाले ग्रेहाउंड्स के किसी जवान की अगर मौत हो जाती है तो उसके आश्रितों को राहत देने संबंधी कार्रवाई पूरी होने में महज 24 से 48 घंटे लगते हैं. इसके उलट सीआरपीएफ में हाल यह है कि दंतेवाड़ा हमले में घायल जवानों में से एक बलजीत के सोनीपत स्थित घर जब मैं पहुंचा था  तो उसके पिता का कहना था कि दो दिन हो गए, मीडियावालों सहित पूरी दुनिया आ गई मगर सीआरपीएफ से एक फोन तक नहीं आया.

शायद इसीलिए महेश प्रसाद (बदला हुआ नाम) इतने दुखी हैं कि खुद को रोक नहीं पाते. वे बड़ी कड़वाहट के साथ कहते हैं, ’पिछले डेढ़ साल से हम यहां हैं. सुविधाएं न के बराबर हैं. कई बार इमली के रस और चावल पर गुजारा करना होता है. ऐसे लड़ा जाता है युद्ध ? अगर मुझे अपने पिता की मौत की खबर मिले तो अपने कैंप से बाहर निकलने में भी घंटों लग जाएंगे और यह भी हो सकता है कि चार दिन भी लग जाएं. जब आप दंतेवाड़ा की घटना में बच गए जवानों के साथ किए गए व्यवहार के बारे में सुनते हैं तो आपको पता लगता है कि किसी को आपके जीने और मरने की परवाह नहीं है. यह जानकर दुख होता है. अगर मुझे छुट्टी पर भी जाना हो तो ऐसी कोई सुविधा नहीं है कि आपको हवाई रास्ते से सुरक्षित रायपुर में उतार दिया जाए. घर जाते हुए या वहां से आते हुए मैं उन्हीं नक्सलियों की दया पर होता हूं जिनसे मैं लड़ रहा हूं. आप किस मनोबल की बात करते हैं?

जवान खुद को इसलिए भी महत्वहीन महसूस करते हैं कि उन्हें लगता है कि नक्सली उनकी हत्या सिर्फ इसलिए कर रहे हैं ताकि वे सरकार पर उचित मात्रा में दबाव बना सकें. वे सोचते हैं कि इसीलिए नक्सली वरिष्ठ अधिकारियों जैसे आईजी, डीआईजी या डीएम को निशाना नहीं बना रहे हैं, हालांकि उनके पास हथियार हैं और वे ऐसा कर सकते हैं. प्रसाद कहते हैं, ' वे भी जानते हैं हमारी हत्या करने पर उन्हें करारा जवाब नहीं मिलेगा. आप आईपीएस अधिकारियों की हत्या शुरू कीजिए. फिर देखिए क्या होता है.’ एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ' पिछले डेढ़ साल में युद्ध के हालात बदल गए हैं लेकिन कोई ताजा आकलन नहीं किया गया है. कोई नहीं पूछता कि कितने अतिरिक्त बलों की जरूरत है. कोई ठोस योजना तक नहीं है.’ वे कहते हैं कि उन्हें बेहतर संचार व्यवस्था और खुफिया नेटवर्क की जरूरत है क्योंकि नक्सली दिन-ब-दिन बेहतर होते जा रहे हैं. बारिश अब भी जारी है. दिल्ली की फ्लाइट पकड़ने के लिए रायपुर आते हुए मैं बार-बार खुद को यह सोचने से रोक नहीं पाता कि सीआरपीएफ यह लड़ाई इस तरह शायद ही जीत पाए.

http://www.tehelkahindi.com/indinon/national/649.html


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