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न्यूज क्लिपिंग्स् | छुआछूत मुक्त भारत क्यों नहीं- सुरेन्द्र कुमार

छुआछूत मुक्त भारत क्यों नहीं- सुरेन्द्र कुमार

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published Published on Dec 30, 2014   modified Modified on Dec 30, 2014
जिन साथी भारतीयों ने ईसाई या इस्लाम कुबूल कर लिया, उनकी दुर्दशा पर कुछ लोगों को विलाप करते देखना चमत्कार ही है। इसलिए वे अब उन 'अभागों' को वापस हिंदू धर्म में शामिल कर उनके दुर्भाग्य को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं! वास्तव में, वे भारत में हिंदुओं की संख्या बढ़ाने को लेकर चिंतित हैं। उनके लिए उन लोगों की स्थितियां कोई मायने नहीं रखती, जिनका धर्मांतरण या पुनर्धर्मांतरण हुआ। बहरहाल, कुछ विशेष क्षेत्रों में धर्म विशेष का प्रचार करने, मसलन अशोक का बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षण और औरंगजेब द्वारा सेना के बल पर हिंदुओं और सिखों का इस्लाम में धर्मांतरण या फिर मिशनरियों द्वारा ईसाई धर्म के प्रचार के बावजूद भारत धर्मनिरपेक्ष रहा है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि देश में अब भी 85 फीसदी भारतीय हिंदू हैं?

असल में, ताकत, दबाव, भावनात्मक ब्लैकमेल, आर्थिक प्रलोभन और अन्य कारकों का इस्तेमाल कर धर्मांतरण या पुनर्धर्मांतरण के सूत्रधार कमजोर वर्गों को निशाना बनाते हैं। मानव इतिहास का यह सच है कि प्रथम और द्वितीय विश्य युद्ध की तुलना में धर्म की सूली पर अधिक लोग चढ़ाए गए हैं। सल्तनत पूर्व काल से लेकर अंतिम मुगल सम्राट तक (जो निर्वासित हुए और रंगून में दफनाए गए) मुसलमान करीब पांच सौ वर्षों तक प्रमुख शासक वर्ग थे। इसी तरह, भारत करीब एक सदी तक ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तले दबा रहा। बावजूद इसके आज भी देश की 85 फीसदी आबादी हिंदू है। भारत इसलिए धर्मनिरपेक्ष रह सका, क्योंकि देश की बड़ी आबादी धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखती है।

भारतीय संविधान के तहत हर नागरिक को कोई भी धर्म कुबूल करने और अपने धर्म के प्रचार करने का अधिकार है। मगर यह एक स्वैच्छिक कार्य होना चाहिए, न कि दबाव, जबर्दस्ती या प्रलोभन से। हिंदू समाज की निचली जातियां धर्मांतरण और पुनर्धर्मांतरण करने वालों का आसान निशाना रही हैं, क्योंकि इन जातियों की आर्थिक स्थिति बदहाल होती है और उनका सामाजिक रहन-सहन भी कमजोर होता है। इतना ही नहीं, वे उत्पीड़न, शोषण और बुनियादी मानव अधिकारों के अभाव की वजह से भी नाराज होते हैं। इसे इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है। महाभारत के समय सम्मानित गुरु द्रोणाचार्य ने सिर्फ राजाओं और उनके कुमारों को शिक्षा दी, न कि एकलव्य जैसे निचली जाति के युवक को। मगर अपने शाही विद्यार्थियों की सर्वोच्चता की रक्षा के लिए उन्होंने एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में अंगूठा जरूर मांग लिया। इस घटना को इस रूप में भी देख सकते हैं कि शिक्षित समाज द्वारा वंचित वर्गों की शिक्षा प्राप्त करने की आकांक्षा की यह 'हत्या' है। दो वर्ष पहले देश के मुख्य न्यायाधीश ने भी द्रोणाचार्य के इस कृत्य को शर्मनाक बताया था।

इसी तरह, मनुस्मृति का यह कथन कि पवित्र श्लोक सुनने की हिम्मत करने वाली निचली जाति के लोगों के कानों में शीशे पिघलाकर डालना चाहिए, हिंदू समाज के बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा निचली जातियों के खिलाफ क्रूरता को परिभाषित करता है। यहां तक कि सबसे प्रबुद्ध हिंदू सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में भी निचली जाति के लिए चलते समय पंक्तिबद्ध होने और बांस की छड़ी में लगी घंटी बजाना जरूरी था, ताकि ऊंची जाति के लोग निचली जाति के लोगों की छाया से बच सकें।

हालांकि अपने देश में अस्पृश्यता को काफी पहले समाप्त कर दिया गया है, लेकिन आज भी यह देश के कई गांवों में प्रचलित है। स्थिति यह है कि दलित आम लोगों के कुएं से पानी नहीं निकाल सकता और न ही गांव में आम समूहों के बीच रह सकता है। उनके रहने के लिए गांव से बाहर क्षेत्र निश्चित होता है। हरियाणा, राजस्थान, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में दलितों को दैनिक कामकाज में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। कुछ गांवों में उन्हें उन पगडंडियों पर साइकिल चलाने की मनाही होती है, जहां ऊंची जातियों की जमीनें होती हैं। ऊंची जातियों की गलियों से वे शादियों में हाथी या घोड़े नहीं ले जा सकते। निर्भया बलात्कार कांड के बाद मुख्य न्यायाधीश ने एक टिप्पणी की थी कि ग्रामीण भारत में दलित लड़कियों से छेड़छाड़ और बलात्कार आम है। अगर ऊंजी जाति की कोई लड़की नीची जाति के युवक के साथ भाग जाती है, तो ऊंची जाति के ग्रामीण दलितों के पूरे गांव पर हमला बोल देते हैं। निर्वाचन आयोग का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसके प्रयासों से अब दलित अपना मत दे सकते हैं। मगर दो दशक पहले, ऊंची जातियों द्वारा उनमें से हजारों को मताधिकार का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं थी।

आजादी के बाद, बेशक हमने देश में एक दलित राष्ट्रपति देखा है, लोकसभा अध्यक्ष भी दलित हुए हैं, कई कैबिनेट मंत्री, सांसद, विधानसभा सदस्य, नौकरशाह और राजदूत भी दलित हुए। पर तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम द्वारा लोकसभा में पेश की गई एक रिपोर्ट की मानें, तो एक साल में दलितों पर हमले के 13,000 से अधिक मामले दर्ज होते हैं! वास्तविक आंकड़े इससे भी अधिक हो सकते हैं।

ऊंची जाति के हिंदुओं द्वारा नीची जाति के भाइयों के साथ इस तरह के अपमान के बाद यह वाकई पेचीदा सवाल है कि आखिर उनमें से कइयों ने क्यों इस्लाम या ईसाई धर्म कुबूल नहीं किया। अपनी पीढ़ी के यकीनन सबसे बड़े शिक्षित डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी बौद्ध धर्म इसलिए कुबूल नहीं किया कि उन्हें किसी तरह का प्रलोभन दिया गया था, बल्कि इसलिए, क्योंकि व्यक्तिगत रूप से उनके साथ अस्वीकार्य व्यवहार किया गया। लिहाजा हिंदू धर्म के स्वघोषित संरक्षक ईमानदारी दिखाएं और हिंदू समाज को और अधिक सहिष्णु, मानवीय, न्यायसंगत, और भेदभाव मुक्त बनाने का प्रयास करें। कांग्रेस मुक्त भारत के बजाय क्या छूआछूत मुक्त भारत, दलितों के खिलाफ अत्याचार मुक्त भारत, दलितों के सम्मान और अस्मिता का रक्षक भारत जैसे अभियान चलाने की जरूरत नहीं है? अगर वे इस प्रयास में सफल होते हैं, तो फिर उन्हें किसी भी धर्मांतरण से डरने की जरूरत नहीं होगी।


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/why-not-untouchablity-free-india-hindi/


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