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न्यूज क्लिपिंग्स् | जनगणना से मिलते संकेत- अरविन्द मोहन

जनगणना से मिलते संकेत- अरविन्द मोहन

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published Published on Aug 7, 2015   modified Modified on Aug 7, 2015
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने जिस तरह जनगणना के जातिवार आंकड़ों के बारे में तत्काल सफाई दी और उसे लगभग ठंडे बस्ते में डाल दिया, उसके पीछे बड़ा कारण बिहार विधानसभा का चुनाव था। अब बिहार में जातिवार जनगणना के आंकड़ों की मांग बड़ा चुनावी मुद्दा बन गई है। कई लोग यह भी कहने लगे हैं कि जरूरी नहीं कि जातिवार आंकड़ों की मांग लालू-नीतीश की जोड़ी को फायदा पहुंचाए और भाजपा इससे डरे, यह कोई सही रणनीति नहीं है।
केंद्र सरकार के आंख-नाक-कान माने जाने वाले अरुण जेटली ने कई लाख जातियों का हवाला देकर और राज्यों से उनका वर्गीकरण न मिल पाने का तर्क देकर एक भरोसा जता सकने वाला बहाना बनाया और अरविंद पानगड़िया के नेतृत्व में समिति गठित कर उसे बिहार चुनाव या शायद उससे भी काफी बाद तक के लिए बड़े विश्वसनीय ढंग से टाल दिया। लंबे समय और बहुत हंगामे के बाद जब यूपीए सरकार ने जनगणना में जातिवार आंकड़े इकट्ठा कराने पर सहमति दी थी तब भी बहुत उम्मीद नहीं थी कि ऐसा ठीक-ठीक हो पाएगा, क्योंकि इस बार लगभग बाईस-तेईस आर्थिक सूचनाओं, जानकारियों वाली मुख्य जनगणना के साथ जाति वाली जानकारियां नहीं जुटाई गई थीं। यह काम बाद में एक सहायक सर्वे के जरिए हुआ और इसे जनगणना निदेशालय की जगह एक सरकारी विभाग ने किया।
1929 तक जातिवार गिनती चलती थी। तब राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं का कहना था कि अंगरेज जाति और धर्म का आंकड़ा जुटा कर देश तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, जो जनगणना के बारे में काफी हद तक सही टिप्पणी भी थी। जातिगत पहचान को तेज करने और जातिवार गोलबंदियों को बढ़ाने में तब की जनगणना और आज के चुनावी लोकतंत्र की बड़ी भूमिका है। जब आजाद भारत में समान अधिकार और अवसर का सिद्धांत मानने के बाद भी चुनाव से लेकर हर चीज में जातिवाद चलता रहा, तो धीरे-धीरे यह मांग जोर पकड़ती गई कि जातिवार जनगणना फिर से शुरू हो, जिससे नीतियों और संसाधनों के वितरण में समाज की सही जरूरतों का खयाल रखा जा सके।
संविधान जातिगत पहचान और भेदभाव के खिलाफ है, सो एक सीधा तर्क विशेष अवसर या किसी सामाजिक समूह को नीतिगत प्राथमिकता देने के खिलाफ जाता है। समानता और राष्ट्रहित का तर्क देने वाले इसके खिलाफ रहे, भले उनका आचरण कैसा भी हो। ऐसे लोगों में कांग्रेसी तो थे ही, भाजपा और संघ परिवार के लोग सबसे आगे थे, जिनकी अब सरकार बन गई है। सो, उसने उम्मीद के अनुरूप ही जातिवार आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं होने दिया। वित्तमंत्री और सरकार के सारथी अरुण जेटली की घोषणा के बाद भी ये कब जारी होंगे या कभी जारी भी होंगे, यह स्पष्ट नहीं है।
पर अभी जारी हुई सूचनाओं से जातिवार और क्षेत्रवार ब्योरों की अधिक जरूरत महसूस हो रही है।
कुछ दिनों पहले केंद्रीय मंत्री बीरेंद्र सिंह द्वारा जारी सामाजिक और आर्थिक सर्वे के कई सारे आर्थिक और सामाजिक आंकड़ों से भारत की जो तस्वीर बन रही है वह अब तक दिखाई जा रही तस्वीर से काफी अलग है और अगर यही ‘दुनिया की तीसरी बड़ी' और दूसरी सबसे तेज विकास कर रही अर्थव्यवस्था की सच्चाई है, तो हमें बड़बोलेपन को छोड़ गंभीर होकर कुछ बुनियादी बातों पर ध्यान देना होगा। फिर बुलेट ट्रेन और डिजिटल इंडिया जैसे नारों पर दोबारा सोचने की जरूरत है।
सबसे बड़ी सूचना यह है कि सारे विकास और शहरीकरण के दावे झूठे हैं और आज भी बहत्तर फीसद लोग गांवों में रहते हैं। आज भी लगभग दस फीसद बच्चे स्कूलों का मुंह नहीं देख पाते। गांवों की लगभग आधी आबादी गरीब है। जो खेती करता है उसके पास जमीन नहीं है और जिसके पास जमीन है वह खेती छोड़ना चाहता है। दलितों के पास जमीन नहीं है और आदिवासी जमीन रख कर भी दरिद्र हैं। गरीबों में दलितों का हिस्सा सबसे ज्यादा है, तो मुसलमान कई मामलों में दलितों से भी पीछे हैं।
यह सही है कि जातिवार आंकड़े आते तो ज्यादा साफ तस्वीर उभरती, पर उनके न आने और बाकी सूचनाओं के आ जाने के बाद बहुत कुछ छिपा नहीं रहता। यह लगभग डराने वाला सच सामने आया है कि भूमिहीनों और गरीबों में एक तिहाई दलित समाज के लोग हैं, जिनकी कुल आबादी इस अनुपात से आधी भी नहीं है। यानी अन्य समाजों की तुलना में दलितों में भूमिहीनता चार गुना से भी ज्यादा है। सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि हमारी कथित विकास योजनाओं से गांव दरिद्र हुए हैं और वहां रह रहे अगड़ों की हालत भी बदतर हुई है।
एक धारणा यह बनी थी कि बिहार हर मामले में सबसे पिछड़ा है। मगर हकीकत यह है कि छत्तीसगढ़, ओड़ीशा जैसे प्रदेश उससे भी पिछड़ गए हैं। विकास की जगह पिछड़ेपन की होड़ ही असली सच है। अभी सारे आंकड़ों पर चर्चा नहीं हुई है, पर यह भी लगता है कि विकास और सुविधाओं के मामले में देश भौगोलिक रूप से भी बंट रहा है- शहर और गांव का विभाजन तो हुआ ही है। और जो हाल विकास का है उसके समांतर ही सिंचाई और जल की उपलब्धता का नक्शा चलता है, यानी विकास चाहिए तो प्राथमिकता बदलनी होगी।
अगर देश में फोनों की संख्या जनसंख्या को छूती लग रही है, तो जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि देहात का एक तिहाई हिस्सा अभी इस सुविधा से अछूता है। सो, अगर कांग्रेसी सरकारों को यह सच छिपाना जरूरी लगता था, तो भाजपा इसे जाहिर करना चाहे इसकी कोई वजह दिखाई नहीं देती, क्योंकि दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और महिलाओं ही नहीं, गांव में रहने वालों और देसी जुबान में बात करने वालों, पढ़ने वालों के प्रति उसका नजरिया कांग्रेस से भी गया-बीता है।
पर जो लोग आज जातिवार जनगणना के पक्षधर और इन आंकड़ों को जाहिर करने की मांग उठा रहे हैं, उनके नेतृत्व में भी राज्यों और केंद्र में सरकारें बनी और चली हैं। वे पूरी तरह कांग्रेसी या भाजपाई रंग वाले साबित हुए, यह कहना सही नहीं होगा। पर पिछड़ों के राज में दलित और आदिवासियों की स्थिति कोई अलग हो या दलित राज आने से दलितों का बहुत भला हो गया हो, ऐसा भी नहीं है। बल्कि दलितों को तरक्की में आरक्षण देने का विरोध हो या औरतों को किसी किस्म का विशेष लाभ, इनका सबसे तीखा विरोध उन्हीं नेताओं की तरफ से हुआ, जो खुद को सामाजिक न्याय का पुरोधा मानते हैं। संसद में महिलाओं के लिए आरक्षण का सवाल सबसे ज्यादा समय से इन्हीं लोगों के चलते लटका पड़ा है। सामाजिक न्याय के ये कथित सिपाही आज गांव और देसी भाषाओं की वकालत करना भूल गए हैं और इनका अल्पसंख्यक प्रेम भी काफी कुछ सत्ता की सीढ़ी के तौर पर मुसलमानों के इस्तेमाल का बहाना है।
पर यह भी सच है कि कोई सरकार अगर सचमुच जनगणना के आंकड़ों और उससे निकलने वाले संकेतों को ठीक से समझ कर आगे की नीतियां और योजनाएं बनाना चाहे तो न सिर्फ बड़े असर वाले काम हो सकते हैं, बल्कि जातिवार आंकड़ों को जातिवादी राजनीति से जोड़ने वालों की राजनीति को भी कमजोर किया जा सकता है। अब इन आकड़ों से जाति और संपत्ति का रिश्ता दिखता है। जाति और शैक्षणिक पिछड़ेपन को भी छिपाना मुश्किल है।
ताजा आंकड़े गांव और शहर के भेद को बहुत हद तक साफ करते हैं। समाज में औरत-मर्द का भेद है ही। आदिवासी और दलितों की आर्थिक सामाजिक हैसियत का अंदाजा लगाने के लिए जनगणना के आंकड़ों की जरूरत नहीं है। सच्चर समिति से लेकर जनगणना तक के आंकड़े अल्पसंख्यकों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत को जाहिर करते हैं। ऐसे में यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा और कांग्रेस मंडल के सवाल पर क्या कर रहे थे, तो मुलायम सिंह और शरद यादव महिलाओं के आरक्षण और दलितों की प्रोन्नति के सवाल पर किस तरह कमजोर विरोधी रुख ले चुके हैं। सो, अगर सरकार की नीयत साफ हो और वह उपलब्ध संसाधनों का सही बंटवारा करने की इच्छा रखती हो, तो जनगणना के आंकड़े बड़ा अवसर साबित हो सकते हैं।
यह सही है कि इतने आंकड़े और इनके वर्गीकरण में समय लगता है, और जो लोग अस्थायी रूप से जनगणना के काम में जुट कर आंकड़े जुटा देते हैं उनकी मदद वर्गीकरण और सूचीकरण में नहीं ली जाती। फिर सामाजिक और आर्थिक स्थिति का सर्वे तो समाज कल्याण मंत्रालय के अधीन हुआ है। सो, बहाने के साथ इस सच्चाई को भी ध्यान रखना चाहिए।
अगर हमें दबाव बनाना ही है तो अकेले जातिवार आंकड़ों को सार्वजनिक करने की जगह समाज में मौजूद विभाजनों और भेदभावों को उजागर करने वाली सारी जानकारियों को जारी करने का दबाव बनाना चाहिए। सिर्फ जाति आधारित आरक्षण की जगह समस्त विषमताओं को उनके स्वरूप के हिसाब से भारांक देकर एक समग्र आरक्षण या विशेष अवसर की नीति की तैयारी करनी चाहिए। यह सिर्फ नौकरी और स्कूल-कॉलेज में दाखिले भर के लिए काम न आए, बल्कि सरकार और मुल्क के संसाधनों के बंटवारे की नीति के अवसर पर भी काम आए, वरना जिन कमजोरों और वंचितों को स्कूल-कॉलेज या दफ्तरों-फैक्टरियों से कोई काम न हो उनके लिए तो आरक्षण नीति एक धराऊ गहना ही रह जाता है, जिसे न पहनते बनता है न फेंकते।

- See more at: http://www.jansatta.com/politics/jansatta-editorial-politics-over-social-census-data/35055/#sthash.MwPvkxYp.dpuf


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