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न्यूज क्लिपिंग्स् | जयप्रकाश नारायण : हमेशा प्रासंगिक रहेंगे लोकनायक के आदर्श

जयप्रकाश नारायण : हमेशा प्रासंगिक रहेंगे लोकनायक के आदर्श

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published Published on Oct 11, 2017   modified Modified on Oct 11, 2017
जन्म तिथि : 11 अक्तूबर,1902

जन्म स्थान : सिताबदियारा, यूपी

मृत्यु : 8 अक्टूबर, 1979

स्थान : पटना, बिहार

पिता : देवकी बाबू

माता : फूलरानी देवी

पत्नी : प्रभावती देवी

शिक्षा : एम. ए (समाजशास्त्र) कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (साल 1922 से 1929 के बीच), बर्कले, विसकांसिन विश्वविद्यालय

जेल यात्रा : 7 मार्च, 1940 को ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें हजारी बाग जेल में डाल दिया, वे लाहौर की काल कोठरी और आगरा सेंट्रल जेल में भी कैद रहे.

पुरस्कार : भारत रत्न, रेमन मैग्सेसे

स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वतंत्र भारत की राजनीति में जिन महान नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभायीं, उनमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण का नाम प्रमुख है. सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान वे ब्रिटिश शासकों की हिरासत में रहे, तो दशकों बाद आजाद हिंदुस्तान की सरकार ने उन्हें आपातकाल के दौरान गिरफ्तार किया. देश और देश की जनता के उत्थान के लिए समर्पित जेपी ने हमेशा लोकतांत्रिक मूल्यों को मान दिया. आजादी के बाद वे बड़े-बड़े पद हासिल कर सकते थे, पर उन्होंने गांधीवादी आदर्शों के अनुरूप जीना चुना. जब उन्हें लगा कि सत्ता निरंकुशता और भ्रष्टाचार से ग्रस्त हो रही है, तो वे फिर कूद पड़े संघर्ष के मैदान में. उनके आदर्शों को बार-बार याद करने और उन्हें मौजूदा वक्त में फिर से प्रतिष्ठित करने की बड़ी जरूरत है. जेपी की जयंती पर उनकी स्मृति में यह विशेष प्रस्तुति...

जालियांवाला बाग नरसंहार के विरोध में ब्रिटिश शैली के स्कूलों से पढ़ाई छोड़कर बिहार विद्यापीठ से उच्च शिक्षा पूरी की. 1948 में आचार्य नरेंद्र देव के साथ मिलकर ऑल इंडिया कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की. बाद में वे चुनावी राजनीति से अलग होकर विनोबा भावे के भूदान आंदालन से जुड़ गये. आपातकाल के िवरुद्ध आंदोलन कर केंद्र में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनवाने में निर्णायक भूमिका निभायी.

देश को उद्वेलित करने की शक्ति जेपी में ही थी

सच्चिदानंद सिन्हा

वरिष्ठ समाजवादी विचारक

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बाद अगर लोगों को उद्वेलित करने की क्षमता किसी में थी, तो वह लोकनायक जय प्रकाश नारायण (जेपी) थे. 1940 के बाद से जीवन के अंत तक अलग-अलग मौकों, आंदोलनों व मुहिम में जेपी केंद्रीय भूमिका में रहे. वह जिस काम में हाथ डालते थे, उसको पूरा करते थे.

आठ अगस्त, 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ, तो कांग्रेस के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी होनी शुरू हो गयी. उस समय एक देश में नेतृत्वहीनता की स्थिति बन गयी थी. उसी माहौल में जेपी, योगेंद्र शुक्ल समेत अन्य नेता जो हजारीबाग जेल में बंद थे, उन लोगों ने योजना बनायी और जेल से बाहर निकले. वहां से निकलने के बाद जेपी ने दो चिट्ठियां जारी कीं. इनमें एक थी, लेटर टू ऑल फाइटर्स ऑफ फ्रीडम, जिसमें उन्होंने एक मार्गदर्शन देने की कोशिश की थी.

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जैसे भी आंदोलन की बात की थी, उसमें कहीं गांधीजी के अहिंसावादी आंदोलन का जिक्र नहीं था. इसके बाद उन्होंने भूमिगत आंदोलन को संगठित करने की कोशिश की. हम लोग जेपी के प्रभाव में उसी समय आये थे. हम तब नौवीं के छात्र थे. स्कूलों और कॉलेजों में गुप्त रूप से संगठन बनाने का काम शुरू हुआ. पर्चे छपते थे और स्कूलों में बांटे जाते थे.

हम लोगों के पास भी पर्चे व पोस्टर आते थे. रात में जब सब लोग सो जाते थे, तब हम लोग पर्चा बांटते थे. व्यक्तिगत अनुभव है. हम लोग बीबी कॉलेजिएट में पढ़ते थे, और हमारे हॉस्टल के सामने आर्यसमाज का मंदिर था. वहां के लोग हम लोगों के लिए लेई बना कर देते थे. उसी से हम लोग रात के समय शहर में पोस्टर चिपकाते थे. ऐसा ही पूरे देश में हो रहा था.

इसी के बाद जेपी को अगस्त क्रांति के अग्रदूत के रूप में माना जाने लगा. महत्मा गांधी तो उस आंदोलन के नेता थे ही, लेकिन जब सब कुछ शांत सा लगता था, उस समय जेपी ने एक चिंगारी जलायी थी और देश में नया माहौल बनाया था.

जेपी ने यह कोशिश की थी कि आंदोलन सशक्त रूप धारण करे. इसी के तहत कुछ लोगों को लेकर नेपाल में आजाद दस्ते का गठन किया था, जहां लाठी से लेकर हथियार तक चलाने की ट्रेनिंग दी जाती थी.

इसी क्रम में एक बार नेपाल की पुलिस ने जेपी और लोहिया समेत कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया और हनुमान नगर की जेल में बंद कर दिया. वहां से कई किलोमीटर की दूरी पर आजाद दस्ते का ट्रेनिंग कैंप था, जहां से लोग दौड़ते हुए आये और जेल के संतरी की हत्या करके जेपी समेत अन्य नेताओं को मुक्त कराया था. दस्ते में हाजीपुर के सीताराम बाबू भी थे.

सोशलिस्ट पार्टी में बाद में लोग आये. पहले जो लोग थे, वे अगस्त क्रांति से ही निकल कर आये थे. उस समय पार्टी का बहुत विस्तार हुआ था. हम लोगों को अगस्टर्स कहा जाता था. शुरू में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी थी, जो कांग्रेस के भीतर थी, लेकिन, 1947 में कांग्रेस ने तय कर लिया कि उसके भीतर कोई समूह नहीं रह सकता है. इसके बाद पहली बार कांग्रेस के बाहर आकर सोशलिस्ट पार्टी बनी, जिसका अलग से संविधान बना. इसमें जेपी की भूमिका महत्वपूर्ण थी.

पुरानी सोशलिस्ट पार्टी में जो लोग थे, उनमें मुख्यरूप से मार्क्सिस्ट और लेनिनिस्ट थे, कुछ और लोगों भी थे. उस समय लोकतंत्र के बारे में बहुत स्पष्टता नहीं थी. सोशलिस्ट पार्टी बनी, तो सब चीजें स्पष्ट करनी थीं.

इसके बीच में रूस में जो हुआ, वहां स्तालिन की तानाशाही व्यवस्था पैदा हुई, तो बड़े नेताओं की हत्या कर दी गयी. कुछ को देश से निकाल दिया गया, तो इससे एक संशय पैदा हुआ. जिस समाजवाद की बात हम लोग करते हैं, जो मूलत: मार्क्सवादी विचार था, उससे क्या समतामूलक समाज की स्थापना होगी? लेकिन, जेपी ने उसे काफी स्पष्टता प्रदान की. तय किया गया कि हम लोग रूस की व्यवस्था से अलग जाकर लोकतांत्रिक समाजवाद के रास्ते पर जायेंगे. यह पहली बार था कि लोकतांत्रिक समाजवाद की बात हुई. इसमें जेपी की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी.

नयी सोशलिस्ट पार्टी बनी तो, यह भी सवाल उठा कि सोवियत यूनियन की तानाशाही विकृति आयी है. उसके पीछे क्या कारक थे? इसमें यह बात सामने आयी कि वहां पर जो कम्युनिस्ट पार्टी बनी थी, वह बहुत केंद्रीकृत थी.

थोड़े लोगों के हाथ में पूरा संगठन था. उस समय जो सोशलिस्ट पार्टी थी, वह कैडर आधारित पार्टी थी. पार्टी में शामिल होने के लिए लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था. सदस्यता सीमित थी, तब पार्टी के ढांचे में परिवर्तन की बात चली, ताकि सोवियत यूनियन जैसी तानाशाही पार्टी में नहीं आये. इसी बीच युद्ध खत्म होने के बाद इंगलैंड में लेबर पार्टी की सरकार बन गयी थी. वहां काफी बड़े प्रयोग हुए. जैसे हेल्थ सर्विस में, जिसे आज भी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है.

लेबर पार्टी की तर्ज पर सोशलिस्ट पार्टी का भी संविधान बनाने का फैसला लिया गया. जिसमें दो तरह की सदस्यता का प्रस्ताव रखा गया. एक साधारण सदस्य और दूसरे संबद्ध सदस्य, जो किसान सभा से जुड़े थे. इसमें जेपी का बड़ा हाथ था. इसका काफी लोगों ने विरोध भी किया था. उनका कहना था कि इससे पार्टी की क्रांतिकारिता खत्म हो जायेगी. विरोध के बाद भी नये संविधान को मान्यता मिल गयी.

इस तरह से कांग्रेस के समय शुरुआत से और फिर बाद में नये ढंग से सोशलिस्ट पार्टी को बनाने में जेपी की महत्वपूर्ण भूमिका हुई, लेकिन 1952 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी को बड़ी विफलता हाथ लगी. इससे संगठन बनाने के संकल्प को गहरा धक्का लगा और तब हुआ कि संगठन को बनाना है, तो कुछ और समूहों के साथ मिल कर चलना होगा. तब किसान मजदूर प्रजा पार्टी, जो आचार्य कृपलानी चलाते थे, उस पार्टी में विलय की बात आयी.

तब दोनों को मिला कर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ. विडंबना यह हुई कि पार्टी तो बन गयी, लेकिन जेपी खुद पार्टी से अलग हो गये. उन्होंने कहा कि अब हम राजनीति नहीं करेंगे. नयी पार्टी के कृपलानी जी अध्यक्ष बने और लोहिया जी महामंत्री.

जो लोग जेपी के प्रभाव से समाजवादी आंदोलन में आये थे, उनके लिए जेपी का राजनीति से अलग होना बहुत बड़ा झटका था. इसके बाद प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को साथ लेकर चलना बड़ा कठिन था. कुछ दिनों बाद पार्टी टूट गयी. लोहिया जी अलग हो गये. हम लोग लोहिया जी के साथ हो गये. हमारा मानना है कि समाजवादी आंदोलन को इकट्ठा करने, उसे दिशा देने में जेपी ने जितनी सफलता हासिल की, उतना कोई दूसरा नहीं हासिल कर सका. 1957 के बाद लोहिया और कृपलानी जी की पार्टियों के विलय की बात हुई थी, तब जेपी भी चाहते थे कि दोनों पार्टियां एक हों. उस समय लोहिया ने कहा था कि दोनों पार्टियां एक होंगी, लेकिन उसे चलाने के लिए तुम्हारा (जेपी) होना जरूरी है.

जेपी और लोहिया जी के बीच भी मतभेद थे, लेकिन तब भी लोहिया जी यह मानते थे कि देश को हिलाने की शक्ति जेपी में ही है. यह बात एक तरह से सही भी साबित हुई.

जेपी की जो प्रतिभा थी, उसका फायदा समाजवादी नहीं उठा सके. आपको मालूम होगा कि 1970 के बाद जनता में सत्ता के प्रति जो विक्षोभ पैदा हुआ, तो फिर जेपी आगे आये और छात्र आंदोलन, जिसे जेपी मूवमेंट ही कहा जाता है, उसका नेतृत्व किया. छात्र आंदोलन की उपलब्धियां भी थी.

इमरजेंसी आयी और उसके खिलाफ जब शक्ति इकट्ठा करने की जरूरत महसूस की गयी, तब भी जेपी की पहल पर सब पार्टियां इकट्ठा हुईं और जनता पार्टी बनी, चुनाव के बाद जिसकी सरकार बनी. (शैलेंद्र से बातचीत पर आधारित)

लोकनायक के विचार

- एक लोकतांत्रिक सरकार लोगों का प्रतिनिधित्व करती है और इसके कुछ सिद्धांत होते हैं, जिसके अनुरूप वह कार्य करती है. भारत सरकार किसी को गद्दार नहीं करार दे सकती, जब तक पूरी कानूनी प्रक्रिया से ये साबित न हो जाये कि वह गद्दार है.

- मैं यह कहना चाहूंगा कि देश के नेता जनता के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं. नेतृत्व करना नेताओं का काम है, लेकिन उनमें से ज्यादातर इतने डरपोक हैं कि अलोकप्रिय नीतियों पर वे सच्चाई बयान नहीं कर सकते हैं और अगर ऐसे हालात पैदा हुए, तो जनता के आक्रोश का सामना नहीं कर सकते हैं.

- मेरी रुचि सत्ता के कब्जे में नहीं, बल्कि लोगों द्वारा सत्ता के नियंत्रण में है.

- एक हिंसक क्रांति हमेशा किसी न किसी तरह की तानाशाही लेकर आयी है. क्रांति के बाद धीरे-धीरे एक नया विशेषाधिकार-प्राप्त शासकों एवं शोषकों का वर्ग खड़ा हो जाता है, लोग एक बार फिर जिसके अधीन हो जाते हैं.

- अगर आप सचमुच स्वतंत्रता और स्वाधीनता की परवाह करते हैं, तो बिना राजनीति के कोई लोकतंत्र या उदार संस्था नहीं हो सकती. राजनीति के रोग का सही और मारक उपाय अधिक और बेहतर राजनीति ही हो सकती है. राजनीति का अपवर्जन नहीं.

जेपी ने िलखीं अनेक किताबें

जयप्रकाश नारायण ने अनेक किताबें लिखी थीं. उनके लेखों, साक्षात्कारों और भाषणों के संग्रह भी कई खंडों में उपलब्ध हैं. अनेक विद्वान लेखकों और जेपी के समकालीनों ने भी उन खूब लिखा है. इनमें से बहुत सी किताबें हिंदी समेत विभिन्न भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं. जेपी द्वारा रचित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें-

- व्हाॅइ सोशलिज्म (1936)

- टूवाॅर्ड्स स्ट्रगल (1946)

- इनसाइड लाहौर फोर्ट (1947)

- फ्रॉम सोशलिज्म टू सर्वोदय (1957)

- टूवाॅर्ड्स ए न्यू सोसाइटी (1957)

- जेपीज जेल लाइफ (निजी पत्रों का संग्रह) (1977)

- टूवार्ड्स टोटल रिवोल्यूशन (1978)

जेपी पर लिखी गयीं महत्वपूर्ण पुस्तकें

रेड फ्यूजिटिवः जयप्रकाश नारायण - एचएल सिंह (1946)

लाइफ एंड टाइम ऑफ जयप्रकाश नारायण - जेएस ब्राइट (1946)

लोकनायक जयप्रकाश नारायण - सुरेश राम (1974)

जयप्रकाश नारायणः ए पॉलिटिकल बायोग्राफी - अजीत भट्टाचार्य (1975)

जेपीः हिज बायोग्राफी - एलन एंड वेंडी स्कार्फ (1975)

हू इज दिस मैन - मीनू मसानी (1975)

लोकनायक जयप्रकाश नारायण - फारूक अरगली (1977)

बिहार शोज द वे (चित्रावली) रघु राय एंड सुनंदा दत्ता रे (1977)


http://www.prabhatkhabar.com/news/vishesh-aalekh/ideas-politics-jp-jayaprakash-narayan-country/1067516.html


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