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न्यूज क्लिपिंग्स् | जहां विचारों की कमी है- अपूर्वानंद

जहां विचारों की कमी है- अपूर्वानंद

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published Published on Jan 30, 2013   modified Modified on Jan 30, 2013
जनसत्ता 30 जनवरी, 2013: जयपुर साहित्य समारोह में आशीष नंदी के वक्तव्य के कारण उनके खिलाफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति उत्पीड़न संबंधी कानून के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया गया है। बल्कि कहना ठीक होगा, मुकदमे दर्ज किए गए हैं, राजस्थान और उसके बाहर भी। अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग ने उनकी अब तक गिरफ्तारी न किए जाने पर नाराजगी जाहिर की है। वाम, दक्षिण, मध्यमार्गी, हर प्रकार के राजनीतिक दल ने उनकी भर्त्सना की है। कुछ दलित समूहों ने उनके विरुद्ध प्रदर्शन किए हैं।
एक वामपंथी छात्र संगठन ने चारों तरफ आशीष नंदी के जातिवादी ‘घृणा-प्रचार’ की भर्त्सना करते हुए पोस्टर लगाए हैं। जातिवादी और घृणा-प्रचार शब्दों के लापरवाह इस्तेमाल पर वह शायद कभी सोचे! यह बात जरूर है कि इस बार कई दलित बुद्धिजीवियों ने इस अतिवादी प्रतिक्रिया से असहमति जताई है और कहा है कि नंदी के इस वक्तव्य पर बहस की जानी चाहिए। लेकिन इन सबसे इस पूरे प्रसंग के व्यापक अभिप्राय की, इसकी अपनी क्षणिकता से बाहर निकल कर, पड़ताल उपयोगी होगी।
अब तक भारत में लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों को इसका अभ्यास पड़ चुका होना चाहिए कि वे जो कुछ भी करते हैं, अब वह सृजन, वाद-विवाद या विचार-विमर्श मात्र के वृत्त में नहीं देखा जाएगा, भारतीय दंड संहिता के आधार पर भी उसकी जांच होगी। और वे यह भी जानते हैं कि उन पर मत व्यक्त करने के अधिकार के लिए उन क्षेत्रों के अपने अनुशासन की भाषा में दीक्षित होना आवश्यक नहीं रह गया है। साथ ही, इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम की सर्वव्यापकता के कारण इस प्रकार का विचार-विमर्श विशेषज्ञता के दायरे से निकल कर फौरन ही खबर की दुनिया में पहुंच जाता है। 
कहा जा सकता है कि तकनीक के परिष्कार ने अंतत: बौद्धिक लोक का प्रसार किया है। इसके लाभ हैं तो नुकसान भी। आखिर अब लेखक, कलाकार जितना जाना-पहचाना जाता है, उतना पहले कभी नहीं था। लेकिन उससे अब विचार की नहीं, बयान की अपेक्षा की जाती है। अभी बार-बार कहा भी जा रहा है कि आशीष नंदी ने दलित विरोधी बयान दिया। जो विरोध हो रहा है, वह उनके उस ‘बयान’ का है, जो पूरी बहस में उनके द्वारा व्यक्त विचार का वह अंश मात्र है जो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम ने तैयार किया है और बार-बार प्रसारित कर जिसे स्थापित कर दिया है।
मीडिया के प्रभुत्व वाले इस युग में वह (विचारक) अब प्रभावी तकनीक द्वारा निर्धारित क्षण-खंड में अंट पाने के लिए अपने विचार को तराशने को बाध्य है। उसके विचार की बुनियादी समय की इकाई का निर्धारण वे सर्वेक्षण करते हैं जो समझाते हैं कि दर्शक का ध्यान कितने सेकंड तक एक बिंदु पर टिक पाता है। विचार से अधिक विचार की अदायगी का महत्त्व है।
विचार को समझने के लिए अब किसी विशेष अर्हता की भी आवश्यकता नहीं रह गई है, बुनियादी साक्षरता की शर्त भी नहीं। दूसरे, विचार पर ही यह जवाबदेही है कि वह हर किसी का ध्यान अपनी ओर खींचे। एक स्तर पर वह अत्यंत असुरक्षित हो गया प्रतीत होता है। इसलिए उसका नाटकीय या आक्रामक होना अब अधिक वांछनीय माना जाता है, उसके जटिल होने के मुकाबले। जटिलता स्वीकार्य नहीं है, इसलिए हर विचार को अपने आप में संपूर्ण भी होना है। उसका संदर्भ वह आप है। यहां तक कि उसी विचारक का पहले का लिखा हुआ भी उसकी सुरक्षा के लिए काम नहीं आ सकता।
इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम के युग की गति से तालमेल बिठाने वाले विचारों के अदाकार भी पैदा हुए हैं। भारत में आशीष नंदी इस इलेक्ट्रॉनिक दुनिया में उतने ही  मजे से रहते रहे हैं, जितना सेमिनारों और शोध-पत्रिकाओं और पुस्तकों के संसार में। दूसरे शब्दों में वे विचारों के अदाकार हैं और इस काम में उन्हें मजा भी आता है। नंदी की पैदाइश तो इलेक्ट्रॉनिक युग की नहीं है, लेकिन उन्हें इस टेक्नोलॉजी से टकराहट में आनंद आता है। वे इसके लिए उस धैर्य को भी छोड़ने को तैयार हैं, जो लिखे हुए को पढ़ने की शर्त है। उन्हें इसका पता है कि उनका दर्शक आधे घंटे का भी है और एक मिनट का भी। इसलिए विचार की हर इकाई स्वत: संपूर्ण है। और वह एक ऐसा बयान बन जाता है जिसे समझने के लिए श्रोता या दर्शक उसके आगे या पीछे कुछ और देखने को बाध्य महसूस नहीं करता। 
यह पूरा प्रकरण अपने-आप में बुद्धिजीवियों और समाज के बीच के रिश्ते की नजाकत और उससे जुड़ी मुश्किलों को समझने का एक मौका तो देता ही है, उसके पहले क्षणजीवी मीडिया ब्रह्मांड में बौद्धिक विचार-विमर्श की कठिनाई के बारे में सोचने का अवसर भी मुहैया कराता है।
अभी, जब ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं, नंदी का पूरा वक्तव्य, उनके स्पष्टीकरण के साथ सामने आ चुका है। जो वीडियो-क्लिप प्रकाशित है, उसमें वे यह कहते देखे जा सकते हैं कि हालांकि यह कहना फूहड़ जान पड़ेगा लेकिन यह तथ्य है कि प्राय: पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं और जब तक ऐसा है, भारतीय गणतंत्र जिंदा है। उन्होंने व्यंग्यपूर्वक कहा कि अब तक बंगाल सबसे साफ-सुथरा, भ्रष्टाचार-विहीन राज्य रहा है, लेकिन वहां सत्ता में पिछड़े सामाजिक समुदायों, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की भागीदारी नगण्य रही है। यह कोई स्वतंत्र वक्तव्य नहीं था। ‘विचारों का गणतंत्र’ विषय पर हो रही परिचर्चा में वे तरुण तेजपाल के इस वक्तव्य से सहमति जता रहे थे कि भारत जैसे पारंपरिक गैर-बराबरी वाले समाज में, जहां प्राकृतिक और सार्वजनिक संसाधनों पर उच्च जातियों का कब्जा रहा है, भ्रष्टाचार बराबरी लाने वाला साबित हो सकता है।
तरुण तेजपाल के साथ आशीष नंदी संभवत: यह बताना चाह रहे थे कि पिछले दिनों जो भ्रष्टाचार-विरोधी शुचितावादी राजनीति मुखर हुई है, उसके खतरे क्या हैं! इसके निशाने पर उपर्युक्त जाति-समुदायों से जुड़े नेता आसानी से आ जाएंगे और इसके माहिर उच्च जाति समूहों के लोग बच निकलने में कामयाब हो जाएंगे। लेकिन क्षणजीवी मीडिया की दिलचस्पी नंदी के वक्तव्य के अंश मात्र में थी जिसमें वे अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े समुदायों को सबसे अधिक भ्रष्ट कहते हैं। विवाद पैदा करने के लिए इतना ही पर्याप्त था। इसके बाद टीवी चैनलों ने राजनेताओं से एक-एक कर इस अंश मात्र पर उनकी प्रतिक्रिया मांगनी शुरू की। और उन सबने अपेक्षित प्रतिक्रियाएं दीं।
हम इन नेताओं पर आरोप लगा रहे हैं कि उन्होंने एक जटिल प्रसंग का सरलीकरण करके हड़बड़ी में प्रतिक्रिया की। लेकिन हम इसे भी समझने की कोशिश करें। राजनेता और राजनीतिक दल कह सकते हैं कि उन्होंने उस हिस्से पर राय दी है जो उनके सामने लाया गया। यह उनका काम न था कि नंदी जिस परिचर्चा में थे, उसके पूरे ब्योरे हासिल करें। दूसरे, पिछले दो साल में जो भ्रष्टाचार-विरोधी वातावरण बना है, उसमें वे इसका जोखिम नहीं ले सकते कि ‘सामाजिक बराबरी लाने के उपक्रम’ के रूप में ही सही, भ्रष्टाचार से उनकी संलग्नता का कोई संकेत किया जाए और वह भी आशीष नंदी जैसे किसी विश्वविख्यात बुद्धिजीवी के साक्ष्य के सहारे। इसे फौरन अस्वीकार करना उनकी बाध्यता थी।
राजनीतिक त्वरित प्रतिक्रिया को ऐसे भी समझा जा सकता है कि हर दल और नेता अपना जनाधार रोज-रोज संगठित करता है, उसे दृढ़ और विस्तृत करने का प्रयास करता है। पिछड़ी और दलित राजनीति, किसी भी अस्मिता आधारित राजनीति की तरह, अत्यंत ही प्रतियोगी क्षेत्र है। एक स्तर पर यह सांस्कृतिक राजनीति है। इस सांस्कृतिक राजनीति में प्रतीकात्मक और संकेतात्मक कार्यों का बहुत महत्त्व है, कई बार वे ही ज्यादा जरूरी मालूम पड़ते हैं। पिछले तीन दशकों की राजनीति प्रतीकात्मक कार्रवाइयों के सहारे चलती रही है।
आशीष नंदी के ‘बयान’ की फौरन भर्त्सना न करके अपने प्रतियोगी से पिछड़ जाने का खतरा कौन मोल ले! और यह प्रतिक्रिया भी औरों से अधिक तीखी और आक्रामक दिखनी चाहिए। इसीलिए, दलितों की मानी हुई नेता ने जब नंदी पर कानून के तहत सख्त कार्रवाई की मांग की, तो दलितों को अपनी ओर आकर्षित करने में जुटी कांग्रेस पार्टी के नेता इसमें क्यों पीछे रहते! कम से कम एक संगठन के प्रसंग में हमें पता है कि राजस्थान में एफआइआर दर्ज कराने के लिए उस पर भारी दबाव था। इस वजह से, हिचकिचाहट के बावजूद, अपने जनाधार की रक्षा के लिए उसे यह एफआइआर करानी पड़ी। गैर-दलित और वामपंथी संगठनों की तत्परता के पीछे भी पिछड़ी और दलित अस्मिता को अपनी ओर खींचने की बाध्यता है, इसलिए उनसे आशीष नंदी और बौद्धिकता के प्रति सहानुभूति की अपेक्षा उनके साथ अन्याय है।
इस प्रसंग में यह बहुत साफ है कि मामला समुदाय विशेष की भावनाओं के तुरंत आहत होने का नहीं, एक आहत-भाव को पैदा करने और फिर उसके इर्दगिर्द जन गोलबंदी करने का है। इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि हम अधिक संवेदनशील हो गए हैं। कहा यह जाना चाहिए कि अस्मिता आधारित सांस्कृतिक राजनीति में राजनेताओं के लिए यह एक कारगर अस्त्र है, और उन्हें यह कहना कि वे इसका उपयोग न करें, रण-क्षेत्र में उन्हें अरक्षित करना है। वे ऐसा कभी नहीं करेंगे।
आशीष नंदी के पक्ष में कहा जा रहा है कि वे हमेशा से वंचित समुदायों के पक्ष में रहे हैं और उनके इस इतिहास से विलग करके उनके इस वक्तव्य को देखना अनुचित है। लेकिन सांस्कृतिक राजनीति के लिए यह इतिहास प्रासंगिक नहीं है क्योंकि पिछड़ों और दलितों के प्रति पूर्वग्रह के एक और नमूने के तौर पर नंदी का यह वाक्यांश अभी उपयोगी है। यह दलित क्रोध को संगठित करने के लिहाज से काम का है और इसलिए अभी इसके साथ वही व्यवहार किया जाएगा जो स्कूली किताबों में तथाकथित दलित विरोधी कार्टूनों के साथ किया गया था। नंदी पर क्रोध जाहिर करने वालों को इसकी सीमित उपयोगिता का पता है। कार्टून विवाद में भी उनकी दिलचस्पी किताबों और दलित बच्चों के रिश्ते में नहीं थी। उस समय उसने एक प्रतीकात्मक कर्तव्य निभाया, इसके बाद उसे खींचने में उनकी रुचि नहीं थी।
तो क्या यह मान कर हम वक्त गुजरने की प्रतीक्षा करें कि आखिर यह गुबार उतर जाएगा? एफआइआर एक ठोस कार्रवाई है, प्रतीकात्मक मात्र नहीं। वह अपनी रफ्तार से ही सही, शिकार का पीछा करती है। उसके नतीजे भी ठोस हैं। हुसेन को इसके कारण भारत छोड़ देना पड़ा, आशीष नंदी को 2007 में लिखे एक लेख के कारण गुजरात में दायर राजद्रोह के मामले में, उन्हें गिरफ्तारी से बचाने के लिए, उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। तसलीमा नसरीन इस वजह से गुमनामी में रह रही हैं। इसलिए नंदी के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों को फौरन रद््द कराने के लिए अगर उच्चतम न्यायालय तक जाना हो तो जाना चाहिए।
यह भी साफ  है कि अपील सिर्फ दलितों और पिछड़ों से नहीं की जानी है कि वे नंदी के इस ‘बयान’ को आपराधिक न कहें। जैसा पहले कहा गया, लगभग हर दल ने यह किया है। और तो और जनवादी लेखक संघ ने भी  नंदी के बयान की ‘‘पूरी तरह भर्त्सना’’ करते हुए उनके दृष्टिकोण को ‘‘अवैज्ञानिक’’ बताया है। लेखकों का यह संघ नंदी के बयान को ‘‘लेखक के बौद्धिक दिवालिएपन का सबूत’’ बताता है, ‘‘जो (बयान) पूरी तरह मनुवादी सोच के तहत दलितों और पिछड़ी जातियों के प्रति अपनी नफरत का इजहार करता है’’।
शायद समय आ गया है कि हम सब, नंदी समेत, सामुदायिक अस्मिताओं के संगठन के प्रति-पक्ष को भी देखें और उनके बरक्स बौद्धिक रूप से कुछ दशकों से फैशन से बाहर चली गई (पाश्चात्य आधुनिकता की संतान) व्यक्ति की बुद्धि और विवेक को फिर से बहाल करने का प्रयत्न करें। यह व्यक्ति-विवेक शायद कुछ संतुलन लाने का काम करे, जैसा कि कार्टून प्रसंग में दिखा और इस प्रसंग में भी दिख रहा है, जब कुछ स्वर व्यक्तियों की तरह अपनी सामुदायिक अस्मिता के दबाव का मुकाबला कर रहे हैं। इसका अर्थ यह होगा कि हम बहु-निंदित और तिरस्कृत आधुनिकता के बचे हुए उपयोग पर एक बार फिर से विचार करें।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/37781-2013-01-30-05-38-43


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