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न्यूज क्लिपिंग्स् | जहां वे सेतु बनते हैं- मिहिर पंड्या

जहां वे सेतु बनते हैं- मिहिर पंड्या

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published Published on Feb 1, 2013   modified Modified on Feb 1, 2013
जनसत्ता 1 फरवरी, 2013: गणतंत्र दिवस की सुबह। जयपुर साहित्य उत्सव के उस सत्र का शीर्षक था ‘विचारों का गणतंत्र’। आशीष नंदी ने पहले उदाहरण देकर विस्तार से समझाया कि क्यों एक सवर्ण अभिजात का भ्रष्टाचार हमारी बनाई ‘भ्रष्टाचार’ की मानक परिभाषाओं में फिट नहीं होता और क्यों सिर्फ दलित का भ्रष्टाचार नजर आता है। इसलिए जब उन्होंने यह कहा कि भ्रष्टाचारियों का बहुमत वंचित जातियों से आता है तो उन्होंने अपनी पुरानी बात को दोहराना जरूरी नहीं समझा कि यहां दोष उनका नहीं, ‘भ्रष्टाचार’ की उस भ्रामक परिभाषा का है, जिसमें अभिजात का भ्रष्टाचार फिट ही नहीं होता। इसे वे अंत में जवाब देने के लिए मिले दो मिनट के समय भी दोहराते रहे कि उनके उक्त कथन को दो मिनट पहले कही बात के संदर्भ में देखा जाए।

जैसा नंदी ने बाद में भी कहा, और उनकी अध्ययन शैली से परिचित लोग यह जानते भी हैं, उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि भ्रष्टाचार की कोई जाति होती है, बल्कि वे भ्रष्टाचार को पहचानने और निर्धारित करने की जो प्रचलित समाजदृष्टि है, उसके पीछे छिपी जातिवादी मानसिकता को पहचानने की ओर इशारा कर रहे थे। यह तर्क प्रणाली समझने में थोड़ी जटिल हो सकती है, लेकिन इसकी कोई वजह नजर नहीं आती कि ठहर कर, जरा-सा समय देने पर भी यह बात समझ न आए।

फिर उनका कहना कि हमारे नितांत गैर-बराबर समाज में भ्रष्टाचार कई बार उसे कुछ मानवीय बनाने का काम करता है, एक विचारोत्तेजक अवधारणा है, जिससे आप असहमत हो सकते हैं, बहस कर सकते हैं। लेकिन यही नंदी की खूबी भी है, जिसे पहचाना जाना चाहिए। वे समाज में ‘मान्य’ और ‘प्रचलित’ तर्क-शृंखलाओं को उनके सिर के बल खड़ा कर देते हैं और कितनी ही बार इस प्रक्रिया में विचार के अपने समय और समाज को समझने के नए, अनछुए रास्ते हमारे सामने खुलते हैं। इसी सत्र में एक अत्यंत विचारोत्तेजक बात उन्होंने कही कि हमारे गणतंत्र में बराबरी का मैदान सिर्फ खेल, मनोरंजन, अपराध और राजनीति में बचा है। इसके समर्थन में उन्होंने कुछ और हंगामाखेज उदाहरण पेश किए।

उन्होंने आशुतोष के भारतीय राजनीति में वंशवाद को सबसे बड़ा खतरा बताए जाने पर पलट कर याद दिलाया कि नेहरू वंशावली की बात करते हुए हमें यह ऐतिहासिक तथ्य कभी नहीं भूलना चाहिए कि इंदिरा गांधी, नेहरू के रहते मौजूद थीं, लेकिन तब भी उन्हें नेहरू का उत्तराधिकारी नहीं बनाया गया था। नेहरू के जाने और इंदिरा के आने में समय का बड़ा और साफ दिखाई देने वाला अंतर था। और वे तो उन्हें ‘भोला’ समझ कर सिंडिकेट वाले अपने इस्तेमाल के लिए बाद में सत्ता में ले आए थे। बाकी अन्य की तरह इंदिरा ने भी अपनी सत्ता लड़ कर जीती थी। वैसे ही जैसे मुलायम और लालू प्रसाद ने।

आप उनसे बहस करना चाहें तो जरूर करें, जैसे पैट्रिक फ्रेंच ने उनकी बात को काटते हुए एक वाजिब तर्क रखा कि उनके 2004 और 2009 की लोकसभाओं के अध्ययन में यह बात उभर कर सामने आई है कि राजनीति में वंशवाद एक हालिया प्रक्रिया है, जो सबसे ज्यादा पैंतालीस साल से कम उम्र के सांसदों के समूह में दिखाई दे रहा है, और इसीलिए उसे सत्तर या नब्बे के दशक का उदाहरण देकर काटा नहीं जा सकता। लेकिन उसी अध्ययन को पढ़ने पर मैं यह भी जानता हूं कि भारत की संसद आज भी हिंदुस्तान का सबसे विविधता भरा व्यक्ति समूह है, जिसमें हर तरह का वर्ग, जाति, लिंग, इलाकाई, भाषाई वैविध्य मिलता है, जो अपने देश में अन्य कहीं देखना आज भी दुर्लभ है। लेकिन इस सत्र से बाहर निकल कर देखें तो आशीष नंदी के विचार सदा से कई असुविधाजनक सवाल हमारे अभिजन समूह के सामने रखते आए हैं और हुआ बस इतना है कि उस सत्र ने उन्हें अचानक रास्ते के बीचोंबीच लाकर खड़ा कर दिया है।

क्या ‘भागीदारी वाला लोकतंत्र’, जिसमें सबका सत्ता में हिस्सा हो, अपने आप में कोई ऐसा लक्ष्य है, जिसे पाने के लिए लड़ा जाए? या फिर मेरे बहुत से दोस्तों की तरह आप भी इसे समतामूलक समाज की स्थापना में सहायक एक माध्यम भर, रास्ता भर मान सकते हैं।

यह एक अनंतिम बहस है, जो हमें आशीष नंदी से ही नहीं, आपस में और खुद से भी निरंतर करनी चाहिए। बेशक यहां नंदी से सहमत होने वाले कम हैं, लेकिन जैसे ही हम उनके विचारों को बिना सुने खारिज करते हैं, हम अपने देश की नब्बे के बाद की राजनीति और समाज में हो रहे परिवर्तन को जानने-समझने का एक महत्त्वपूर्ण प्रिज्म खो देते हैं। ‘तरक्की’ और ‘ह्रास’ जैसी विषम जोड़ियों में बंटे मूल्य-निर्णय देती इतिहास-दृष्टियों से बाहर निकल कर अपने समय को समझने का प्रिज्म।

‘लोकतंत्र के सात अध्याय’ पुस्तक के ‘नई राजनीतिक संस्कृति’ लेख में उन्होंने लिखा है: ‘भारतीय जनता का आधुनिक हिस्सा समझता है कि अंतत: इस देश को उदारतावादी लोकतंत्र के पश्चिम यूरोपीय अनुभव की प्रतिकृति ही बन जाना है, तभी वह सत्रहवीं सदी के ज्ञानोदय से इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दौर के प्रौद्योगिकीय पूंजीवाद तक का रास्ता तय कर सकेगा। लेकिन आधुनिकतावादियों के दायरे से बाहर के लोग देश का भविष्य इस तरह पूर्वनिर्धारित नहीं मानते। उनके लिए विज्ञान के बढ़ते कदम या विकास के दर्शनीय सोपान ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि वे अपने लोकतांत्रिक भविष्य की गारंटी को भागीदारी वाले लोकतंत्र से जोड़ते हैं।

‘भारत में विकास और आधुनिक विज्ञान-संबंधी विचारों के खिलाफ बढ़ता हुआ प्रतिरोध असल में इन विचारों और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बीच अंतर्विरोधों की ही देन है। आजादी के विचार को वैज्ञानिक तर्कबुद्धि और सफल विकास में पूरी तरह अंतर्निहित मानने वालों को यह अंतर्विरोध विनाशकारी लगता है। लेकिन जो लोग इस घिसी-पिटी धारणा की भित्ति को अपने चारों ओर दरकते हुए देख रहे हैं, उनके लिए यह स्वागतयोग्य है, क्योंकि इससे ज्ञान-प्रणालियों और सामाजिक हस्तक्षेप के तरीकों का विविधीकरण और राजनीतिकरण हो रहा है।’ तो वे यहां अपने समय को समझने के प्रचलित मुहावरों से आगे जाकर एक नई प्रस्तावना हमारे सामने रखते हैं।

यह प्रस्तावना समय के साथ हमारे लोकतंत्र में आए बदलावों को पहले से निर्धारित ‘सही’ या ‘गलत’ के वायदों में देखने का निषेध करती है, लेकिन उससे भी महत्त्वपूर्ण यह कि यह अपने समय और समाज की सिर्फ आलोचना करने के बजाय उससे एक संवाद कायम करने का रास्ता खोलती है। लेकिन ठीक प्रकृति की तरह, विचार की दुनिया में भी दुर्लभ होने के अपने खतरे हैं।

अगर आप नंदी के अतार्किक विरोध को कुछ समय के लिए अलग रख देंं तो नजर आता है कि आज उनकी विचार पद्धति के विरोध में एक ओर दलित अस्मिता से जुड़ा वैचारिक समुदाय खड़ा है और दूसरी ओर उनके विचार प्रगट करने के अधिकार का समर्थन करते हुए भी कई साथी विद्वान, जिन्हें हम मोटे तौर पर आधुनिक-प्रगतिशील-वाम खेमे से जुड़ा कह सकते हैं, भी उनकी विचारसरणि से असहमति जताते हैं। योगेंद्र यादव ने इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख में लिखा है कि नंदी की तर्कपद्धति उनका तरीका नहीं है और वे उस तर्कपद्धति को समझने में मुश्किल महसूस करते हैं।

अपूर्वानंद ने भी ‘जनसत्ता’ में अपने लेख के अंतिम हिस्से में ‘बहु-निंदित’ और ‘तिरस्कृत’ आधुनिकता के महत्त्व का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘शायद समय आ गया है कि हम सब, नंदी समेत, सामुदायिक अस्मिताओं के प्रतिपक्ष को भी देखें और उनके बरक्स बौद्धिक रूप से कुछ दशकों से फैशन से बाहर चली गई (पाश्चात्य आधुनिकता की संतान) व्यक्ति की बुद्धि और विवेक को फिर से बहाल करने का प्रयत्न करें।’

लेकिन यहां इन दो खेमों का एक साथ नंदी के विचार से असहमति जताना महज संयोग नहीं है। और यही उनके विचार को समझने का सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है। नंदी उस ‘आधुनिकता’ के विचार की आलोचना अपने लेखन और विचारों में निरंतर प्रस्तुत करते रहे हैं, जिससे ये दोनों खेमे कहीं न कहीं उम्मीद और जुड़ाव महसूस करते हैं।

जहां आज का दलित अस्मिता विमर्श के लिए तैयार नहीं है कि उसे आधुनिकता के दायरे से बाहर रख कर देखा जाए, वहीं प्रगतिशील-वाम शायद आज भी हमारी आधुनिकता की ध्वस्त परियोजना को ही वर्तमान ‘ह्रास’ का कारण देखता है और उपाय के रूप में आज भी उस आधुनिकता की किसी रूप में वापसी की उम्मीद करता है।

निस्संदेह नंदी इन दोनों से अलग हैं। उन्होंने इन विपरीत लगते विचारों में आधुनिकता के प्रति जो समान ललक दिखाई देती है उसे इतिहास में बहुत पहले पहचान लिया था। उनके उल्लिखित लेख की एक पूर्ववर्ती पंक्ति है, ‘जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, बाबा साहब आंबेडकर में कितने ही विचारधारात्मक मतभेद रहे हों, लेकिन वे तीनों एक ऐसे राज्य की स्थापना पर एकमत थे, जो सत्रहवीं शताब्दी के बाद यूरोप में पनपी राष्ट्र-राज्य की अवधारणा से थोड़ा ही अलग था। स्वाधीनता के बाद उभरे अभिजात वर्ग की राज्य संबंधी अवधारणा राजनीतिक रूप से ‘विकसित’ समाजों में प्रचलित अवधारणा से उधार ली गई थी।’ यहां आंबेडकर और नेहरू का उल्लेख है। लेकिन जो नाम यहां नहीं है, और जो उस वक्त भी इस सर्वस्वीकार्य लगते राज्य की अवधारणा संबंधी विचार के विरोध में अकेला ही खड़ा था, उसे कभी भूलना नहीं चाहिए।

तर्कवादी आधुनिक जवाहरलाल नेहरू और बाबासाहेब आंबेडकर के होते भी अपनी नितांत अतार्किक लगती धारणाओं और अविश्वसनीयता, अव्यावहारिकता या सनक की हद तक जाते लगते अद्वितीय विचारों और निदानों के साथ जैसे गांधी का होना अत्यंत जरूरी था, ठीक वैसे ही हमारे समय और समाज को समझने के लिए प्रगतिशील वाम और दलित अस्मिता के बीच आशीष नंदी का होना भी बेहद जरूरी है। क्या है जो नंदी को खुद अपने अकादमिक विचारक समाज में नायाब बनाता है? विचार की दुनिया में अपने विश्वास के अनुरूप उछाल लेने (लीप आॅफ फेद) का उनका अनोखा साहस।

जैसे वीरेंद्र सहवाग खेल में जोखिम उठा कर अपनी टीम को असंभव लगती जीतों तक पहुंचाते रहे हैं, वैसे ही नंदी वह वैचारिक ‘रिस्क’ लेते हैं, जिसे धारण करने की हिम्मत और कुव्वत शायद और किसी में नहीं, लेकिन इसी वजह से उनके पाठक उस असंभव लगते समझ के बिंदु तक पहुंच पाते हैं, जहां से अपने समय और समाज को देखने का एक नितांत भिन्न, लेकिन बहुत साफ नजरिया मिलता है। वे अपनी दुर्लभ कल्पनाशीलता से विचार की नई जमीन तोड़ते हैं। वे अपने अध्ययनों में तथ्यों के साथ मान्यताओं, लोक विश्वासों, सामुदायिक प्रतीकों और लोकप्रिय अफवाहों तक को शामिल करते हैं और हम आधुनिक शिक्षा पाए शोधकर्ताओं को अपनी असहमति में खड़ा कर लेते हैं। लेकिन मानना होगा कि इसी वजह से वे कई बार समाज की उन बंद गिरहों को खोल पाते हैं जिन तक अकादमिक अध्ययन के सख्त अनुशासन में बंध कर पहुंच पाना शायद संभव नहीं होता। डीआर नागराज ने उनके बारे में कभी कहा था, ‘नंदी के बारे में अंतिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। वे अनुमान से पूरी तरह परे हैं।’

निश्चितताओं के काल में एक अनिश्चित विचार का होना जरूरी है। उनका होना, उनसे कहीं ज्यादा हमारे इस ‘सर्वज्ञाता’ समय के लिए, हमारे लिए जरूरी है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/37974-2013-02-01-05-28-57


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