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न्यूज क्लिपिंग्स् | झारखंड को सुराज की दरकार- अश्विनी कुमार

झारखंड को सुराज की दरकार- अश्विनी कुमार

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published Published on Nov 19, 2013   modified Modified on Nov 19, 2013

तेलंगाना  के गठन की प्रक्रिया शुरू होने और इससे जुड़े विवाद से नये राज्यों के बनने की नयी संभावनाओं का द्वारा खुला है. झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ के गठन के बाद छोटे राज्यों पर फोकस बढा. इन राज्यों के निर्माण के वक्त विकास व गवर्नेस दो मुद्दे बने. झारखंड के साथ बने अन्य दो राज्यों की मांग या निर्माण के पीछे जो भी कारण रहे हों, लेकिन झारखंड के गठन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी और उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, सामाजिक पृष्ठभूमि, और सौ साल की आदिवासी चेतना से जुड़े जनांदोलन के सवालों को विमर्श के बीच रखे बिना झारखंड का कोई लेखा-जोखा पूरा नहीं होगा.

अन्य राज्यों का गठन भले ही भाषायी आधार पर हुआ हो, लेकिन भारतीय राजनीति में, भारतीय समाज में, झारखंड का निर्माण मील का पत्थर है. यह आदिवासी जनचेतना का परिणाम था. यह सिर्फ नौकरशाही या प्रशासनिक स्तर पर की गयी पहल का नतीजा मात्र कदापि नहीं था. इसलिए झारखंड के 13वें स्थापना दिवस पर इस परिप्रेक्ष्य को भी समझना बहुत आवश्यक है.  अन्य राज्यों में उपराष्ट्रवादी चेतना (सब-नेशनलिज्म) (यहां तक की बिहार में भी, जिससे निकल कर झारखंड का गठन हुआ) रही है, लेकिन झारखंड का सबनेशनलिज्म आदिवासी चेतना से जुड़ा हुआ था. यहां लंबे समय के संघर्ष, आदिवासी आंदोलन की विरासत थी. झारखंड का गठन ऐतिहासिक उपलब्धि है, लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि गेट्रर झारखंड की मांग अभी पूरी नहीं की गयी है. आज इस आदिवासी बहुल इलाके में आदिवासी 35 फीसदी तक रह गये हैं.

इसलिए ऐतिहासिक, सामाजिक आंदोलन की पृष्ठभूमि में राज्य को नया रूप दिये जाने की प्रक्रिया को पूरा किया जाना अभी बाकी है. झारखंड को अपने गठन के काफी पूर्व से ही और अगर कहें, तो आजादी के पहले से और उसके बाद भी आंतरिक उपनिवेशवाद की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है. झारखंड के संसाधनों का केंद्र सरकार ने दोहन किया. जमशेदपुर का बनना बिहार की उपलब्धि थी, लेकिन इससे झारखंड को कोई लाभ नहीं हुआ. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम झारखंड में लगाये गये, आदिवासी बहुल इलाके में उपलब्ध प्रचुर संसाधनों का दोहन कर दूसरे राज्यों का विकास हुआ, लेकिन आदिवासियों को उसका लाभ नहीं मिला. शायद यही कारण है कि झारखंड आंदोलन से जुड़े रहे जयपाल सिंह ने संविधान सभा के समक्ष अपनी बात रखते हुए कहा था कि आज की आजादी सबसे बड़ा धोखा है. झारखंड में न सिर्फ पीएसयू और एमओयू के जरिये भू-संपदा का दोहन किया गया, बल्कि परंपरागत जीने  के तरीके को छिन्न-भिन्न करने के साथ ही विस्थापन की प्रक्रिया को भी गति मिली. आज इसी ऐतिहासिक आंतरिक उपनिवेशवाद की समस्या से जुड़ी है झारखंड में माओवाद की समस्या.

एक तरफ दूसरे राज्य विकास के दूसरे स्तर पर हैं, जबकि रघुराम राजन कमिटी की रिपोर्ट में झारखंड को पिछड़े राज्यों की श्रेणी में रखा गया है.  झारखंड को पिछड़ेपन के कारण ही बिहार से अलग होना पड़ा. आदिवासी समाज मूलरूप से समतामूलक समाज रहे हैं. समतामूलक, विकासोन्मुख झारखंड अपनी चेतना को ढूंढ़ रहा है. ऐतिहासिक विरासत और व्यवस्थागत विसंगतियों के बीच भविष्य की संभावनाओं को टटोल रहा है. विगत 13 वर्षो में झारखंड के इतिहास की चर्चा करते वक्त हमें ऐतिहासिक  परिवर्तनों को भूलने के बजाय, उन्हें याद रखने की जरूरत है.

वर्तमान झारखंड के इतिहास के ये 13 साल एक नये अभिजात्य के उदय के साक्षी बनते दिख रहे हैं, जिसमें आम जनता (पॉपुलर मास) और अभिजात्य के बीच एक तरह से संघर्ष की स्थिति बनती दिखती है और झारखंड अपनी पहचान के लिए गैंग्स ऑफ वासेपुर के रूप में अपनी छवि गढ़ता दिखता है. इस अभिजात्य में आदिवासियों का एक वर्ग भी शामिल है. इस अभिजात्य ने राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था को अपने ही सूत्रों में बांधते हुए अपराध, भ्रष्टाचार, लूटतंत्र का तानाबाना गढ़ लिया है. इस अभिजात्य ने ऐतिहासिक विरासत के रूप से शुरू हुई झारखंड के गठन की प्रक्रिया के साथ न्याय नहीं किया है. कहा जाता है कि गंठबंधन की राजनीति के इस दौर में झारखंड में जिस तरह से राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त है, उसी का नतीजा है कि झारखंड की प्रगति नहीं हो पा रही है. गंठबंधन की वजह से विकास और बेहतर शासन की प्रक्रिया को झटका लगा है.

लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि केंद्र में गंठबंधन की यही राजनीति फल-फूल रही है और अर्थव्यवस्था में भी विकास हुआ है. यहां तक कि कई सामाजिक कल्याणकारी योजनाएं, जिनमें मौजूदा सरकार की कई फ्लैगशिप योजनाएं शामिल हैं, सफलतापूर्वक लायी गयी हैं. इसी गंठबंधन की राजनीति के दौर में आर्थिक तौर पर अन्य राज्यों के बरक्स ठीकठाक प्रगति कर रहा झारखंड मानव विकास के पैमाने पर बेहतरी के लिए बनायी गयी योजनाओं को लागू करने में विफल साबित हो रहा है. यहीं राजनीतिक अभिजात्य की सबसे बड़ी विफलता सामने आती है. मूल निवासियों को जंगल और जमीन पर अधिकार नहीं दिया गया है. उनकी जमीन से कोयला निकाला जाता है, लेकिन खनिज पर उनका मालिकाना हक नहीं है. झारखंड के लोग इन संसाधनों में भागीदारी ही नहीं, मालिकाना हक चाहते हैं. 

आज तक झारखंड के किसी भी जिले को नरेगा में बेहतर काम के लिए अवॉर्ड नहीं दिया गया. खाद्य सुरक्षा कानून के बावजूद राज्य में भुखमरी से मौत आम समस्या है. आदिवासियों में गरीबी बढ़ी है. झारखंड में बीपीएल की सूची में शामिल लोगों की संख्या सर्वाधिक है.  अस्थिरता का सवाल सबसे बड़ी समस्या नहीं है. सबसे बड़ी समस्या है आदिवासी नव-अभिजात्य का गैर-आदिवासी अभिजात्य के साथ गंठजोड़. और इस गंठजोड़ से उपजे भ्रष्टाचार को हर तरह से आत्मसात करता दिख रहा विकास का मॉडल, जो राजनीतिक अवसरवाद को बढ़ावा दे रहा है. हालांकि हेमंत सोरेन के नेतृत्व में जिस तरह से युवा नेतृत्व को तरजीह मिली है, उससे एक तरह की उम्मीद भी बंध रही है कि शायद झारखंड अपने ऐतिहासिक अतीत की छांव में भविष्य की बुनियाद गढ़ने में सफल हो पायेगा. इसलिए अभी यही कहा जा सकता है कि झारखंड आजाद हुआ है, स्वायत्तता मिली है, लेकिन स्वराज और सुराज की लड़ाई अभी बाकी है. (बातचीत : संतोष कुमार सिंह)

www.prabhatkhabar.com/news/62987-story.html


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