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न्यूज क्लिपिंग्स् | झूठी, एकतरफा और मनगढ़ंत!-प्रेस काउंसिल बिहार रिपोर्ट ( क्षमा के साथ)

झूठी, एकतरफा और मनगढ़ंत!-प्रेस काउंसिल बिहार रिपोर्ट ( क्षमा के साथ)

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published Published on Apr 15, 2013   modified Modified on Apr 15, 2013
प्रेस काउंसिल
बिहार रिपोर्ट

क्षमा के साथ

भारतीय प्रेस परिषद (प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया) की किसी रिपोर्ट के लिए पहली बार यह विशेषण हमने इस्तेमाल किया कि प्रेस परिषद की बिहार रिपोर्ट झूठी है, एकतरफा है, मनगढ़ंत है या पूर्वग्रह से ग्रसित है. या किसी खास अज्ञात उद्देश्य से बिहार की पत्रकारिता और बिहार को बदनाम करने के लिए यह रिपोर्ट तैयार की गयी है. हम ऐसा निष्कर्ष तथ्यों के आधार पर निकाल रहे हैं. इस रिपोर्ट के प्रति ये विशेषण लगाते समय हमें पीड़ा है, क्योंकि प्रेस परिषद एक संवैधानिक संस्था है.

 

उसकी मर्यादा है. अपने प्रोफेशनल कैरियर में हमने अब तक प्रेस परिषद की हर मर्यादा का सम्मान के साथ पालन किया है. हालांकि बिहार पर प्रेस परिषद द्वारा तय टीम ने जो रिपोर्ट दी है, उसका जवाब तुरंत जाना चाहिए था, पर दिल्ली से हमने रिपोर्ट मंगायी. उसका अध्ययन किया. एक - एक तथ्य की जांच की. प्रभात खबर की पुरानी फाइलें निकाल कर मिलान किया. इसमें समय लगा. तब हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कैसे प्रेस परिषद की बिहार रिपोर्ट बिहार की पत्रकारिता और प्रभात खबर के संदर्भ में सच से परे है? हम यह सार्वजनिक सवाल उठा रहे हैं. आज के माहौल में हम जानते हैं कि इस तरह की बहस उठाने की कीमत क्या होती है?

 

फिर भी प्रेस परिषद की इस रिपोर्ट में पत्रकारिता से जुड़े गंभीर सवाल उठे हैं. इसलिए इनका स्पष्टीकरण और जवाब जरूरी है. हमें भी फा है कि हमने पत्रकारिता सही रास्ते की है. भूलें और चूक संभव हैं, पर उन्हें सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने का नैतिक साहस भी हमारे पास है. बिहार के प्रसंग में प्रभात खबर हिंदी का पहला अखबार है, जिसने प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस मार्कंडेय काटजू के बिहार बयान को भी पूरी तरह छापा और उसका दो पेजों में तथ्यगत जवाब भी (देखें प्रभात खबर, पटना संस्करण, मंगलवार, दिनांक 27.03.12). श्री काटजू और उनकी टीम अपने को सबसे निष्ठावान मानते हैं, तो इसका क्या अर्थ यह है कि अन्य लोग गलत हैं? इसलिए प्रेस परिषद की बिहार रिपोर्ट, प्रेसर ऑन मीडिया इन बिहार का जवाब सार्वजनिक रूप से देना जरूरी है. यह सवाल उठाना भी जरूरी है कि इस रिपोर्ट का मकसद क्या है? यह संवैधानिक संस्था पक्षधर कब से होने लगी?

 

बिना तथ्य जाने फतवा जारी करने का अधिकार इन्हें किसने दिया? किसी पर कुछ भी टिप्पणी! हम दूसरे अखबारों का नहीं जानते, पर प्रभात खबर अपने संदर्भ में उठाये गये तथ्यों का जवाब दे रहा है. यह स्पष्ट करना जरूरी है कि अखबारों के कामकाज की प्रक्रिया ऐसी है, जिसके परिणाम तत्काल दिखते हैं. इसमें रोज का रिजल्ट रोज आता है. यहां विलंब संभव नहीं है. यहां पच्चीसों स्तर के काम से रोज गुजरना है. हकीकत यह है कि संपादक भी अखबार छपने के बाद ही अगली सुबह एक साथ पूरे अखबार को देख पाता है. अगले दिन के अखबार की मोटे तौर पर कल्पना एक संपादक को होती है, पर पूरी चीजें साफ नहीं होतीं. संभव है कि इस प्रक्रिया में कहीं किसी स्तर पर गलतियां हुई हों, पर इसका अर्थ यह नहीं कि आप कुछ भी आधारहीन आरोप लगा दें. सवाल तो यह उठना चाहिए कि प्रेस परिषद के वे कौन लोग हैं, जो ऐसे गलत आरोप को बिना जांचे सही ठहरा कर इस संवैधानिक संस्था की गरिमा नष्ट कर रहे हैं?

हरिवंश

 

1977 में पत्रकारिता में प्रवेश किया. उस समय से आज तक हमारी पीढ़ी इस संस्था (भारतीय प्रेस परिषद) के नीतिगत फैसले को पत्रकारिता की अंतिम बात मानती रही है. इसलिए इस कैरियर (पेशे) में आने के समय से ही यह निजी बोध रहा कि हमारा प्रोफेशनल एक्सलेंस इस तथ्य से तय होगा कि प्रेस परिषद का कोई स्ट्रिक्चर (निंदा), हमसे जुड़े प्रकाशन पर न हो. यह कहते हुए फख्र है कि अब तक जिन प्रकाशनों से जुड़ाव रहा, उनके खिलाफ रेयरली (कभी-कभी) ही प्रेस परिषद ने शिकायतों पर स्ट्रिक्चर (निंदा) पास किया हो.

 

अगर हमसे भूल हुई, तो उसे हमने सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी किया है. हमने प्रभात खबर में यह परंपरा भी डाली कि किसी भी शिकायत पर खुद हमारे संपादक प्रेस परिषद के सामने उपस्थित होंगे और अपना पक्ष रखेंगे. वकील नहीं. आमतौर पर प्रकाशन संस्थाएं इस काम के लिए वकीलों को इंगेज या इन्वाल्व (जोड़ती) करती हैं.


1991 में हम प्रभात खबर में थे. पहली बार, और अब तक अंतिम बार किसी (अनेक राज्यों व जगहों से छपनेवाले एक) अखबार के खिलाफ हमने अपने अखबार में नाम के साथ खबर छापी. प्रेस परिषद को लिखित शिकायत की. अपने ही पेशे के खिलाफ शिकायत और खबर छापना, हिंदी में शायद पहली बार हुआ. यह शिकायत थी एक अखबार द्वारा झूठी खबर छाप कर दंगा कराने के खिलाफ. जस्टिस सरकारिया (केंद्र राज्य आयोग के पूर्व अध्यक्ष व चर्चित न्यायाधीश) तब प्रेस परिषद के अध्यक्ष थे.

 

रघुवीर सहाय वगैरह इसके सदस्य थे. हमारी शिकायत पर प्रेस परिषद की पूरी टीम रांची आयी. खुली सुनवाई हुई. प्रेस परिषद ने बाबरी मसजिद प्रकरण में कई हिंदी अखबारों द्वारा नितांत गलत खबरें छाप कर दंगे कराने की रिपोर्ट की जांच की. कई बड़े अखबारों को सप्रमाण गैर जिम्मेवार व दोषी पाया. अत्यंत गंभीर-आलोचनात्मक टिप्पणी की. केंद्र सरकार से कार्रवाई की अनुशंसा भी. सिवियर इंडिक्टमेंट (कटु निंदा) किया. यह अलग बात है कि केंद्र सरकार ऐसी चीजों पर सोती है और इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट को भी दफना दिया गया. वह रिपोर्ट उठा कर देखें, प्रभात खबर के उठाये गये सवालों पर एतिहासिक निर्णय आज भी दर्ज है, पर दफन है.

बाद में जस्टिस पी वी सावंत चेयरमैन रहे. उनके कार्यकाल में पत्रकारिता से जुड़े मूल सवालों पर कई निर्णायक फैसले हुए. पत्रकारिता में आ रहे बदलावों पर गंभीर टिप्पणी भी. हमने उन्हें रांची आमंत्रित किया. सार्वजनिक बहस के लिए कि पत्रकारिता के उसूल क्या हों? वह, प्रभाष जोशी और अजीत भट्टाचार्य रांची आये.

 

हमने पत्रकारों के प्रशिक्षण का अभियान चलाया, ताकि बाजारवाद, पेज-थ्री संस्कृति और भोगवाद के दौर में भी पत्रकारिता निष्पक्ष और जनपक्षधर रहे. उस समय भी प्रभात खबर से जुड़ी अगर कोई शिकायत हुई, तो खुद हमारे संपादकीय के लोग प्रेस परिषद की सुनवाई टीम के सामने उपस्थित होकर एक -एक तथ्य को रखते. हमेशा हमारी कोशिश रही कि इस पवित्र संवैधानिक संस्था द्वारा तय मार्गदर्शन व सीमा का हम पालन करें.

 

जब वाजपेयी सरकार थी, हमने केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ शिकायत की. खुद बहस की. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के विशेष विमान से जानेवाले पत्रकारों के संदर्भ में नीतिगत सवाल उठाये. प्रेस परिषद का फैसला हमारे पक्ष में आया. इस पृष्ठभूमि को बताने के पीछे मकसद है कि प्रेस परिषद हमारे लिए इस व्यवस्था में अंतिम आदरणीय, सम्माननीय संवैधानिक संस्था है, जो हमें राह दिखाती है. गलत करने पर चेताती है.

 

हम उसी आदर के साथ अब तक चुनावों या सांप्रदायिक तनावों वगैरह में प्रेस परिषद द्वारा तय नीति का सख्ती से पालन करते रहे हैं. हम अंदरूनी प्रशिक्षण में प्रेस काउंसिल के गाइडलाइंस की प्रति बांटते हैं. चर्चा करते हैं, पालन करने के लिए.

इस पृष्ठभूमि में पहली बार प्रेस काउंसिल की बिहार रिपोर्ट को झूठी, एकतरफा और मनगढ़ंत कहते हुए हमारी भावना आहत है. पर प्रेस परिषद की इस रिपोर्ट ने तथ्य स्पष्टीकरण के अलावा कोई रास्ता नहीं छोड़ा.

पहले प्रेस परिषद की बिहार रिपोर्ट में बगैर जांच या पक्ष जाने सीधे लगाये आरोपों के बारे में. कुछ विशेष खबरों का इसमें उल्लेख है कि ये खबरें बिहार के बड़े-बड़े अखबारों में नहीं छपीं या बहुत छोटी छपीं. दो (क्रम संख्या आठ व नौ) सामान्य आरोप हैं. इन अनछपी खबरों के आधार पर प्रभात खबर पर लगे गंभीर आरोपों का सच, वस्तुस्थिति और तथ्य क्या है, पहले हम यह स्पष्ट करना चाहेंगे.


अरुण कुमार सिन्हा के यहां से 4.5 करोड़ रुपये की बरामदगी की खबर को किसी अखबार ने प्रमुखता से नहीं छापा, क्योंकि वे मुख्यमंत्री के बेहद करीबी हैं.


सही तथ्य - जिनके यहां छापा पड़ा था, उनका नाम विनय कुमार सिन्हा है, न कि अरुण कुमार सिन्हा. या तो राजद ने अपनी आरोप सूची में नाम में भूल की है, या फिर प्रेस परिषद की रिपोर्ट में यह नाम गलत है. अगर राजद ने अपनी आरोप सूची में यह नाम गलत दिया है, तो क्या प्रेस परिषद ने हू-ब-हू गलत चीजों को भी सही मान लिया है? कहने की जरूरत नहीं कि अगर आप कोई गंभीर जांच कर रहे हैं, तो तथ्य तो सही और सच बताएं. विनय कुमार सिन्हा कारोबारी भी हैं.

 

उनके यहां छापेमारी की खबर 22 मार्च, 2012 को प्रभात खबर में पहले पेज पर प्रमुखता से टॉप में छपी. शीर्षक था - आयकर का छापा, बोरे में मिले साढ़े चार करोड़ रुपये. फिर इसका फॉलोअप भी छपा 23 मार्च, 2012 को (पेज नंबर नौ, दो कॉलम में टॉप पर. शीर्षक - 12 करोड़ की अघोषित आय). इस खबर में इस बात का कोई उल्लेख नहीं था कि विनय कुमार सिन्हा जद यू के नेता हैं या मुख्यमंत्री के करीबी हैं.

हां, हम मानते हैं कि इस रिपोर्ट में यह तथ्यगत बात छूट गयी कि जिनके यहां छापा पड़ा, वे जदयू के कोषाध्यक्ष थे. साथ ही बिल्डर भी. हमारे संपादकीय में बहस हुई कि यह बात स्पष्ट नहीं है कि जो पैसे पकड़े गये हैं, वे जद (यू) कोषाध्यक्ष के खाते के हैं या बिल्डर के खाते के? न छापा डालनेवालों ने यह स्पष्ट किया था, न छापे में यह सूचना साफ थी. इसलिए यह बात रिपोर्ट में नहीं छपी.
फारबिसगंज में फायरिंग और उसके बाद राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष के दौरे की खबर नहीं छपी.

सही तथ्य - यह खबर न केवल पटना में, बल्कि भागलपुर संस्करण (जो उस इलाके में बंटता है) में प्रकाशित हुई. चार जून को पहले पेज पर प्रमुखता से छपी- पुलिस फायरिंग में चार की मौत. पांच जून को पहले पेज पर तीन कॉलम में खबर छपी. इसके अलावा पांच जून से लेकर 18 जून , 2011 तक हर दिन फारबिसगंज संस्करण में इससे संबंधित खबरें आधा-एक पन्ने छपती रहीं. राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह के दौरे की खबर भी प्रभात खबर ने छापी. 22 जून, 2011 को पेज 11 पर साढ़े तीन कॉलम में फोटो के साथ प्रमुखता से खबर छपी, जिसका शीर्षक था - गैरजरूरी थी फायरिंग.

एसी-डीसी बिल घोटाला की खबर नहीं छपी या संक्षिप्त में छपी?

सही तथ्य - प्रभात खबर ने चार अप्रैल, 2012 को पहले पेज पर सात कॉलम में खबर छापी. शीर्षक था - 22575 करोड़ का हिसाब नहीं. इसमें विपक्ष के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी का बयान अलग से फोटो के साथ हाइलाइट करके दिया गया. इसके बाद लगातार इस खबर का फॉलोअप दिया गया. पहले पेज पर सात कॉलम में छपी खबर से किसी अखबार में कौन दूसरी बड़ी खबर हो सकती है? महत्वपूर्ण या बड़ी-से- बड़ी घटना को भी एक अखबार में इससे अधिक जगह (स्पेस) दुनिया में कौन दे सकता है? हमने भी एसी-डीसी बिल को घोटाला कह कर छाप तो दिया, पर असल सवाल कहीं और है.

 

फिर दोहराना चाहेंगे कि बिहार या देश की राजनीति में आज आम फैशन-संस्कृति है कि हर चीज को बगैर जांच या सबूत, घोटाला कह दो, फिर वह उसी रूप में मीडिया में आये, यह भी अपेक्षा रहती है. इस गैरजिम्मेवार आचरण के लिए सभी दल दोषी हैं. प्रेस काउंसिल की जांच टीम से पूछा जाना चाहिए कि क्या बिहार में एसी-डीसी बिल घोटाला हुआ है? क्या हिसाब या अग्रिम राशि का समय से मिलान (रिकांसिलिएशन) न होना घोटाला है? इसमें गड़बड़ होने की संभावना रहती है. पर केंद्र सरकार से लेकर आज राज्य सरकारों के अरबों-खरबों के हिसाब एडजस्ट न होने से पेंडिंग हैं, तो क्या ये सब घोटाले हैं. बहस तो दिल्ली में होनी चाहिए कि देश की एकाउंटिंग सिस्टम कै से दुरुस्त हो?

इसी गैरजिम्मेवार परंपरा या दौर में हर कहीं आज घोटाला दिखाई देता है. लोग आरोप भी ऐसे लगा देते हैं, बिना सबूत या साक्ष्य के, फिर प्रेस काउंसिल की जांच कमेटी पूछती है कि इस घोटाले की खबर क्यों नहीं छपी? राजनीति, गवर्नेस, पत्रकारिता से लेकर हर संवैधानिक संस्था में हम कितने सतही, उथला और गैरजिम्मेवार बन गये हैं? क्या इस पर श्री काटजू साहब की चिंता है?

बियाडा भूमि घोटाला की खबर नहीं छपी.

सही तथ्य - प्रभात खबर ने प्रमुखता से इस खबर को प्रकाशित किया. 20 जुलाई, 2011 को पहले पेज पर अपर हाफ में ढाई कॉलम में यह खबर छपी. शीर्षक था - बियाडा जमीन आवंटन - नीतीश ने दिया जांच का आदेश. अगले दिन 21 जुलाई को पहले पेज पर दो कॉलम में खबर थी- विपक्ष ने कहा, हो सीबीआइ जांच. उसी दिन पेज नंबर 12 पर एक पूरा विशेष पेज है- बियाडा जमीन आवंटन के तथ्य. एक-एक पहलू पर इन्वेस्टिगेशन के बाद यह पेज तैयार हुआ. लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान के आरोप भी प्रमुखता से दिये गये, तसवीर के साथ. एक और तथ्य, विपक्ष की आवाज में इस सवाल को भी हमने घोटाला कह कर छापा, पर किसी जांच एजेंसी द्वारा अब तक प्रामाणिक ब्योरे नहीं आये हैं कि यह घोटाला कैसे है?

बाढ़ राहत घोटाला की खबर नहीं छपी?

सही तथ्य - ऐसा कोई घोटाला हाल के दिनों में उजागर नहीं हुआ है. बाढ़ राहत घोटाला राजद के शासन में उजागर हुआ था, जिसमें पटना के तत्कालीन डीएम डॉ गौतम गोस्वामी (अब स्वर्गीय) आरोपित थे.

सिपाही भरती, शिक्षक नियुक्ति, शराब, परिवहन, बीज, डीजल सब्सिडी घोटाला की खबर नहीं छपी?

सही तथ्य - राजद ने यह नहीं बताया कि ये घोटाले किस जांच एजेंसी ने उजागर किये? एजी ने? सीबीआइ ने? सीआइडी ने? या विधायिका की कोई कमेटी ने? या विजिलेंस ने? या उच्चत्तम न्यायालय में माननीय न्यायाधीश रहे काटजू साहब द्वारा तय किसी समिति या कमेटी ने? किसी संवैधानिक जांच कमेटी ने जांच कर बिहार में हुए इन सभी घोटालों को या इनमें से किसी एक को भी सही पाया या अपनी जांच रिपोर्ट दी है? इसकी जानकारी हमें नहीं है. अगर ऐसी कोई रिपोर्ट है, तो वह सार्वजनिक की जाये. प्रभात खबर सार्वजनिक रूप से वचनबद्ध है कि घोटाले की वह रिपोर्ट छपेगी.

दरअसल हुआ क्या है? किसी राजनीतिक दल या समूह ने जो भी अनर्गल, आधारहीन और बिना सबूत आरोप की सूची प्रेस परिषद की जांच टीम को सौंपी है, उसे हूबहू सही मान कर अखबारों पर आरोप लगा दिये गये हैं? क्या यह संवैधानिक जांच समिति का धर्म और फर्ज है?

अखबार हेडिंग लगाने का अपना विशेषाधिकार भी खो चुके हैं. विपक्ष की खबरों की हेडिंग इस तरह से लगायी जाती है कि सरकार को मदद मिलती है. विपक्ष की खबरों को अनदेखा करने का प्रयास किया जाता है.

सही तथ्य - हेडिंग भी प्रेस विज्ञप्ति जारी करने वाले या प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले तय करेंगे क्या? क्या प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट को प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट से असहमत लोगों को लिखने का प्रावधान है? प्रभात खबर में विपक्ष की खबरों को प्रमुखता दिये जाने के अनेक उदाहरण हैं. 9 नवंबर, 2012 को पटना में माले ने राज्य सरकार के खिलाफ एक बड़ी रैली की. 10 नवंबर, 2012 को इस रैली का कवरेज मास्ट हेड से आठ कॉलम पहले पेज पर छपा. दुनिया का कोई भी अखबार दुनिया की बड़ी से बड़ी घटना का इससे बड़ा कवरेज नहीं दे सकता? 5 अक्तूबर, 2012 को राजद की रैली का कवरेज प्रभात खबर, भागलपुर संस्करण ने नीतीश कुमार की भागलपुर में हुई रैली से अधिक स्पेस-जगह-तसवीर देकर की. प्रभात खबर, भागलपुर संस्करण में पहले पेज पर छह कॉलम की लीड (लालूजी के चार फोटो टॉप पर लगे). क्या यह बिहार सरकार के सेंसरशिप का परिणाम है?

 

प्रभात खबर, पटना संस्करण में भी भागलपुर में राजद रैली की यह खबर छपी. 14 फरवरी, 2013 को पेज-दो पर चार कॉलम की लीड खबर थी, प्रेस परिषद की रिपोर्ट पर राजनीति गरम. याद रखिए, हम तथ्य के आधार पर बातें रख रहे हैं. सुनी-सुनायी बातों को बिना जांचे आरोप नहीं मान रहे. एक और बानगी या सबूत, राजद ने नीतीश सरकार के खिलाफ आरोप पत्र जारी किया था. प्रभात खबर, पटना ने 28 नवंबर, 2012 के अंक में पहले पेज पर स्थान दिया. शीर्षक था - सरकार की मशीनरी फेल, हर जगह लूट. यह खबर पहले पेज पर छपी.

भ्रष्टाचार की खबरें नहीं छपती हैं?

तथ्य - भ्रष्टाचार से संबंधित खबरें आये दिन प्रभात खबर में छपती रही हैं. पहले पेज पर छपी कुछ प्रमुख खबरें इस प्रकार हैं:

केरोसिन का काला खेल, हर माह 62 लाख लीटर केरोसिन गटक जाते हैं कालाबाजारिये. 16 जुलाई, 2012 को पहले पेज पर पांच कॉलम लीड.

घूसखोरी में राजस्व व भूमि सुधार विभाग अव्वल, हाकिम से आगे हलका कर्मचारी, 22 जुलाई, 2012 को पहले पेज पर साढ़े तीन कॉलम में लीड खबर.

अफसर चुरा रहे हैं बिजली, 24 सितंबर, 2012 को पहले पेज पर पांच कॉलम लीड खबर.

विधायकों के यात्र भत्ते पर सवाल, एक दिन में घूमे तीन प्रदेश. 3 दिसंबर, 2012 को पहले पेज पर पांच कॉलम में लीड.

विश्वविद्यालय में इस तरह जांची जा रहीं कापियां, 1 दिसंबर, 2012 को पहले पेज पर दो कॉलम में ऊपर से नीचे तक (करीब एक चौथाई पेज) प्रभात खबर के सभी संस्करणों में छपी खबर.

मुख्य रूप से इन आठ खबरों को गिना कर कहा गया है कि ये खबरें नहीं छपीं या बहुत छोटी छपीं? हमने एक -एक खबर को प्रभात खबर में भी जगह, महत्व और प्रकाशन तिथि के तथ्य दिये हैं. अब पाठक तय करें कि हम गलत-झूठे हैं या यह संवैधानिक संस्था? इस तरह के आरोपों के आधार पर जांच टीम ने निष्कर्ष निकाला है कि बिहार की पत्रकारिता में इमरजेंसी से भी बदतर स्थिति है. क्या जांच टीम यह बतायेगी कि प्रभात खबर ने पहले पेज पर बिहार के विरोधी दलों के आरोपों को जितनी जगह या प्रमुखता दी है, उतनी जगह या प्रमुखता की बात छोड़ दें, अंदर के पन्नों पर भी इमरजेंसी में जेलों में बंद विरोधी दलों के नेताओं की पांच या दस लाइन की खबरें भी किसी अखबार में छपती थीं? यह टीम ऐसे दो-चार उदाहरण गिना या बता सकती है?

न्याय का एक सामान्य नियम है कि फांसी देने के पहले मुजरिम से भी अंतिम इच्छा पूछी जाती है. क्या प्रेस परिषद ने इन खबरों के न छपने या छापने की जानकारी प्रभात खबर से मांगी? प्रेस परिषद के चेयरमैन जस्टिस काटजू न्यायाधीश रहे (जज) हैं. वह न्यायपालिका की सर्वोच्च संस्था (सुप्रीम कोर्ट) में रहे हैं. क्यों नहीं माना जाये कि ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में रहते हुए भी प्रेस परिषद की इस जांच टीम ने न्याय के मुख्य सिद्धांत (जिन पर आरोप लगे, उनका पक्ष जानना) का पालन नहीं किया? या पहले से तय किसी और के एजेंडे पर आंख बंद कर प्रेस काउंसिल की जांच टीम ने मुहर लगायी है? प्रेस परिषद की टीम कह सकती है कि हमने अखबारों में सार्वजनिक नोटिस दी. सूचना भेजी. पर कोई नहीं आया.

 

हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि ऐसी सार्वजनिक सूचना या नोटिस हमारे लिए अर्थहीन है. कोई स्पेसिफिक (साफ) आरोप किसी अखबार के नाम हो, तो हम जवाब देना मुनासिब समझेंगे. बिना कोई स्पष्ट आरोप तय किये, आप किसी को निमंत्रित करते हैं, यह सही है? प्रभात खबर पर प्रेस काउंसिल ने बिहार रिपोर्ट में जो आरोप लगाये गये, अगर पहले से वे आरोप हमें भेजे गये होते, तो हम अपना पक्ष लेकर उपस्थित होते. एक -एक तथ्य के साथ.

 

प्रेस काउंसिल द्वारा ही तय मापदंड हम याद दिला रहे हैं. सुनवाई की यह प्रक्रिया कि स्पेसिफिक आरोपों पर संबंधित पक्षों को सुनना, प्रेस काउंसिल ने ही तय की है. पर बिहार सुनवाई में अपने द्वारा तय मापदंड को ही प्रेस काउंसिल ने नहीं माना. एकतरफा कार्रवाई की. कुछ भी आरोप लगा देनेवाले गैर-जिम्मेवार लोगों के आधारहीन व मनगढ़ंत आरोपों को एकतरफा, सही करार दिया. यह कैसे सही है! यह सरासर पक्षपातपूर्ण, विद्वेषपूर्ण व पूर्वग्रह से ग्रसित है.

एक उदाहरण दिया गया है, फारबिसगंज में हुई फायरिंग की घटना का. यहां कहा गया है कि इस खबर को तीन बड़े अखबारों (जिनमें प्रभात खबर भी है) ने छापा ही नहीं. 3 जून, 2011 को यह घटना हुई थी और 4 जून के प्रभात खबर में बिहार के सभी संस्करणों में पहले पेज पर अपर हाफ में प्रमुखता से यह खबर छपी है. अगले दिन पहले पेज पर ही इस खबर का फॉलोअप तीन कॉलम में प्रमुखता से लगा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि 21 जून, 2011 को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन वजाहत हबीबुल्लाह के दौरे का इन अखबारों ने संज्ञान तक नहीं लिया. यह आरोप भी पूरी तरह गलत है.

 

22 जून, 2011 के प्रभात खबर में पेज 11 पर दो कॉलम फोटो के साथ तीन कॉलम में यह खबर प्रमुखता से लगी है. अररिया जिले के फारबिसगंज के गांव भजनपुरा में पुलिस जवान द्वारा एक आम आदमी को बूटों से रौंदने की खबर का जिक्र किया गया है और कहा गया है कि राज्य सरकार के दबाव में प्रिंट मीडिया द्वारा लागू किये जानेवाले सेल्फ सेंसर का यह उदाहरण है. इस आरोप की वस्तुस्थिति जानने से सच पता चलेगा. हर गांव या कस्बे में तो हमारा फोटोग्राफर या रिपोर्टर तो होता नहीं और ऐसे एक्सक्लूसिव फोटो या फुटेज को कोई भी प्रोफेशनल पत्रकार दूसरे संस्थानों से साझा नहीं करता है. ऐसे में कोई भी जिम्मेवार व समझदार संपादक यह रिस्क नहीं ले सकता कि वह बिना प्रमाण के सुनी हुई बातों को छाप दे.


रिपोर्ट में जिन सामान्य आरोपों को रेखांकित किया गया है

जनता से जुड़े मुद्दों पर खबरें नहीं छपतीं. जैसे भुखमरी, जन आंदोलन, गरीबी उन्मूलन योजनाओं का क्रि यान्वयन न होना या धीमा क्रि यान्वयन होना, भ्रष्टाचार, पुलिस दमन व जनहित के अन्य इश्यू.

विधानसभा में विपक्ष के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी की लिखित शिकायत के हवाले से कहा गया कि सरकारी विज्ञापनों से ओब्लाइज होकर अखबार अपराध, फिरौती, हत्या, भू-माफिया आदि से जुड़ी खबरें नहीं छापते.

विपक्ष की खबरें नहीं छपती हैं.

राजद नेता रामचंद्र पूर्वे और सांसद रामकृपाल यादव व राजद के अन्य नेताओं के हवाले कहा गया कि मीडिया संस्थानों का प्रबंधन राज्य सरकार के दबाव में सरकार की छवि बिगाड़ने वाली खबरों और विपक्ष की छवि बनाने वाली खबरों के प्रकाशन से बचता है.

लेकिन तथ्य क्या हैं

प्रभात खबर जनसरोकार से जुड़ी खबरों को लगातार प्रकाशित करता है. सरकारी विभागों या स्कीमों में गड़बड़ी या शिथिलता की खबरें प्रमुखता से पहले पेज पर अकसर रहती हैं. विपक्ष की खबरों को हम पर्याप्त प्रमुखता देते हैं. साथ ही सरकार के उल्लेखनीय कामों को ही पर्याप्त जगह देते हैं. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि उसने प्रभात खबर समेत सभी प्रमुख अखबारों के विभिन्न संस्करणों को देखा और पाया कि अपराध, भ्रष्टाचार, सामाजिक सरोकार व सिविल संगठनों से जुड़ी खबरें इन अखबारों में नहीं हैं.

 

विपक्ष से जुड़ी खबरों को छापने से भी ये अखबार बचते हैं और यदि पाठकों के लिहाज से जरूरी हुआ, तो अंदर के पन्नों पर संक्षिप्त छापते हैं. हमने यह रिपोर्ट पढ़ने के बाद प्रभात खबर की पिछले एक-डेढ़ साल की फाइलें देखीं. इन्हें देखने के बाद लगा कि प्रभात खबर के विभिन्न संस्करणों को देखने के बाद कोई भी व्यक्ति कैसे उपरोक्त आरोप लगा सकता है? प्रभात खबर में छपी खबरों के आलोक में साफ है कि उपरोक्त आरोप बेबुनियाद, पूर्वाग्रह से ग्रसित या जान-बूझ कर ये झूठे आरोप प्रभात खबर और बिहार की पत्रकारिता पर लगाये गये हैं. याद रखिए, इन झूठे आरोपों या गलत आधार को सही मान कर प्रेस परिषद की टीम ने बिहार में इमरजेंसी की स्थिति का निष्कर्ष निकाला है.

 

यदि हम पिछले एक-डेढ़ साल में अपराध, आपराधिक घटनाओं के फॉलोअप, भ्रष्टाचार, सरकारी स्कीमों में गड़बड़ी, घोटाले, विपक्ष की गतिविधियां और बयान आदि से जुड़ी प्रभात खबर में छपी खबरों की सूची छापना चाहें, तो पन्ने-के-पन्ने भर जायेंगे. फिर भी हम एक बानगी के तौर पर पहले पेज पर छपी कुछ प्रमुख खबरों की सूची यहां दे रहे हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि प्रभात खबर पत्रकारीय प्रतिबद्धता के साथ जनसरोकारों को सबसे ऊपर रखता है. देखें -

प्रभात खबर में पहले पेज पर प्रमुखता से छपीं भ्रष्टाचार की खबरों की बानगी

4 जून, 2011, पटना - जिला पर्षद अध्यक्ष व प्रखंड प्रमुख के चुनाव में कैश, कार व कास्ट का बोलबाला, पहले पेज पर सात कॉलम टॉप बॉक्स

3 दिसंबर, 2012, पटना - विधायकों के यात्र भत्ते पर सवाल, एक ही दिन में घूमे तीन प्रदेश, पहले पेज पर पांच कॉलम लीड खबर

1 दिसंबर, 2012, मुजफ्फरपुर, पटना व भागलपुर - विश्वविद्यालय में इस तरह जांची जा रही हैं कापियां, पहले पेज पर चौथाई पेज

24 सितंबर, 2012, पटना - अफसर चुरा रहे बिजली, पहले पेज पर पांच कॉलम लीड

6 सितंबर, 2012, पटना - राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना में घपला, तीन साल में 3300 करोड़, पहले पेज पर छह कॉलम लीड

22 जुलाई, 2012, पटना - घूसखोरी में राजस्व व भूमि सुधार विभाग अव्वल, पहले पेज पर तीन कॉलम नीचे तक लीड

16 जुलाई, 2012, पटना - केरोसिन का काला खेल, हर माह 62 लाख लीडर केरोसिन गटक जाते हैं कालाबाजारिये, पहले पेज पर पांच कॉलम लीड

8 दिसंबर, 2012, भागलपुर - टेंडर हुआ नहीं, काम चालू, पहले पेज पर प्रमुखता से दो कॉलम में
सरकारी शिथिलता पर पहले पेज पर छपी खबरों की बानगी

8 सितंबर, 2012, पटना - एनएमसीएच में घपला, पेज एक पर

9 दिसंबर, 2012, पटना - काम के बदले अनाज योजना बंद, कहां गया अनाज, पहले पेज पर पांच कॉलम लीड

12 अगस्त 2012, पटना - खजाने में पैसा है, दवाएं नहीं, खाली हाथ अस्पताल से लौट रहे मरीज, पहले पेज पर छह कॉलम लीड टॉप बॉक्स में

23 जुलाई 2012, भागलपुर - बिजली आपूर्ति पर्याप्त, फिर भी अंधेरा, पहले पेज पर ढाई कॉलम में प्रमुखता से
विपक्ष की खबरें प्रभात खबर में (एक बानगी)

10 नवंबर, 2012, पटना - माले की रैली का कवरेज मास्टहेड से आठ कॉलम पहले पेज पर

5 अक्तूबर, 2012, भागलपुर - राजद की रैली, बड़ी लड़ाई का जल्द एलान, पहले पेज पर छह कालम लीड (लालूजी के चार फोटो टॉप पर लगे)

14 फरवरी, 2013, पटना - प्रेस परिषद की रिपोर्ट पर राजनीति गरम, पेज दो पर चार कॉलम लीड
अपराध व कानून-व्यवस्था की खबरें

15 फरवरी, 2013 - विधायक अनंत सिंह की गिरफ्तारी का वारंट, पहले पेज पर फोटो सहित

6 दिसंबर, 2012, भागलपुर - दारू अड्डे पर छापेमारी, नहीं पकड़ाया दबंग, पहले पेज पर सात कॉलम टॉप बॉक्स

8 दिसंबर, 2012, भागलपुर - दारू माफिया का रिश्तेदार हिरासत में, पहले पेज पर पांच कॉलम

28 सितंबर, 2012, भागलपुर - खगड़िया में नीतीश की सभा, उपद्रव व आगजनी, पहले पेज पर सात कॉलम टॉप बॉक्स

31 अगस्त, 2012, भागलपुर - सड़क हादसे में युवक की मौत से उबले लोग, आगजनी व सड़क जाम, पहले पेज पर छह कॉलम लीड

14 अक्तूबर, 2012, मुजफ्फरपुर - मधुबनी में चार प्रखंड कार्यालय व तीन थाने फूंके, पहले पेज पर मास्टहेड से आठ कॉलम. मधुबनी की इस घटना का लगातार एक हफ्ते तक पहले पेज पर और अंदर दो-दो पेज का कवरेज

10 सितंबर,2012, पटना - आरटीआइ में मांगी सूचना, तो मिली प्रताड़ना - पहले पेज पर टॉप बॉक्स

मुखिया हत्याकांड के बाद पटना में हुए उपद्रव को लेकर प्रभात खबर ने जिम्मेवार कौन? शीर्षक से खबरें छापीं, जिसमें राज्य पुलिस की अक्षमता को लेकर सवाल उठे. हत्याकांड के फॉलोअप में जदयू विधायक सुनील पांडेय व हुलास के कथित रूप से शामिल होने को लेकर लगातार खबरें छपीं (जून, 2012). ये सब खबरें राज्य सरकार या जदयू का पक्ष लेने वाली नहीं, बल्कि निर्भीकता से सवाल उठाने वाली थीं.

बथानी टोला नरसंहार मामले में कोर्ट से सबके बरी हो जाने पर सबसे पहले प्रभात खबर ने सवाल उठाया कि दोषियों को सजा कब? यह खबर 17 अप्रैल, 2012 को सात कॉलम में पहले पेज पर लीड छपी. अगले दिन 18 अप्रैल, 2012 को प्रभात खबर ने बथानी टोला से रिपोर्ट छापी, बथानी टोला पूछ रहा सवाल? यह खबर भी पहले पेज पर छह कॉलम लगी. इसका असर यह हुआ कि राज्य सरकार ने बथानी टोला नरसंहार के मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का फैसला लिया. यह खबर भी 19 अप्रैल, 2012 को पहले पेज पर लीड छपी. क्या प्रेस परिषद के माननीय सदस्य बतायेंगे कि ऐसी खबरें बिहार में सेंसरशिप या इमरजेंसी की स्थिति रहती, तो छपतीं. मौजूदा दौर का फैशन है कि किसी पर कुछ भी आरोप लगा दें. क्या संवैधानिक संस्था प्रेस काउंसिल भी इसमें शामिल हो गयी है?

प्रेस काउंसिल की फैक्ट फाइंडिंग टीम (एफएफटी) की रिपोर्ट में नौ सेक्शन हैं. पहले सेक्शन में बिहार में पत्रकारिता की स्वर्णिम पृष्ठभूमि को बताया गया है. यह सेक्शन पढ़ने से उम्मीद जगती है कि बिहार में निष्पक्ष और जनोन्मुखी पत्रकारिता और पत्रकारों की जो गौरवशाली परंपरा रही है, उसके मानदंडों पर यह रिपोर्ट खरा उतरेगी. इस सेक्शन की आखिरी लाइन में कहा गया है कि बिहार के पत्रकार अपनी स्पष्ट समझ, लेखन, निष्ठा, प्रतिबद्धता और अध्यवसाय के बूते देश के कई मीडिया संस्थानों में स्तंभ के तौर पर काम कर रहे हैं.

रिपोर्ट का अगला सेक्शन है, प्रीवेलिंग सीनेरियो. इस सेक्शन में कहा गया है कि बिहार में एक खतरनाक प्रवृत्ति देखी जा रही है कि सरकार ने सच लिखने का अधिकार छीन लिया है. यह सिर्फ संविधानप्रदत्त अधिकारों का ही उल्लंघन नहीं बल्कि स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए भी खतरनाक है, जिससे राज्य (बिहार) में बहुत खराब स्थिति बनती जा रही है. यह पढ़ने के बाद लगा कि हो सकता है कि हम पत्रकार अपने काम के जुनून में यह जान ही न पा रहे हों कि सरकार ने हमें कठपुतली बना लिया है.

 

प्रेस काउंसिल की टीम ने जरूर ऐसे तथ्य जुटाये होंगे, जो यह सिद्ध कर रहे होंगे कि हम सब सरकार के दबाव में और सरकार के इशारे पर ही काम कर रहे हैं. उत्कंठा बढ़ी उन तथ्यों को जानने की जिनके आधार पर टीम इस तरह के पत्रकारीय माहौल की बात कह रही है. पर प्रेस काउंसिल की जांच टीम ने अपनी रिपोर्ट में ऐसे तथ्य दिये ही नहीं हैं. महज विपक्ष के बिना प्रमाण या सबूत आरोपों का संकलन भर है, यह रिपोर्ट.

इस सेक्शन के बाद रिपोर्ट में टीम की चार फाइंडिंग दी गयीं हैं. सेक्शन की शुरु आत इस वाक्य से होती है - सच ऐन इनडाइरेक्ट कंट्रोल ओवर द मीडिया.. सवाल उठा कि किस तरह का इनडाइरेक्ट कंट्रोल? पहले वाले सेक्शन में किसी इनडाइरेक्ट कंट्रोल के बारे में न तो बताया गया और न ही इसके कोई प्रमाण दिये गये. प्रेस परिषद की रिपोर्ट में यह निष्कर्ष है कि बिहार में पत्रकारिता सेंसरशिप के दौर में है, और इमरजेंसी की स्थिति (1975-76) है.

 

यह स्थिति बताने के लिए अंगरेजी के बड़े-बड़े विशेषणों का इस्तेमाल है. यह आरोप पढ़ते हुए सामान्य जिज्ञासा उभरती है कि क्या बिहार में इमरजेंसी होती, तो प्रेस परिषद की टीम घूमती? रिपोर्ट और विचार एकत्र करती? क्या प्रेस परिषद के चेरयमैन की बिहार सरकार पर तर्क -टिप्पणियां प्रभात खबर में प्रमुखता से छपे होते? बिहार के अखबारों में इस टीम के आने की खबर भी प्रभात खबर में छपी. क्या इमरजेंसी में ऐसा हुआ था? तब प्रेस सेंसरशिप के खिलाफ कोई फैक्ट फाइंडिग टीम कहीं गयी थी या उसकी चर्चा किसी अखबार में छपी? आज जो लोग बिहार की पत्रकारिता पर आरोप लगाते घूम रहे हैं, तब इमरजेंसी में उनकी मुखर वाणी कहां थी? यह रिपोर्ट पढ़ने के बाद यह तथ्य जानने की निजी उत्सुकता बढ़ गयी है कि रोज अपने बयानों से सुर्खियों में रहनेवाले प्रेस परिषद के माननीय चेयरमैन मरकडेय काटजू साहब, इमरजेंसी में कहां थे? उनकी भूमिका क्या थी? क्या तब भी वह कांग्रेसी थे? या न्यायाधीश थे या वकील थे? उनकी मौजूदा मुखर भूमिका देखकर लगता है कि तब वह जरूर जेल में रहे होंगे या कांग्रेस विरोधी? पर सच पता नहीं.

 

प्रेस काउंसिल की टीम की रिपोर्ट पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि इस कमेटी के सदस्यों को या तो इमरजेंसी की स्थिति की बिल्कुल जानकारी ही नहीं है या जानबूझ कर इमरजेंसी की स्थिति का बिहार के संदर्भ में उल्लेख हुआ है. एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत टीम के सदस्यों ने जान-बूझ कर ऐसा किया है, यह मानने के परिस्थितजन्य साक्ष्य हैं. जिन बड़ी खबरों के न छपने की चर्चा रिपोर्ट में है, वे किस प्रमुखता से प्रभात खबर में छपी हैं, यह हमने ऊपर तिथिवार गिनाया. विपक्ष की खबरों या आरोपों को पहले पेज पर हमने कितना महत्व दिया, यह भी पुरानी छपी रिपोर्टो को निकाल कर बताया. क्या इमरजेंसी में विपक्ष की कोई एक बड़ी खबर भी उतनी बड़ी पहले पेज पर, देश के किसी बड़े अखबार में छपी थी? यहां तो रोज विपक्ष के आरोपों से अखबार भरे रहते हैं. फिर भी इमरजेंसी से बिहार की तुलना षड्यंत्र नहीं, तो क्या है?

दरअसल पत्रकारिता में जिस पाप के लिए इस रिपोर्ट में बिहार सरकार को कोसा जा रहा है, पत्रकारिता का वह दोषपूर्ण मॉडल तो भारत सरकार की नीतियों की देन है. 1991 की अर्थनीति का यह मीडिया में परिणाम है. नयी अर्थनीतियों ने संपादक नामक संस्था को खत्म कर दिया है. पत्रकारिता की धार, सत्व और सच पर परदा डाल दिया है. देश भर में आज अखबारों का मुख्य उद्देश्य प्रॉफिट मैक्सिमाइजेशन है. अखबार आज जिस बिजनेस मॉडल पर चल रहे हैं, उसमें ही इस नयी पत्रकारिता का उद्गम स्नेत है. न्यूज, समाज, देश, मिशन, यह सब पीछे या अतीत की बातें हैं. प्रमोटरों, निवेशकों और अखबार मालिकों का ही दोष नहीं है. पत्रकारिता विधा से भी गंभीरता गायब हो गयी है. कम ही पत्रकार किसी रिपोर्ट पर गहराई से काम या छानबीन करते हैं. किसी ने कोई भड़काऊ बात कह दी, गंभीर आरोप लगा दिया, बिना सिर-पैर जांचे वह अखबार में छप सकती है.

 

आजकल जो भी सत्ता से बाहर होता है, उसका धंधा ऐसे ही आरोपों की राजनीति से चलता है. होना तो यह चाहिए कि जानकारी मिले, तो हर दृष्टि से गहराई में उतर कर छानबीन हो, सभी आधिकारिक पक्ष लेकर वह विषय उठे. बोफोर्स से लेकर अन्य बड़े स्कैंडल इसी रास्ते उजागर हुए. पर हाल के दिनों में या इस आधुनिक दौर में टूजी प्रकरण, अदालत के माध्यम से सामने आया. अन्य बड़े प्रकरण या घोटाले सीएजी के माध्यम से सार्वजनिक हुए. याद करिए गुंडूराव (पूर्व मुख्यमंत्री, कर्नाटक) या अंतुले (पूर्व मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र) वगैरह पर कैसी खोजपरक रपटें छपीं थी कि अनुमान या कयास के लिए जगह नहीं बची.

पक्ष जाने बिना मुजरिम घोषित कर दिया

इस रिपोर्ट के संदर्भ में हमने अपने बिहार के संस्करणों के संपादकों से अलग-अलग जानकारी मांगी कि क्या प्रेस काउंसिल ने उनके दायित्व के संस्करण पर कोई स्पष्ट आरोप लगाते हुए उनसे अपना पक्ष रखने के लिए न्योता था?
पढ़िए प्रभात खबर के स्थानीय संपादकों से मिले जवाब :

प्रमोद मुकेश, स्थानीय संपादक, पटना : प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (पीसीआइ) के अध्यक्ष मरकडेय काटजू 24 फरवरी, 2012 को पटना विश्वविद्यालय में आयोजित एक समारोह में शामिल होने आये. उन्होंने अपने वक्तव्य में आरोप लगाया कि बिहार में प्रेस आजाद नहीं है. उन्होंने इसकी जांच के लिए तीन सदस्यीय टीम बिहार भेजने की घोषणा की. 24 फरवरी, 2012 को ही राजीव रंजन नाग की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय जांच टीम का गठन हुआ. एक व दो अप्रैल, 2012 को इस बिहार जांच टीम ने पटना में सुनवाई की. 12 जुलाई, 2012 को मुजफ्फरपुर में सुनवाई हुई. 13 जुलाई, 2012 को मुंगेर में प्रेस काउंसिल की बिहार जांच टीम ने सुनवाई की.

 

17 दिसंबर, 2012 को गया में सुनवाई हुई. जांच टीम की रिपोर्ट 12 फरवरी, 2013 को सार्वजनिक की गयी. मुझे राजीव रंजन नाग की ओर से एक पत्र प्राप्त हुआ, जिसमें कहा गया कि 18 सितंबर, 2012 को पीसीआइ की टीम पटना में बिहार सरकार के अधिकारियों और प्रमुख प्रकाशनों के संपादकों के साथ विचार-विमर्श करना चाहती है. पत्र में कहा गया था कि उन्हें बड़ी संख्या में जो ज्ञापन प्राप्त हुए हैं, उनके स्पष्टीकरण के संबंध में बात करना चाहते हैं. लेकिन पत्र में इस बात का कोई उल्लेख नहीं था कि ज्ञापन किस संबंध में है, किसने दिये हैं, क्या आरोप लगाये हैं?

 

प्रभात खबर पर लगे किन-किन आरोपों के संबंध में उन्हें स्पष्टीकरण चाहिए? अमूमन किसी अखबार में छपी किसी रिपोर्ट पर पीसीआइ स्पष्टीकरण मांग सकता है. यह उसका अधिकार भी है, लेकिन मुझे जो पत्र प्राप्त हुआ, उसमें कोई विशेष या स्पष्ट जानकारी नहीं मांगी गयी थी. जांच टीम ने यह सूचना नहीं भेजी थी कि प्रभात खबर में प्रकाशित किसी खबर पर किसी पाठक को आपत्ति थी? अगर ऐसा रहता, तो हम नैतिक रूप से जवाब देने के लिए बाध्य रहते. जाते और अपना पक्ष रखते. पर ऐसा कोई पत्र आया ही नहीं. इसी कारण 18 सितंबर की बैठक में मैं शामिल नहीं हुआ.

कौशल किशोर त्रिवेदी, स्थानीय संपादक, गया - पीसीआइ की टीम द्वारा आधिकारिक रूप से निमंत्रण नहीं मिला था. बाहर से सूचना मिली थी. औपचारिक रूप से निमंत्रण नहीं मिला था, इसलिए नहीं गया.

शैलेंद्र कुमार, स्थानीय संपादक, मुजफ्फरपुर - मुजफ्फरपुर के स्थानीय संपादक या कार्यालय को पीसीआइ द्वारा कोई पत्र नहीं मिला, इसलिए नहीं गया.

जीवेश रंजन सिंह, स्थानीय संपादक, भागलपुर - पीसीआइ टीम भागलपुर नहीं आयी थी. मुंगेर गयी थी.

साफ है कि जो आरोप अखबारों पर लगाये गये, उनके बारे में संबंधित अखबारों से उनका पक्ष पूछे बिना उन्हें मुजरिम घोषित कर दिया गया. यह न्याय है या न्याय के नाम पर निजी एजेंडा या निजी राग-द्वेष समाज पर थोपना है.

प्रेस काउंसिल की जांच टीम का निष्कर्ष है कि बिहार की पत्रकारिता में इमरजेंसी की स्थिति है?

यह थी प्रेस काउंसिल की जांच टीम!

इस जांच टीम के लोगों के अनुभव, बिहार से संबंध, निजी आग्रह-पूर्वग्रह, सुनवाई की शैली, सुनवाई की प्रक्रिया वगैरह पर भी देर-सबेर गंभीर सवाल उठेंगे. फिलहाल हम सिर्फ यह बताना चाहेंगे या सबसे बड़ा सवाल खड़ा करना चाहेंगे कि बिहार की जिस पत्रकारिता पर यह जांच हुई है, इस पत्रकारिता के लोगों ने तो इस सुनवाई में कहीं हिस्सा ही नहीं लिया है. किसी भी बड़े अखबार (जिनके खिलाफ प्रेस काउंसिल ने रिपोर्ट की है) के एक व्यक्ति ने भी इस सुनवाई में भाग नहीं लिया है. पर यह पूरी रिपोर्ट महज बड़े अखबारों के खिलाफ ही केंद्रित है. उन्हें बिना सुने. धन्य है, न्याय की यह नयी परंपरा.

1. अरुण कुमार - टाइम्स ऑफ इंडिया, पटना में पदस्थापित. बिहार श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के महासचिव. करीब 26 वर्षो का पत्रकारिता का अनुभव. टाइम्स ऑफ इंडिया इम्पलाइज यूनियन के अध्यक्ष भी हैं. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया में भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों के संपादकों से भिन्न श्रमजीवी पत्रकार कैटेगरी में सदस्य. पटना में रहते हैं.

2. राजीव रंजन नाग - प्रेस एसोसिएशन के अध्यक्ष. दिल्ली, हिमाचल में एक समाचार समूह में कार्यरत रहे. फिलहाल निजी टीवी चैनल इंडिया न्यूज में. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया में भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों के संपादकों से भिन्न श्रमजीवी पत्रकार कैटेगरी में सदस्य. करीब 25 साल का पत्रकारिता का अनुभव. दिल्ली में रहते हैं. बिहार जांच टीम इन्हीं की अध्यक्षता में गठित हुई थी.

3. कल्याण बरुआ - पूर्वोत्तर के अंगरेजी समाचार पत्र असम ट्रिब्यून के दिल्ली ब्यूरो चीफ. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया में भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों के संपादकों से भिन्न श्रमजीवी पत्रकार कैटेगरी में सदस्य. पत्रकारिता का लंबा अनुभव. दिल्ली में रहते हैं.

झूठे आरएनआइ रजिस्ट्रेशन से विज्ञापन लेना

आरएनआइ रजिस्ट्रेशन को लेकर प्रेस परिषद की रिपेर्ट में लगभग दो-सवा दो पेज सामग्री है. आरएनआइ रजिस्ट्रेशन से जुड़े गंभीर आरोप अखबारों पर लगाये गये हैं. पर प्रभात खबर अपना पक्ष रखना चाहता है कि यह नितांत झूठा, आधारहीन और बगैर सच्चई में गये प्रभात खबर पर लगाया गया आरोप है.

 

रिपोर्ट में कहा गया है कि तीन बड़े अखबारों (जिनमें प्रभात खबर भी है) ने झूठे आरएनआइ नंबर के जरिये करोड़ों रु पये के विज्ञापन लिये. कमेटी को अखबारों के स्पष्ट तौर पर नाम देने से पहले क्या यह पता नहीं लगाना चाहिए था कि किसने यह काम किया और किसने नहीं? सुनी-सुनायी बातों को रिपोर्ट में जस-का-तस रख देने को तो फैक्ट फाइंडिंग नहीं कहा जा सकता. दूसरे अखबारों ने क्या किया और क्या नहीं किया, इससे हमारा कोई सरोकार नहीं, न हमें इसकी जानकारी है, लेकिन हम, प्रभात खबर को लेकर यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि प्रभात खबर ने पटना, मुजफ्फरपुर, भागलपुर व गया समेत किसी संस्करण को झूठे आरएनआइ नंबर के साथ प्रकाशित नहीं किया, भले ही इसके लिए हमें एक संस्करण की विज्ञापन दर पर बिहार के चारों संस्करणों में सरकारी विज्ञापन प्रकाशित करने पड़े हों.

 

हमारे लिए नियमों व नीतियों का पालन सर्वोपरि है, न कि नियमों-नीतियों को धता बता कर पैसे कमाना. कमेटी द्वारा बिना जांच-पड़ताल के गलत तथ्य पेश कर प्रभात खबर पर भी ऐसा आरोप लगाना संवैधानिक संस्था प्रेस काउंसिल व जांच करने की नैसर्गिक -न्याय प्रणाली प्रक्रिया या सिद्धांत का अपमान है? प्रेस काउंसिल की इस पूरी जांच टीम को या तो तथ्यों के साथ प्रभात खबर पर यह आरोप सिद्ध करना चाहिए या फिर अपनी रिपोर्ट को ही सार्वजनिक रूप से झूठी रिपोर्ट कहनी चाहिए. जैसे हम अपनी भूल या गलती के लिए सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगने को तैयार है, उसी तरह प्रेस काउंसिल की इस जांच टीम को भी अपनी रिपोर्ट में उल्लिखित झूठे तथ्यों की जवाबदेही लेनी चाहिए.

 

प्रेस काउंसिल के चेयरमैन आजकल सच के स्वघोषित प्रवक्ता-पक्षधर हैं, पर यहां वह बिना प्रमाण किसी अखबार पर अत्यंत गंभीर (पर झूठे) आरोप लगाने की भूमिका में हैं? हमारी न्यूनतम अपेक्षा है कि इस तथ्य को जांचें. प्रेस परिषद को इस भ्रामक व झूठी रिपोर्ट की जवाबदेही लेनी चाहिए. इस पाप का प्रायश्चित करना चाहिए. सार्वजनिक रूप से.


http://www.prabhatkhabar.com/node/284478?page=show


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