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न्यूज क्लिपिंग्स् | डीजल की कीमतों में छिपी गुत्थियां - परंजॉय गुहा ठाकुरता

डीजल की कीमतों में छिपी गुत्थियां - परंजॉय गुहा ठाकुरता

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published Published on Oct 27, 2014   modified Modified on Oct 27, 2014
कि अपेक्षा थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने देश में सर्वाधिक उपयोग किए जाने वाले पेट्रोलियम उत्पाद डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने का निर्णय ले लिया। कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में जो अप्रत्याशित गिरावट आई, उससे उत्साहित होकर ही सरकार डीजल की कीमतों में कटौती करने का निर्णय ले सकी है। किंतु डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने के अपने जोखिम और अनिश्चितताएं हैं। देर-सबेर पेट्रोलियम की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में फिर उछाल आना ही है, तब डीजल की घरेलू कीमतें भी तेजी से बढ़ेंगी और उसके साथ ही महंगाई का दुष्चक्र भी शुरू हो जाएगा।

जनवरी 2009 के बाद पहली बार डीजल की कीमतों में कटौती की गई है। तब डीजल के दामों में दो रुपए प्रति लीटर कटौती करने के बाद उसकी कीमत 31 रुपए हो गई थी। लेकिन तब से अब तक छोटी-छोटी किश्तों में डीजल के दामों में बढ़ोतरी की जाती रही और गत सितंबर में उसके दाम 59 रुपए प्रति लीटर थे। जनवरी 2013 से अब तक ही डीजल के दामों में कम से कम 19 बार इजाफा किया गया था। डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त किए जाने के बाद उस पर अब सबसिडी नहीं दी जाएगी और इससे मौजूदा वित्त वर्ष में ही सरकार को 10 हजार करोड़ रुपयों की बचत होगी। सरकार की दलील है कि डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त कर देने से ऑटोमोबाइल फ्यूल रिटेल सेक्टर में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और इससे तेल कंपनियों द्वारा मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं में दक्षता आएगी। प्रतिस्पर्धा से अंतत: उपभोक्ताओं को ही लाभ होगा।

आज यह स्थिति है कि भारत को अपनी कच्चे तेल की जरूरत का लगभग 80 फीसद हिस्सा आयात करना पड़ता है। तेल की वैश्विक कीमतों में गिरावट वित्त मंत्री अरुण जेटली के लिए बहुत अच्छी खबर है। जेटली ने अपने बजट में मोटे तौर पर अनुमान लगाया था कि तेल की कीमतें 110 डॉलर प्रति बैरल रहेंगी, जबकि वे आज 80 डॉलर प्रति बैरल के आसपास हैं। तेल का आयात देश के कुल आयात के एक-तिहाई के बराबर है और आयातित तेल का एक-तिहाई हिस्सा खाड़ी मुल्कों से आता है। इससे पहले वर्ष 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने पेट्रोल और डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त कर दिया था, लेकिन यूपीए की सरकार बनने और मणिशंकर अय्यर द्वारा पेट्रोलियम मंत्रालय की कमान संभालने के बाद कीमतों को फिर से सरकारी नियंत्रण में ला दिया गया था। अलबत्ता यूपीए2 के दौरान वर्ष 2010 में पेट्रोल की कीमतों को अवश्य फिर से नियंत्रणमुक्त कर दिया गया था।

फिलहाल तो यह निश्चित है कि डीजल की कीमतों में कटौती से महंगाई पर और लगाम कस जाएगी। अगर मुद्रास्फीति में गिरावट कायम रहती है तो रिजर्व बैंक भी ब्याज दरों में कटौती के बारे में विचार कर सकता है। आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन तो पहले ही साफ कह चुके थे कि जब दुनिया में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट आ रही है तो सरकार को डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त कर देना चाहिए। सरकार के इस निर्णय के बाद अब केवल दो पेट्रोलियम उत्पाद सबसिडीयुक्त रह जाएंगे : केरोसीन और रसोई गैस। सबसिडी पर सरकार का खर्चा घटा तो वह वित्तीय घाटे को मौजूदा वित्त वर्ष में जीडीपी के 4.1 फीसद पर ही रोकने के अपने लक्ष्य को भी अर्जित करने में सक्षम रहेगी।

डीजल की कीमतों के नियंत्रणमुक्त होने के बाद अब रिलायंस इंडस्ट्रीज और एस्सार ऑइल जैसी निजी कंपनियां फिर से अपने रिटेल आउटलेट्स खोल सकेंगी। वर्ष 2008 में तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में उछाल आने के बाद रिलायंस इंडस्ट्रीज ने देशभर में संचालित अपने 1432 रिटेल आउटलेट्स को बंद करने का निर्णय ले लिया था। इनमें से कुछ पर उसका स्वयं का नियंत्रण था तो कुछ पर उसकी फ्रेंचाइजी या सहायकों का। जब रिलायंस ने अपने आउटलेट बंद किए, तब आईओसी, हिंदुस्तान पेट्रोलियम और भारत पेट्रोलियम के आउटलेट्स की तुलना में वह डीजल पर पूरे 14 रुपए प्रति लीटर अधिक दाम वसूल रहा था!

जैसा कि संकेत किया जा चुका है, डीजल की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने के कुछ खतरे भी हैं। सरकार को इस बारे में पहले ही सचेत रहना चाहिए कि यदि भविष्य में तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में उछाल आता है तो वह क्या कदम उठाएगी। क्योंकि उस स्थिति में खाद्य पदार्थों की महंगाई पर लगाम लगाना उसके लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा। बीते कुछ सालों में तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के बारे में कोई भी सटीक अनुमान लगा पाना बेहद कठिन रहा है। वर्ष 2008 में कच्चे तेल की कीमतें 40 डॉलर प्रति बैरल से उछलकर सीधे 147 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई थीं। 2009 और 2010 में कीमतें 90 के आंकड़े पर स्थिर बनी रहीं, लेकिन फरवरी 2011 में 'अरब-वसंत" की घटनाओं के बाद वे 120 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई थीं। कुल-मिलाकर यह कि तेल की कीमतों के बारे में कोई भी ठीक-ठीक पूर्वानुमान नहीं लगा सकता।

यह सचमुच रोचक है कि आज जहां इराक, लीबिया और यूक्रेन संकटग्रस्त हैं, वहीं तेल की कीमतों में न केवल गिरावट जारी है, बल्कि फिलवक्त वह चार सालों के अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच गई है। इसका एक बड़ा कारण तो अमेरिका में शेल गैस की उपलब्धता में भारी इजाफा है। वहीं आर्थिक मंदी से अब भी उबरने की कोशिश कर रहे यूरोप के देशों की मांग में कमी भी इस गिरावट का एक कारण है।

केंद्र सरकार अभी तक बहुत भाग्यशाली साबित हुई है। मोदी और जेटली उम्मीद करेंगे कि यह सौभाग्य अल्पकालिक साबित न हो और तेल की कीमतों के संबंध में उन्हें निकट भविष्य में किन्हीं असुविधाजनक सच्चाइयों का सामना न करना पड़े।

- लेखक स्‍वतंत्र पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं


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