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न्यूज क्लिपिंग्स् | ड्रग मार्केट में कंपटीशन बढ़ाइए-- डा. भरत झुनझुनवाला

ड्रग मार्केट में कंपटीशन बढ़ाइए-- डा. भरत झुनझुनवाला

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published Published on Sep 6, 2016   modified Modified on Sep 6, 2016

यूपीए सरकार द्वारा लगभग 400 दवाओं के दाम तय कर दिये गये थे. वर्तमान एनडीए सरकार ने 450 और दवाओं के दाम निर्धारित कर दिये हैं. 350 और दवाओं के दाम निर्धारित करने की प्रक्रिया चल रही है. सरकार का यह कदम सही दिशा में है.

 


दवाओं के बाजार के दो हिस्से हैं. पहला हिस्सा जेनेरिक दवाओं का है. अकसर दवाओं में एक केमिकल होता है. 

दवा को इस केमिकल के नाम से बेचा जा सकता है, लेकिन कई कंपनियां उस दवा को विशेष नाम से बेचती हैं. जैसे बुखार उतरने की दवा का मूल नाम पैरासिटामोल है. यह बाजार में पैरासिटामोल के नाम से भी उपलब्ध है, लेकिन दूसरी कंपनियां इसी दवा को क्रोसिन अथवा सैरीडान के नाम से बेचती हैं. जब किसी दवा को विशेष कंपनी द्वारा दिये गये नाम से बेचा जाता है, तो उसे ‘ब्रांडेड' कहा जाता है. इन दवाओं को बनाने-बेचने पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है. 

दवा कंपनियां अकसर इन दवाओं को ऊंचे दाम पर बेचती हैं. इनके द्वारा विज्ञापन किये जाते हैं. सेल्स रिप्रेजेंटेटिव तैनात किये जाते हैं. डाॅक्टरों को गिफ्ट एवं कमीशन दिये जाते हैं.

जैसे किसी दवा को एक कंपनी 10 रुपये में बेच रही है. उसी दवा को दूसरी कंपनी अपना ब्रांड लगा कर 50 रुपये में बेचती है. इस 50 रुपये में से वह 10 रुपये का कमीशन डाॅक्टरों को दे देती है. डॉक्टर मरीजों को 50 रुपये की महंगी दवा लिखते हैं. मरीजों को इस बात का भान ही नहीं होता कि यही दवा कम दाम में उपलब्ध है. 

इन दवाओं के दाम पर नियंत्रण करने का अधिकार सरकार के पास ड्रग प्राइस कंट्रोल आॅर्डर के अंतर्गत है. सरकार की मंशा है कि अधिक मात्रा में दवाओं को मरीजों को उचित दाम पर उपलब्ध कराया जाये. लेकिन, प्रशासनिक स्तर पर मूल्य निर्धारण में कई समस्याएं हैं. पहली समस्या भ्रष्टाचार की है. ड्रग इंस्पेक्टर को घूस खाने के अवसर खुल जाते हैं. दूसरी समस्या है कि मूल्य को लेकर विवाद बना रहता है. ड्रग कंपनियों की शिकायत रहती है कि मूल्य नीचे निर्धारित किये गये हैं, जबकि जनता की शिकायत रहती है कि ये ऊंचे हैं. तीसरी समस्या है कि लगभग 900 दवाओं को बनानेवाली सैकड़ों कंपनियों पर निगरानी रख पाना बहुत दुष्कर कार्य है. चौथी समस्या है कि दवा की गुणवत्ता की जांच करना कठिन होता है.

सरकार द्वारा दाम कम निर्धारित करने पर कंपनी द्वारा दवा की गुणवत्ता को गिराया जा सकता है. ऐसे में दवाओं के मूल्य न्यून बने रहें, इसके लिए सरकार को कई दूसरे कदम भी उठाने चाहिए.

पहला कदम है कि सामान्य दवाओं पर ब्रांड लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया जाये. साथ ही डाॅक्टरों पर प्रतिबंध लगाया जाये कि वे जेनेरिक दवाओं के पर्चे लिखें व निर्माता कंपनी का नाम पर्चे पर न लिखें. ड्रग कंपनियों एवं डाॅक्टरों के अपवित्र गंठबंधन द्वारा मरीज को अनायास महंगी दवा खरीदने की मजबूरी नहीं रहेगी. अध्ययन बताते हैं कि अकसर गोलियों में बतायी गयी मात्रा से कम दवा होती है. सरकार को दवाओं का परीक्षण कराना चाहिए. दुकानदारों को निर्देश दिया जाये कि उस परीक्षण रिपोर्ट को दुकान में टांगें. तब खरीददार अपने विवेक के अनुसार दवा खरीद सकेगा. इन कदमों का प्रभाव दीर्घकालिक होगा. भ्रष्टाचार के अवसर भी नहीं खुलेंगे. 

दवाओं का दूसरा हिस्सा पेटेंटीकृत दवाओं का है. ड्रग कंपनियों द्वारा नयी दवाओं का आविष्कार किया जाता है. इन दवाओं पर कंपनी द्वारा पेटेंट हासिल किया जाता है. पेटेंट कानून के तहत इन दवाओं को बनाने एवं बेचने का एकाधिकार पेटेंटधारक कंपनी के पास रहता है. पेटेंटधारक कंपनी द्वारा 20 वर्षों तक दवाओं को मनचाही कीमतों पर बेचा जाता है. ड्रग कंपनियों का तर्क है कि दवा के अाविष्कार में उनके द्वारा भारी निवेश किया गया है. 

इस निवेश को वसूलने के लिए उन्हें दवा के ऊंचे दाम रखना अनिवार्य है. दवाओं को ऊंचे दाम पर बेच कर कमाये गये लाभांश से ही वे दवा के क्षेत्र में रिसर्च में निवेश कर सकेंगे और नयी दवा का आविष्कार कर सकेंगे. ड्रग कंपनियों की यह दलील सही भी है. 

बावजूद इसके, पेटेंटीकृत दवाओं के दाम पर भी कुछ नियंत्रण जरूरी है. कारण कि ड्रग कंपनियों द्वारा कमाये गये लाभ का एक अंश ही भविष्य के रिसर्च में निवेश किया जाता है. शेष लाभ मालिकों अथवा शेयर धारकों को होता है. इन दवाओं के ऊंचे दाम से मरीज भी सीधे प्रभावित होते हैं. यहां प्रश्न संतुलन का है. एक ओर पूर्व में किये गये निवेश की वसूली तथा भविष्य में किया जानेवाला निवेश है. दूसरी ओर मरीज का हित है. दोनों तर्क मजबूत हैं. किसी वैज्ञानिक कसौटी पर दाम तय कर पाना कठिन है. यह निर्णय राजनीतिक है.

सरकार को ही इस संतुलन को स्थापित करना चाहिए. केंद्र सरकार ने पेटेंटीकृत दवा के दाम निर्धारित करने को 2007 में एक कमेटी बनायी थी. इस कमेटी ने पांच वर्षों के बाद अपनी रपट प्रस्तुत की. इस रपट पर निर्णय लेने के लिए दूसरी कमेटी विचार कर रही है. सरकार को चाहिए कि ऐसी ढिलाई पर सख्त कदम उठाये और पेटेंटीकृत दवाओं के मूल्य निर्धारण की पाॅलिसी शीघ्र बना कर जनता को राहत दे.

 


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/856392.html


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