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न्यूज क्लिपिंग्स् | तर्कशीलता की मशाल- सुभाष गताडे का आलेख

तर्कशीलता की मशाल- सुभाष गताडे का आलेख

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published Published on Aug 29, 2013   modified Modified on Aug 29, 2013
जनसत्ता 28 अगस्त, 2013 : गए साल मार्च की बात है, जब मुंबई के एक उपनगर के गिरजाघर में सलीब पर टंगी ईसा मसीह की प्रतिमा के पैर से टपक रहे जल ने तहलका मचा दिया था। हजारों की तादाद में वहां भीड़ जुटने लगी और ईसा मसीह के ‘टपकते आंसुओं’ से भावविह्वल होती नजर आई। मेले जैसा दृश्य बन गया। टीवी वालों ने इस ‘चमत्कार’ का सजीव प्रसारण शुरू कर दिया। इंडियन रेशनलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष सनल एडमारूकु ने घटनास्थल पर जाकर मुआयना किया और अपनी पैनी निगाहों से यह पता करने में उन्हें वक्त नहीं लगा कि इस ‘चमत्कार’ की जड़ बगल के वॉशिंग रूम की निकासी में है, जहों से कैपिलरी एक्शन के जरिए पानी जीसस के पैरों तक पहुंच रहा है। (किसी ठोस पदार्थ की सतह पर किसी द्रव्यपदार्थ की हरकत, जो ठोस पदार्थ के परमाणुओं और द्रव्यपदार्थ के परमाणुओं के आकर्षण से निर्मित होती है, उसे कैपिलरी एक्शन कहते हैं। पेपर टॉवेल इसी सिद्धांत पर चलता है। )
बाद में एक लाइव टीवी कार्यक्रम में सनल एडमारूकु ने इस घटना को स्पष्ट करते हुए चर्च अधिकारियों पर ‘चमत्कार की मार्केंिटंग’ करने और भोले लोगों को बेवकूफ बनाने का आरोप लगाया। एक तीखी बहस चल पड़ी, जिसमें चर्च के पदाधिकारियों ने अपनी आस्था की दुहाई देते हुए सनल से माफी मांगने के लिए कहा। सनल के इनकार के बाद उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। पुलिस ने धार्मिक भावनाओं को आहत करने के नाम पर सनल के खिलाफ धारा-295 के तहत मुकदमा दर्ज किया और दिल्ली में उनके घर छापा डालने पहुंची।
वर्ष 2011 में टीवी स्टूडियो के अंदर केरल युक्ति संघम के अध्यक्ष यू कलानाथन पर हमला हुआ था। वजह यह थी कि केरल के विख्यात पद््मनाभ मंदिर के तहखानों में रखी हुई अकूत संपदा के सार्थक उपयोग पर वे अपनी राय प्रकट कर रहे थे। कुछ साल पहले उत्तर भारत के एक चर्चित संत- जिनका हरियाणा और पंजाब की राजनीति में भी काफी दखल रहता है- के आश्रम में हुई यौन अत्याचारों की घटनाओं का खुलासा हुआ था। इस संत के खिलाफ मुहिम चलाने वाले पत्रकार छत्रपति पर कातिलाना हमला हुआ, जिसमें बाद में उनकी मौत हो गई।
चाहे सनल पर दायर मुकदमा हो या कलानाथन पर हुआ हमला या छत्रपति जैसे पत्रकारों को जान देकर जिसकी कीमत चुकानी पड़ी हो, इस बात को आसानी से देखा जा सकता है कि सहिष्णु कहलाने वाले भारत की सरजमीं पर तर्कशीलता और बुद्धिवाद की पताका बुलंद करने वाले लोगों को किन खतरों से गुजरना पड़ता है। बीस अगस्त को पुणे में अंधश्रद्धा विरोधी आंदोलन के अगुआ डॉ नरेंद्र दाभोलकर की हत्या को इसी कड़ी में देखा जा सकता है।
अलसुबह टहलने के लिए निकलते वक्त़, जबकि ठीक साढ़े ग्यारह बजे की प्रेस-वार्ता तय थी- जहां उन्हें पर्यावरण-अनुकूल गणेश मूर्तियों के मसले पर बात रखनी थी- डॉ दाभोलकर ने यह शायद ही सोचा होगा कि ओंकारेश्वर पुल पर मौत उनका इंतजार कर रही होगी। पिछले पच्चीस वर्षों से अधिक वक्त से दाभोलकर अंधश्रद्धा के खिलाफ मुहिम में जुटे थे। उन्होंने डॉक्टरी छोड़ कर जन-जागरण के काम में अपने आप को झोंक दिया था। इस दौरान उन्हें तरह-तरह की बाधाओं, प्रताड़नाओं और हमलों का शिकार होना पड़ा। उनकी मृत्यु ने न केवल महाराष्ट्र के हर विचारशील, न्यायप्रिय व्यक्ति को अंदर से झकझोर दिया है बल्कि उसकी प्रतिक्रिया देश के अन्य हिस्सों में भी देखी जा सकती है। इस जघन्य घटना की प्रतिक्रिया राज्यसभा में भी हुई, जहां संदेह के घेरे में आई सनातन संस्था पर पाबंदी की मांग की गई।
दाभोलकर की हत्या के तत्काल बाद महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में स्वत:स्फूर्त प्रदर्शन हुए। हत्या के एक दिन बाद तमाम सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के आह्वान पर पुणे बंद रहा। जनाक्रोश से बचने और एक तरह से अपनी झेंप मिटाने के लिए कांग्रेस-राकांपा की सरकार ने अठारह साल से लंबित उस विधेयक पर अध्यादेश जारी करने का निर्णय लिया, जिसे पारित कराने के लिए दाभोलकर लंबे समय से सक्रिय थे। इस विधेयक का मकसद जादूटोना करने वालों और ऐसी प्रवृत्तियों पर रोक लगाना रहा है।
‘महाराष्ट्र प्रीवेंशन ऐंड इरेडिकेशन आॅफ ह्यूमन सैक्रिफाइस ऐंड अदर इनह्यूमन इविल प्रैक्टिसेस ऐंड ब्लैक मैजिक’ शीर्षक इस विधेयक का हिंदू अतिवादी संगठनों ने लगातार विरोध किया है। पिछले दो साल से वारकरी समुदाय के लोगों ने भी विरोध के सुर में सुर मिलाया है। फुले-रानाडे-गोपाल हरि आगरकर-आंबेडकर की विरासत को लेकर अपनी मुहिम में मुब्तिला दाभोलकर को भी इस बात का अहसास रहा होगा कि साधारण जनों की आस्था का दोहन करने वाले जिन तत्त्वों की मुखालफत अपने संगठन ‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ के बैनर तले कर रहे हैं (जिसकी दो सौ से अधिक शाखाएं महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक में हैं), वे कभी भी हमला कर सकते हैं। अपने स्वार्थों पर चोट पड़ती देख कर वे साजिश रच सकते हैं, विचारों के संग्राम में हारे हुए ये संकीर्णमना कभी भी हथियारों के प्रयोग तक जा सकते हैं। उन्हें जो आखिरी धमकी मिली, वह यह थी कि ‘याद रखना हमने गांधीजी के साथ क्या किया था, और वही तुम्हारे साथ करेंगे’। इसमें भी इन अतिवादियों ने इस बात का स्पष्ट संकेत दिया था कि वे किस हद तक जा सकते हैं और किन विचारों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। उनके बेटे हामिद ने मीडिया को बताया कि किस तरह उन्होंने उन्हें मिलने वाली धमकियों की परवाह नहीं की।
हामिद के मुताबिक ‘वे कहते थे कि उनका संघर्ष अज्ञान की समाप्ति के लिए है और उससे लड़ने के लिए उन्हें हथियारों की जरूरत नहीं है।’ उनके भाई का कहना था जब हम लोग उनसे पुलिस सुरक्षा लेने का आग्रह करते थे, तो वे कहते थे कि ‘अगर मैंने सुरक्षा ली तो वे लोग मेरे साथियों पर हमला करेंगे। और यह मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता। जो होना है मेरे साथ हो।’
पुणे के पास स्थित सतारा में जन्मे नरेंद्र दाभोलकर ने मिरज मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई की। सत्तर के दशक के प्रारंभ में ‘समाजवादी युवजन सभा’ के सक्रिय सदस्य के तौर पर अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले डॉ दाभोलकर विभिन्न सामाजिक आंदोलनों से जुड़े थे। श्रीराम लागू, नीलू फुले, रोहिणी हट्टंगडी जैसे सामाजिक सरोकार रखने वाले कलाकारों-नाटककारों को लेकर उन्होंने ‘सामाजिक कृतज्ञता निधि’ के निर्माण के लिए महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में एक मराठी नाटक का आयोजन किया था, जिसका मकसद था महाराष्ट्र में पूर्णकालिक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं को नियमित आर्थिक सहयोग प्रदान करना। फिलवक्त यह कोष एक करोड़ रुपए तक पहुंचा है, जिसके माध्यम से पैंतालीस कार्यकर्ताओं को मदद दी जाती है।
दस साल डॉक्टरी करने के बाद दाभोलकर उन्हीं दिनों बाबा आढव की अगुआई में जाति उन्मूलन के लिए चल रही ‘एक गांव एक पाणवठा’ (अर्थात एक गांव एक जलाशय) नामक मुहिम से जुड़े। इस दौरान हुए अनुभवों के कारण उन्होंने तय किया कि अंधश्रद्धा निर्मूलन पर अपने आप को केंद्रित रखेंगे। इसी मकसद से लगभग ढाई दशक पहले उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का गठन किया था। समाज में वैज्ञानिक चेतना फैलाने के काम को किस तरह एक आंदोलन की शक्ल दी जा सकती है, इसकी एक एक मिसाल उन्होंने कायम की है।
समिति के कामों के प्रभाव का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अपनी किताब ‘डिसएनचेन्टिंग इंडिया: आर्गनाइज्ड रेशनेलिज्म इन इंडिया’ (आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2012) में लेखक जोहान्स क्वैक भारत के तर्कवादी आंदोलनों पर जब निगाह डालते हैं तो इस बात का विशेष उल्लेख करते हैं कि महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति भारत का सबसे सक्रिय तर्कशील संगठन है। अतीत के अनुभवों से लेकर आज की गतिविधियों पर निगाह डालने वाली इस किताब में कई पेज समिति के कामों पर ही केंद्रित हैं। दाभोलकर के साथ साक्षात्कार से लेकर समिति के साधारण कार्यकर्ताओं से बातचीत का विवरण भी इसमें शामिल है।
प्रस्तुत किताब भारत के तर्कशील आंदोलन के अलक्षित इतिहास और उसकी तमाम शख्सियतों पर रोशनी डालती है। इसमें ज्योतिबा फुले, गोपाल आगरकर, शाहू महाराज, रामास्वामी नायकर, जवाहरलाल नेहरू, डॉ आंबेडकर, एमएन राय, गोपाराजू राव ‘गोरा’, अन्नादुराई और कई अन्य विभूतियां शामिल हैं। इस अध्ययन में उन आंदोलनों को विशेष जगह मिली है जो महात्मा फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज से प्रेरणा ग्रहण करते हैं।
इसकी वजह यही है कि संगठित तर्कवाद का एक महत्त्वपूर्ण आयाम ‘पवित्र’ घोषित किए गए सामाजिक अन्याय को चुनौती देना रहा है। भारत के तर्कवादियों को यह अहसास था कि उन्हें पश्चिमी जगत का अंधानुयायी करार दिया जा सकता है; लिहाजा इससे बचने के लिए उन्होंने अपने आप को प्राचीन भारतीय भौतिकवाद से भी जोड़ा।
समिति के कार्यकर्ता अक्सर राज्य के विभिन्न हिस्सों में जाते और तथाकथित चमत्कार दिखाने वाले बाबाओं को गिरफ्तार करवाते थे। जिन महिलाओं को डायन घोषित किया जाता था उन्हें इस लांछन और उत्पीड़न से मुक्त कराने का काम भी समिति के लोग करते थे। लोगों को वैचारिक तौर पर तैयार करने के लिए पत्रिका का प्रकाशन, व्याख्यानों, कार्यशालाओं का आयोजन भी किया जाता था। समिति की अगुआई में निर्मला देवी और नरेंद्र महाराज जैसों के खिलाफ भी आंदोलन चलाया गया, जिसके चलते उनके समर्थकों के साथ तीखा विवाद हुआ था।
वर्ष 2000 में अपने संगठन की पहल पर दाभोलकर ने राज्य की सैकड़ों महिलाओं की रैली अहमदनगर जिले के शनि शिंगणापुर मंदिर तक निकाली, जिसमें महिलाओं के लिए प्रवेश वर्जित था। रूढ़िवादी तत्त्वों और शिवसेना-भाजपा के कार्यकर्ताओं ने परंपरा और आस्था की दुहाई देते हुए महिलाओं के प्रवेश को रोकना चाहा, उनकी गिरफ्तारियां भी हुर्इं और फिर मामला मुंबई उच्च न्यायालय पहुंचा और उसकी सुनवाई पूरी होने के करीब है। वर्ष 2008 में दाभोलकर और अभिनेता-समाजकर्मी डॉ श्रीराम लागू ने ज्योतिषियों के लिए एक प्रश्नमाला तैयार की और कहा कि अगर उन्होंने तर्कशीलता की परीक्षा पास की तो उन्हें पुरस्कार मिल सकता है। अभी तक इस पर दावा ठोंकने के लिए उनमें से कोई भी आगे नहीं आया।
प्रतिक्रियावादी तत्त्व भले ही दाभोलकर को मारने में सफल हुए हों, लेकिन जिस तरह से उनकी हत्या हुई है उसने तमाम नए लोगों को भी दिमागी गुलामी के खिलाफ जारी इस व्यापक मुहिम से जोड़ा है। तर्कशीलता और बुद्धिवाद के लिए हुई दाभोलकर की शहादत हमारे सामने कई नए सवाल खड़े करती है। हमारे इर्दगिर्द अतार्किकता का उभार क्यों दिख रहा है? आखिर किस वजह से तर्कशीलता और असहमति पर आक्रमण विभिन्न तरह के धार्मिक कट््टरपंथियों के एजेंडे में सिमट जाता है? आखिर क्यों मीडिया अतार्किकता को बढ़ावा देने में मुब्तिला है? क्यों एक ‘पॉप आध्यात्मिकता’ एक विशाल उद्योग में तब्दील हो गई है? आज सेक्युलर होने के क्या मायने हैं? अतार्किकता की इस बढ़ती लहर का मुकाबला करने के लिए हमारे पास किस तरह के बौद्धिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक संसाधन मौजूद हैं?
महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों पर हुई रैलियों में तमाम बैनरों-पोस्टरों में एक छोटे-से पोस्टर ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, जिस पर लिखा था ‘आम्ही सगले दाभोलकर’ (हम सब दाभोलकर)। चार्वाकों के इस अनूठे वारिस को इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या हो सकती थी!

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/51047-2013-08-28-05-29-02


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