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न्यूज क्लिपिंग्स् | तेल पर मिलकर चलने को तैयार - सुषमा रामचंद्रन

तेल पर मिलकर चलने को तैयार - सुषमा रामचंद्रन

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published Published on Apr 18, 2018   modified Modified on Apr 18, 2018
हाल ही में ऐसे संकेत मिले हैं कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों से निपटने के लिए भारत और चीन मिलकर प्रयास कर सकते हैं। यदि ऐसा है तो यह निश्चित ही स्वागतयोग्य घटनाक्रम है। इसका मतलब है कि आर्थिक हितों को तवज्जो देते हुए विदेश नीति में अब कहीं ज्यादा व्यावहारिक रवैया अपनाया जा रहा है। दुनिया में अमेरिका के बाद भारत और चीन कच्चे तेल के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं। इनकी सहभागिता इन्हें वैश्विक बाजार में अजेय ताकत बना देगी। हाल ही में संपन्न् अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा फोरम की बैठक में भारतीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान व चीन के राष्ट्रीय ऊर्जा प्रशासन के प्रतिनिधि ने स्पष्ट किया कि दोनों देश तेल की कीमतों को लेकर मिलकर काम करने की योजना बना रहे हैं। बताते हैं कि इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन व चायना नेशनल पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन को निर्देशित किया गया है कि वैश्विक तेल उत्पादकों से कीमतों के मामले में दोनों मिलकर सौदेबाजी करें।

 

दोनों देशों के इस संयुक्त कदम के पीछे अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में उछाल की प्रवृत्ति है, जिसकी वजह से दोनों देशों की विकास योजनाओं को झटका लग सकता है। हाल-फिलहाल सीरिया पर अमेरिकी मिसाइलों के हमले के बाद वैश्विक तनाव के माहौल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में तीव्र उछाल देखा गया। कच्चे तेल का एक प्रमुख बेंचमार्क, ब्रेंट 72 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गया। हालांकि भारतीय बास्केट के कच्चे तेल की कीमत 63 डॉलर प्रति बैरल के आसपास हैं। लेकिन यह वर्ष 2016-17 में भारतीय बास्केट के लिए औसतन 46.75 डॉलर प्रति बैरल के मुकाबले अब भी काफी ज्यादा है। अगले छह महीनों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें क्या होंगी, इसे लेकर कोई भी अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है क्योंकि मध्य-पूर्व में तनाव और बढ़ सकता है। अमेरिका और चीन के बीच जारी ट्रेड वॉर का असर भी इस पर पड़ सकता है। इसके साथ-साथ ऑयल कार्टेल, तेल उत्पादक देशों के संगठन 'ओपेक का जोर इस पर है कि सदस्य देशों के उत्पादन कोटे में कटौती की जाए, ताकि कीमतों को गिरने से बचाया जा सके।

बहरहाल, भारत और चीन तेल की कीमतों को लेकर अपनी इस साझेदारी के साथ ऐसे अहम मसलों को उठा सकते हैं, जो दोनों के लिए फौरी चिंता का विषय हैं। इसमें एक बड़ा मसला इस क्षेत्र के देशों को कच्चे तेल की बिक्री में कथित एशियाई प्रीमियम का है। कच्चे तेल के क्रय के बदले में यूरोप व उत्तरी अमेरिका के देशों के मुकाबले एशियाई देशों को कुछ अधिक कीमत चुकानी पड़ती है। इसे एशियाई प्रीमियम की संज्ञा दी गई है। इस एशियाई प्रीमियम को लेकर कारण यह दिया जाता है कि पश्चिमी देशों के लिए तेल की कीमतें दूसरे उत्पादक स्रोतों और ब्रेंट व वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट जैसे कच्चे तेल के बेंचमार्कों के आधार पर प्रस्तावित की जाती हैं। दूसरी ओर, एशियाई देशों के लिए तेल आपूर्तियां दुबई या ओमान के कच्चे तेल बाजारों से जुड़ी होती हैं, जिससे कीमतें अपेक्षाकृत उच्च होती हैं। हालिया दौर में भारत लगातार इस एशियाई प्रीमियम को खत्म करने की मांग करता रहा है, बल्कि उसका तो कहना है कि डिस्काउंट दिया जाना चाहिए, चूंकि इस क्षेत्र के देशों द्वारा दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा कच्चा तेल खरीदा जाता है। चीन और भारत दुनिया में सबसे बड़े तेल आयातक हैं। जबकि अमेरिका अब भी तेल की खपत वाला सबसे बड़ा देश है। वह प्रतिदिन 19.53 मिलियन बैरल तेल का उपभोग करता है, जो कि वैश्विक खपत का 20 फीसदी है। चीन के संदर्भ में यह आंकड़ा 12.02 मिलियन बैरल है यानी कुल वैश्विक खपत में उसकी हिस्सेदारी 13 फीसदी है। तीसरे नंबर पर भारत है, जो 4 फीसदी हिस्सेदारी के साथ रोज 4.14 मिलियन बैरल तेल का उपभोग करता है।

 

साफ है कि वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल का 17 फीसदी उपभोग करने वाले इन दोनों देशों को अपने संयुक्त प्रभाव का इस्तेमाल करने की जरूरत है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि तेल उत्पादक देश उन्हें किसी तरह का डिस्काउंट या कहें कि एशियाई लाभांश प्रदान करें। आम धारणा के उलट दोनों देशों के बीच इस तरह की सहभागिता इनके रिश्तों को कहीं अधिक जटिल व सूक्ष्म बनाती है। डोकलाम जैसे सीमा विवादों के आधार पर ज्यादातर लोगों का मानना यही है कि भारत-चीन के संबंध तनावपूर्ण प्रकृति के हैं। हालांकि आर्थिक मोर्चे पर स्थिति काफी अलग है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बहुराष्ट्रीय एजेंसियों के समक्ष कई बार दोनों का रुख एक जैसा रहता है। मसलन, वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूटीओ) में और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत-चीन एक ही जाजम पर हैं। हाल ही में भारत ने चीन को सोयाबीन आपूर्ति का प्रस्ताव भी दिया। यह प्रस्ताव चीन द्वारा अमेरिका से सोयाबीन आयात पर टैरिफ बढ़ाए जाने के परिप्रेक्ष्य में दिया गया, चूंकि अमेरिका द्वारा भी चीन से आयात पर टैरिफ बढ़ा दिए गए थे। इस तरह चीन-अमेरिका के इस ट्रेड वॉर से हमें अनायास ही कुछ लाभ मिल सकते हैं, भले ही ये अल्पकालिक हों।

 

बहरहाल, यदि तेल की खरीदारी में भारत-चीन की सहभागिता हकीकत बनती है, तो इससे इन दोनों बड़े तेल आयातक देशों को काफी राहत मिल सकती है। जहां तक भारत की बात है, तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतों की वजह से पिछले साल इसका इसका आयात बिल बढ़ गया। औसतन 45 डॉलर प्रति बैरल के मुकाबले तेल की कीमतें 60 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गईं। नतीजतन, वर्ष 2017-18 में तेल आयात का खर्च 87.7 अरब डॉलर हो सकता है, जबकि 2016-17 में यह आंकड़ा 71 अरब डॉलर रहा था। इसके चलते घरेलू बाजार में भी पेट्रोल, डीजल, एविएशन टरबाइन ईंधन व औद्योगिक तेल उत्पाद इत्यादि के दाम तेजी से बढ़ सकते हैं। जिससे औद्योगिक व रिटेल, दोनों ग्राहकों पर असर पड़ेगा। कीमतों में और ज्यादा बढ़ोतरी से महंगाई भी बढ़ सकती है, जिससे अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी। ऐसे में यदि दोनों देश बेहतर कीमतें पाने के लिए मिलकर मोलभाव करते हैं, तो इससे तेल के आयात बिल को कम करने में काफी मदद मिल सकती है।

 

यदि मिलकर सौदेबाजी की यह पहल सफल होती है, तो दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसी ही सहभागिता की राह खुल सकती है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समक्ष अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई साझा मसले होते हैं, लेकिन वे समन्वित रूप से कोई प्रभावी रणनीति नहीं बना पाते। नतीजतन, विकसित देश हावी होने में सफल रहते हैं, जैसा बहुपक्षीय व्यापार वार्ताओं में होता रहा है। अमीर देश अपनी भारी-भरकम खाद्य सबसिडी को जायज ठहराते हैं और भारत जैसे देश में गरीब किसानों को मदद दिए जाने पर उंगलियां उठाने लगते हैं। लिहाजा ऊर्जा सहभागिता में यह अच्छी शुरुआत है। हम तो यही उम्मीद करेंगे कि अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में भी इसका विस्तार हो।

 

(लेखिका वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक हैं)


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