Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | दलित मुक्ति के मायने- मोहनदास नैमिशराय

दलित मुक्ति के मायने- मोहनदास नैमिशराय

Share this article Share this article
published Published on Oct 14, 2013   modified Modified on Oct 14, 2013

जनसत्ता 14 अक्तबूर, 2013 : मुक्ति के दरवाजे खोलने वाले विशेष महापुरुषों और धर्मात्माओं की सूची बनाई जाए तो एक दर्जन ऐसी हस्तियां तो रही होंगी, जिनके आह्वान पर लाखों लोगों ने चलना स्वीकार किया।

उन शख्सियतों के द्वारा किए गए आह्वान, उनके प्रेरक विचारों, उनके संघर्षों के दस्तावेजों के पन्नों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है। यूरोप के इतिहास को देखें तो मार्टिन लूथर किंग ने गोरों की क्रूर परंपराओं से अश्वेत समाज को मुक्त किया था। हालांकि धर्म वही रहा। गिरजे वही रहे, इबादत वही रही। दोनों के आराध्य ईसा मसीह ही रहे। फिर भी अफ्रीकी और यूरोपीय समाज में बहुत कुछ बदला। सामाजिक न्याय के नए विचार आए। प्राचीन दर्शन-पोथियों के स्थान पर नए दर्शन की किताबें लिखी गर्इं। कहना न होगा कि पश्चिम में बदलाव की जो आंधी चली, उससे भारत भी नहीं बच सका। विशेष रूप से हिंदू धर्म, वर्ण व्यवस्था, परंपराओं और प्रथाओं को चुनौती मिलनी आरंभ हुई। मुक्ति के इन्हीं सवालों को लेकर खुद बाबासाहब डॉ भीमराव आंबेडकर हिंदू धर्माधिकारियों, शंकराचार्यों आदि के लिए चुनौती बन गए। दलितों के लिए धार्मिक रूप में आंबेडकर ने नए पथ का निर्माण किया, जिसे हर वर्ष चौदह अक्तूबर को धम्मचक्र परिवर्तन दिवस के रूप में याद किया जाता है।


असल में एक दर्शन से दूसरे दर्शन या विचार स्वीकार करने के संबंध में यह उन तमाम लोगों के लिए धम्म पर्व है जिन्होंने गुलामी से आजादी के परिवेश में प्रवेश किया, जिन्होंने तथागत बुद्ध को स्वीकार किया, जिन्होंने आंबेडकर को स्वीकार किया। मानवीय मूल्यों के लिए इस दिन को हम क्रांति दिवस भी मान सकते हैं। समता और बंधुत्व को आगे बढ़ाने के लिए पहल भी कह सकते हैं। क्योंकि रक्त की एक बूंद बहाए बिना आंबेडकर ने वह कर दिखाया, जो शायद दुनिया के किसी हिस्से में न हुआ हो। नेहरू युग में पंचशील के सिद्धांतों को इसी धम्म क्रांति की अगली कड़ी के रूप में आगे बढ़ाया गया था। विश्व ने वह सब देखा और महसूस किया था। भारतीय अस्मिता को इससे तनिक खरोंच नहीं आई थी। तथागत बुद्ध का पहले से अधिक सम्मान हुआ था।


पर इधर देखा गया है कि उसी पर्व को अलग और अजीबोगरीब तरह से मनाने का चलन अधिकतर दलितों में घर करता जा रहा है, जिसे हवा देने का काम दलित नेताओं ने खूब किया। वैसा 1956 से पहले भी हुआ था और बाद के दौर में भी हुआ। सामाजिक बदलाव के लिए प्रेरक बनना अच्छी बात है, लेकिन समाज में धर्म के नाम पर ध्वंस करना गलत है। अधिकतर दलित नेता और सामाजिक कार्यकर्ता भी वैसा ही आह्वान करते हैं, यानी हिंदू धर्म को छोड़ दो। यहां तक तो चलो ठीक है, पर हिंदू धर्म पर थूक दो, उसकी व्यवस्था, आचार-विचार, परंपरा और प्रथाओं को कूड़े में फेंक दो, इन सब को सुनाने, कहने का क्या औचित्य है? धर्म परिवर्तन मजमा लगा कर तो नहीं किए जाते न ही लोगों को भड़का कर मनुष्य समाज में बदलाव किए जाते हैं। और यह सब सिर्फ अक्तूबर माह में नहीं, बीच-बीच में भी किया जाता रहा है।


कुछ दलित नेताओं का यह भी आह्वान होता है कि दलित पहले हिंदू लबादा छोड़ें। वे बाद में ईसाई बने या मुसलमान इसकी उन्हें चिंता नहीं। ऐसा हुआ भी। आजादी के बाद से कई लाख दलित ईसाई भी बने और मुसलमान भी। हालांकि वे बौद्ध भी बने। लेकिन जो ईसाई या मुसलमान बन गए उन्हें न भगवान बुद्ध से कुछ लेना-देना रहा, न आंबेडकर से। दलित ईसाइयों के घरों में जीसिस जरूर आ गए। क्योंकि उनकी तस्वीर वहां टांगना जरूरी हो गया। वैसे ही दलित मुसलमानों के घरों में मक्का-मदीना की तस्वीरें आ गर्इं। उनके जीवन में मस्जिद आ गई। ईश्वर की जगह अल्लाह आ गया। स्कूल की जगह मकतब आ गया और नमस्ते के स्थान पर सलाम वालेकुम आ गया।


मूल बात यह कि वे सब संस्कार बदल गए, परंपराएं बदल गर्इं। यहां तक कि जीवन के रास्ते बदल गए। व्यवसाय बदल गए। परिवेश बदल गया। नए सोच-विचार का उदय हुआ। नई जीवन धारा बनी, जिसने पुरानी धारा को काट कर एक तरफ फेंक दिया।


कहना न होगा कि हड़बड़ाहट और घबराहट में जिन दलितों ने धर्म परिवर्तन किया, ईसाई बने या मुसलमान, वे न इधर के रहे न उधर के। उनका जीवन द्विभाषी बन गया। उनके जीवन की रेखाओं में विसंगतियां आ गर्इं। वे अजीब धर्म-संकट में फंस गए। और इस स्थिति से उबर नहीं सके। निरंतर धर्म के दलदल में धंसते चले गए। उनके बाद की पीढ़ियों का हश्र भी वैसा ही हुआ। बाबासाहब ने क्या कभी ऐसा सोचा था? क्या उन्होंने दलितों की ऐसी स्थिति हो जाएगी, इसकी कल्पना की थी? वे सजग थे और सतर्क भी। पर उनके बाद की पीढ़ी न सजग रही न सतर्क। उन्होंने राजनीति की दुकानें सजा लीं। दलितों को खूब उद्वेलित किया, गुमराह किया और अपना स्वार्थ सिद्ध किया।


धर्म कोई रंग-बिरंगे कपड़े नहीं, जब जी चाहा पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़े पहन लिए। न ही कोई मकान है कि पुराने को बेच कर नया खरीद लिया। वह कोई गुलाब का फूल भी नहीं है कि उसे क्यारी से तोड़ कर अपने ड्राइंगरूम में सजा लिया और कुछ समय बाद उसे कूड़े में फेंक दिया।

धर्म तो गंभीर रूप से हमारे जीवन में उतरता है। धर्म से हमारे संस्कार बनते हैं। हमारे भीतर स्मृतियां उतरती हैं। परंपराएं जन्म लेती हैं। धर्म एक ऐसा गंभीर दर्शन है, जिसे बदलने में, समझने में दशक-दर-दशक लग जाते हैं। धर्म विमर्श का मुद््दा हो सकता है, लेकिन खिलवाड़ करने का हरगिज नहीं। जैसा भारत में अधिकतर दलितों न किया। न उन्होंने बाबा साहब को समझा और न धर्म के मूल तत्त्व को। जिधर से भी आंधी आई, उसी तरफ वे उड़ चले। न उन्होंने शिक्षा पर ध्यान दिया न ही धर्म के दर्शन पर। सबसे बड़ी बात तो यह है कि धर्म परिवर्तन के बाद उन्होंने क्या कुछ नया किया। उनके जीवन में कौन-से नए संस्कार आए, कैसे उनकी जीवन पद्धति बदली, कैसे उनके आचार-विचार बदले।


अगर कुछ भी नहीं बदला तो फिर धर्म परिवर्तन का औचित्य क्या रहा। कैसे वे सिद्ध करेंगे कि वे मुक्त हुए या उन्हें मुक्ति का रास्ता मिल गया। चलो मान लिया कि उन्होंने मुक्ति का रास्ता तलाश भी कर लिया तो क्या वे उस रास्ते पर चले। क्या उनकी जीवनचर्या में अंतर आया। क्या उनके घरों और बस्तियों में वैसा परिवर्तन देखा जा सकता है। क्या उनकी आदतों में परिवर्तन आया, क्या वे जातियों और उपजातियों से पीछा छुड़ा सके। वे मुक्त कहां हुए। कहना न होगा कि वे सिर्फ मुक्त होने का नाटक करते रहे, क्योंकि उनके पास धर्म की पूंजी नहीं थी।


इतिहास में अगर हम जाएं तो तेरह अक्तूबर, 1935 को येवला शहर में आयोजित दलितों के सम्मेलन में आंबेडकर की ऐतिहासिक घोषणा का हमें दस्तावेज मिलता है। वह एक विद्रोह था और विस्फोट भी। उन्होंने घोषणा की ‘मैं हिंदू पैदा अवश्य हुआ हूं, पर हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।’ इस सम्मेलन में दस हजार से अधिक दलितों ने हिस्सेदारी की थी। जातिभेद की समस्या के परिणामस्वरूप दलित उत्पीड़न और उनसे भेदभाव की घटनाओं का प्रतिकार भी इसे कहा जा सकता है।


ऐसे समय मुसलिम नेता और तब के विधानसभा सदस्य केएल गौबा ने डॉ आंबेडकर को भेजे एक तार में कहा, ‘भारत के समस्त मुसलमान उनका और अछूतों का इस्लाम में स्वागत करने के लिए उतावले हैं।’ उसी समय निजाम हैदराबाद ने करोड़ों रुपयों की मदद करने की पेशकश की। बंबई के मेथाडिस्ट एपिस्कोपल चर्च के बिशप ब्रेनटन थांबर्न बैडले ने एक बयान में कहा कि वे डॉ आंबेडकर की धर्म परिवर्तन की घोषणा का स्वागत करते हैं। बिशप ने यह भी कहा ‘अगर डिप्रेस्ड क्लास के लोग जीवन में एक नए मार्ग को प्रशस्त करना चाहते हैं तो उन्हें ईसाई धर्म ग्रहण कर लेना चाहिए।’


उसी समय महाबोधि सोसाइटी, सारनाथ के सचिव ने आंबेडकर को तार भेज कर कहा, ‘सोसाइटी डॉ आंबेडकर और उनके अनुयायियों को बौद्ध धर्म अपनाने का आमंत्रण देती है।’ महाराजा पटियाला भूपिंदर सिंह ने तो अपनी बहन की शादी डॉ आंबेडकर से करने की पेशकश की थी, ताकि सिख धर्म में दीक्षित होने पर उनका मान-सम्मान बढ़ सके।


गांधी ने धर्म परिवर्तन की घोषणा का विरोध करते हुए कहा, ‘धर्म ऐसी वस्तु नहीं है, जिसको अदला-बदला जा सके।’ देखा जाए तो वह समय घोषणाओं और प्रतिक्रियाओं का था। ऐसे समय यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि आंबेडकर ने धैर्य रखा था।


धर्म परिवर्तन से देश को कोई हानि नहीं होगी, इस बारे में हिंदू शिष्टमंडल को भरोसा दिलाते हुए उन्होंने कहा, ‘मेरे कर्तव्य के तीन उद््देश्य हैं: पहला है देश, दूसरा अस्पृश्य समाज और उसके बाद आता है हिंदू समाज।’ इसी बारे में उन्होंने आगे कहा, ‘व्यक्तिगत धर्म परिवर्तन में न कोई लाभ है, न कल्याण ही। जब धर्म परिवर्तन करने का अवसर आएगा, मैं सारे हिंदू नेताओं से विचार-विमर्श करूंगा। हम जो भी करेंगे एक शूरवीर सैनिक की तरह सम्मान से करेंगे।’


इस तरह 1935 से 1955 तक निरंतर बीस साल तक आंबेडकर ने सभी धर्मों का अध्ययन और चिंतन-मनन कर बौद्ध धर्म अपनाने का निश्चय किया। 1956 की शुरुआत में ‘द बुद्ध ऐंड हिज धम्म’ अंग्रेजी ग्रंथ उन्होंने पूरा किया। 15 मार्च, 1956 को आंबेडकर ने ‘द बुद्ध ऐंड हिज धम्म’ का प्राक्कथन फुलस्केप आकार के तेरह पन्नों पर अपनी शानदार शैली में लिखा। इसी माह में उन्होंने बीबीसी (लंदन) में अपनी रेडियो वार्ता में बताया, ‘मैं बुद्ध धर्म को पसंद करता हूं और जानता हूं कि यह वर्तमान परिस्थितियों में संसार के लिए क्यों कल्याणकारी है।’


मई, 1956 के आरंभ में डॉ आंबेडकर बंबई आए और 24 मई को उन्होंने नरे पार्क में बुद्ध जयंती के अवसर पर यह घोषणा की कि वे अक्तूबर माह में बौद्ध धर्म ग्रहण करेंगे। आखिर दिन, समय और स्थान भी निश्चित हो गया। 14 अक्तूबर, 1956! मराठी दलित लेखक शंकर राव खरात ने उस दिन को सीमोल्लंघन का दिन कहा है। इस दिन नागपुर की दीक्षाभूमि पर बाबा साहब आंबेडकर ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। काश, उस दिन ली गई बाईस प्रतिज्ञाओं को दलित समाज अपने आचार-विचार में उतारे तो इसी में उस ऐतिहासिक दिवस की सार्थकता होगी।


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/52811-2013-10-14-05-33-51


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close