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न्यूज क्लिपिंग्स् | दाने-दाने की राजनीति

दाने-दाने की राजनीति

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published Published on Aug 10, 2010   modified Modified on Aug 10, 2010
इण्डिया और भारत के बीच की गहरी खाई में दो रोटियों के लिए स्कूल पहुंचने वाले बच्चों को पकाने वाले की जाति पर गुस्सा आ जाए यह बात अपने आप में चौंकाने वाली है

 

अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाए जिसमें इंसान को बस इंसान बनाया जाए

84 वर्षीय गीतकार गोपालदास नीरज ने अभी हाल में लखनऊ में अपने एक सम्मान समारोह में जब यह पक्तियाँ गाईं तो समूचा सभागार तालियों से गूंज उठा. लगभग उसी समय लखनऊ तक मध्य उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों से उठी एक और गूंज भी पहुंच रही थी और वह गूंज थी घृणा की गूंज मनुष्यता से नफरत की गूंज और इंसान को इंसान न मानने की गूंज. कन्नौज, फर्रूखाबाद, औरैया, शाहजहांपुर और रमाबाईनगर (कानपुर देहात) आदि जिलों में दलित रसोइयों के हाथों पका मिड डे मील न खाने को लेकर उठे विवाद की यह गूंज अब कुछ थमती इसलिए दिखाई दे रही है कि राज्य सरकार ने फिलहाल स्कूलों में मिड डे मील पकाने के लिए 24 अप्रैल से लागू रोस्टर प्रणाली समाप्त कर दी है. हम रोस्टर प्रणाली में 25 तक की छात्र संख्या पर एक और इसके बाद बढ़ती छात्र संख्या के आधार पर अधिक से अधिक 7 रसोइयों की नियुक्ति की व्यवस्था की. रोस्टर प्रणाली में पहला स्थान अनुसूचित जाति, दूसरा अनारक्षित, तीसरा अन्य पिछड़ा वर्ग,चौथा अनारक्षित] पाचवां अनुसूचित जाति] छठा सामान्य व सातवां अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित था. इसके आधार पर रसोइयों की नियुक्ति होने पर मध्य उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में एक के बाद एक कई स्कूलों में छात्रों ने दलित रसोइयों के हाथों पका मिड डे मील खाने से इनकार कर दिया. कुछ जगहों पर तो अभिभावक भी विरोध पर उतारू हो गए. कुछ जगहों पर पुलिस को भी हस्तक्षेप करना पड़ा. कई जगहों पर अभिभावकों ने बच्चों को स्कूल भेजना ही बन्द कर दिया.

 

मिड डे मील ने सांझे चूल्हे की भावना को जो चोट पहुंचाई है सरकार ने उसकी गम्भीरता को समझते हुए कुछ फौरी कदम जरूर उठाए हैं. लेकिन यह भी दुर्भाग्य ही है कि मिड डे मील को लेकर जिन मुद्दों पर विवाद उठा उनके खिलाफ हमारे दूसरे राजनीतिक दल भी कहीं खड़े नहीं दिखाई दिए इसे बेहद अफसोसजनक ही कहा जाना चाहिए कि आजादी के इतने साल बाद भी हमारे ग्रामीण समाज में रूढ़ियों की जंजीरें इस कदर जकड़ी हुई हैं कि वह इंसानी बराबरी को अब भी स्वीकार नहीं कर पा रही हैं. अफसोस इस बात पर भी होता है कि यह सब उन जगहों में शिक्षा के उन मन्दिरों में हो रहा है जहां से हम समानता और समरसता का पहला पाठ सीखते हैं . इंसान और इंसान के बीच भेदभाव न करने की सीख पढ़ते हैं. पहली नजर में हम इसके लिए ग्रामीण सामाजिक मानसिकता को दोषी ठहरा सकते हैं लेकिन क्या यह सही होगा, राज्य सरकार इसके पीछे विरोधी दलों का हाथ होने की आशंका जता रही है और कहा जा रहा है कि यह सब राज्य में होने जा रहे पंचायती चुनावों से पहले ग्रामीण समाज को गुमराह करने की साजिश के तहत किया जा रहा है. अगर इस आरोप को सही मान लिया जाए तो क्या यह खुद राज्य सरकार की विफलता की दास्तान नहीं है.

     गौरतलब है कि जिन जिलों में यह आग लगी है वे वही जिले हैं जहां बीएसपी ने सबसे पहले सर्वजन का नारा दिया था. दलित ब्राह्मण एकता की पहली बड़ी रैली बीएसपी के नेता नम्बर दो यानी सतीश मिश्र की ससुराल कन्नौज में ही हुई थी. तो क्या यह मान लिया जाए कि सवा तीन साल सरकार चलाने के बाद आज सर्वसमाज के नारे की हकीकत ऐसी हो गई है कि वह आदमी और आदमी में इतना अधिक फर्क करने लगी है. क्या विधानसभा चुनाव के वक्त का जातीय गठजोड़ महज एक चुनावी तिकड़म था या फिर यह कि जिस भावना और लाभ के लिए यह गठजोड़ हुआ था, समाज के निचले स्तर तक उसका कोई असर हुआ ही नहीं. क्या यह मान लिया जाए कि इस बेमेल गठजोड़ की यह एक स्वाभाविक पराकाष्ठा है. दरसल यह इतना जटिल मामला है कि इसे किसी एक कारण से जोड़कर देखा ही नही जा सकता. लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह मामला जितना सामाजिक है उससे कहीं अधिक सियासी है और यह भी सच है कि विधानसभा चुनावों से पहले राज्य की जनता को अभी ऐसे कई और चक्रव्यूहों से गुजरना पड़ेगा. अभी ऐसे कई और जातीय और धार्मिक मुद्दे उठेंगे जो जनता के बीच दरार पैदा करने की हर सम्भव कोशिश करेंगे. जनता को अभी और बहुत कुछ झेलने को तैयार रहना चाहिए.

मिड डे मील यानी स्कूलों में दोपहर का खाना, इस विचार को सबसे पहले तमिलनाडु में के. कामराज ने 1960 मsa अपनाया था. राष्ट्रीय स्तर पर इसे 15 अगस्त 1995 से शुरू किया गया था. लेकिन कई वर्षो तक काम चलाऊ ढंग से चलते रहने के बाद 28 नवम्बर 2001 को एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश ने इसमें फिर से जान फूंक दी. सुप्रीम कोर्ट ने सभी सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वालों को साल में कम से कम 200 दिन दोपहर का खाना देने का निर्देश दिया था. उत्तर प्रदेश में यह योजना सितम्बर 2004 से सुचारू रूप से क्रियान्वित हुई. शुरू में इसमें छात्रों को प्रतिमाह 3 किलों गेंहू या चावल बांटा जाता था लेकिन इसमें धांधली की शिकायतों के बाद पका पकाया भोजन दिया जाने लगा. वर्तमान में यह योजना उत्तर प्रदेश के 10,5500 प्राइमरी स्कूलों और 45299 जूनियर हाईस्कूलों में चल रही है. इसके तहत बच्चों को सप्ताह के 6 दिन अलग-अलग प्रकार का भोजन दिया जाता है. जिसमें प्राइमरी के बच्चों को कम से कम 100 ग्राम तथा जूनियर हाईस्कूल के बच्चों के 150 ग्राम अनाज से बना भोजन दिया जाता हैं। मसाला, तेल, सब्जी आदि के लिए सरकार की ओर से प्राइमरी स्कूलों के लिए 2.69 रूपए और जूनियर हाईस्कूलों के लिए 4.03 रूपए प्रति छात्र प्रतिदिन दिए जाते हैं. इस भोजन की व्यवस्था को चलाने के लिए ग्राम प्रधानों का भी सहयोग लिया जाता है.

उत्तर प्रदेश की ताजा घटनाएं बताती हैं कि इस योजना से बच्चों के पेट में जितना अनाज भर रहा है दिमागों में उतनी ही नफरत भी भर रही है.छूआछूत का जो सवाल सामान्य सार्वजनिक जीवन में धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा था. उसको इस विवाद ने फिर नया उभार दे दिया है.

 इस योजना को जिन उद्देश्यों से शुरू किया गया था उसमें सबसे पहला तो यही था कि बच्चों को स्कूली शिक्षा की ओर अधिक से अधिक आकृष्ट किया जा सके और बच्चे स्कूल में पूरे समय तक रूके रहें. दूसरा कारण यह था कि इसके जरिए निर्धन भारत के भूखे बच्चों का कम से कम एक वक्त का पेट भरा जा सके. इसका तीसरा मकसद यह था कि ग्रामीण स्तर पर विभिन्न जाति-धर्मो के बच्चे एक साथ बैठकर भोजन करें ताकि उनमें आपसी समझ और भाईचारा बढ़ सके. लेकिन उत्तर प्रदेश की ताजा घटनाएं बताती हैं कि इस योजना से बच्चों के पेट में जितना अनाज भर रहा है दिमागों में उतनी ही नफरत भी भर रही है.छूआछूत का जो सवाल सामान्य सार्वजनिक जीवन में धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा था. उसको इस विवाद ने फिर नया उभार दे दिया है. यह विडम्बना ही है कि यह सब उस सरकार के राज में हो रहा है जो सर्वजन के एजेंडे पर चुनाव जीती थी और जो यह बताते नहीं अघा रही थी कि सर्वसमाज के नारे से किस तरह गरीबों की दुनिया बदली जा सकती है . तो क्या इसका अर्थ यह न निकाला जाए कि बीएसपी ने विधानसभा की सीटें भले ही इस नारे के बूते जीत ली हों, लोगों के दिल वो नहीं जीत पायी है. सरकार की नीतियां और कार्यप्रणाली ऐसी नहीं रही हैं कि वह सर्वसमाज की सरकार होने का कोई ईमानदार दावा कर सके . क्या यह न माना जाए कि लोगों के मन में भरी नफरत को खत्म करने या कम करने की दिशा में कुछ कर पाने के बजाय इस सरकार के कामों से लोगों के दिलों में नफरत और ज्यादा बढ़ गई है.

मिड डे मील ने सांझे चूल्हे की भावना को जो चोट पहुंचाई है सरकार ने उसकी गम्भीरता को समझते हुए कुछ फौरी कदम जरूर उठाए हैं. लेकिन यह भी दुर्भाग्य ही है कि मिड डे मील को लेकर जिन मुद्दों पर विवाद उठा उनके खिलाफ हमारे दूसरे राजनीतिक दल भी कहीं खड़े नहीं दिखाई दिए. जातीय नफरत के सवाल उठाने वालों के खिलाफ किसी भी राजनेता की जुबान तक नही खुल पायी. जबकि मिड डे मील एक ऐसा मामला है कि जिस पर सवाल उठाने के लिए राजनीतिक दलों के पास मुद्दों की कमी नहीं. यह भी दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि दलित रसोइये के सवाल पर तो विवाद और विरोध मुखर हुआ लेकिन मिड डे मील में छिपकली मिलने, मिड डे मील में कीड़े पडे़ होने और अनाज का स्तर बेहद घटिया होने जैसे सवालों पर किसी कौम को गुस्सा नहीं आया. हमारे ग्रामीण स्कूलों की जो हालत है उनमें जब पीने को पानी तक नहीं मिल पाता तो वहां खाना पकाने में कितनी साफ-सफाई रहती होगी इसे सहज ही समझा जा सकता है. लेकिन इस सवाल पर किसी अभिभावक को गुस्सा नहीं आता, कोई इस सवाल को नहीं उठाता. किसी भी स्कूल के छात्र गंदगी मे पकाए जा रहे भोजन के खिलाफ विरोध पर उतरे हों, ऐसी कोई खबर भी कहीं से सुनाई नही देती.

इण्डिया और भारत के बीच की गहरी खाई में दो रोटियों के लिए स्कूल पहुंचने वाले बच्चों को पकाने वाले की जाति पर गुस्सा आ जाए यह बात अपने आप में चौंकाने वाली है. क्या प्रेमचन्द की गुल्लीडंडा कहानी का ग्रामीण समाज आज इतना बदल गया है, इतना असहिष्णु हो गया है या फिर यह मायावती के राजकाज की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हैं. दरअसल इस योजना को बनाने वालों की तमाम सदेच्छाओं के बावजूद यह योजना भी देश में चल रही है दूसरी कल्याणकारी योजनाओं की तरह ही भ्रष्टाचार का शिकार हो गई है. जिस एफसीआई की कृपा से देश में ग्यारह हजार सात सौ टन से ज्यादा अनाज सड़ गया है, वही एफ सी आई इस योजना के लिए भी राशन सप्लाई करती है. इसी से यह समझा जा सकता है कि मिड डे मील में बच्चों को किस तरह का अनाज खिलाया जा रहा होगा.मिड डे मील योजना करोड़ों रूपये की योजना है और भ्रष्टाचार के लिए नए-नए तरीके ढूंढ़ने में माहिर हमारी व्यवस्था के नुमाइन्दा ने इसमें भी इतनी तरह से छेद कर डाले हैं कि असल योजना ही उसमें कहीं गुम हो गई है. लेकिन इन सवालों को भी कोई नहीं उठाता .

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से महज कुछ किलोमीटर दूर बसे गांवों में आज भी लोग दाने-दाने को मोहताज हैं. गांवो में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत बंटने वाला अनाज या तो पहुंचता ही नहीं या पहुंचता भी है तो समर्थ लोगों में ही बंट जाता है. उत्तर प्रदेश में हजारों करोड़ का खाद्यान्न घोटाला कई वर्ष पहले पकड़ा गया था. इसकी सीबीआई जांच हुई थी. मामला अब भी चल रहा है. इसमें एफ सी आई के कर्मचारी-अधिकारी राज्य की सार्वजनिक वितरण व्यवस्था से जुड़े कर्मचारी-अधिकारी, विभिन्न दलों के नेता और ग्रामीण स्तर के दलाल आदि शामिल थे. गरीबों के हिस्से के करोड़ों रूपए के अनाज को बांग्लादेश, नेपाल और अन्य बाजारों में बेच दिया गया था और ऐसा कमोबेश राज्य के आधे से ज्यादा जिलों में हुआ था.लेकिन इस अंधेर के खिलाफ भी कहीं आवाज नहीं उठी और यह मामला भी धीरे-धीरे ठण्डे बस्ते की ओर जाता जा रहा है और गरीबों के नाम पर आने वाले अनाज का घोटाला आज भी बदस्तूर जारी है.

     इस बार तो हजारों टन अनाज सरकारी मशीनरी की लापरवाही के चलते सड़ ही गया है. बाजार में बीस रूपए किलो से ज्यादा मंहगा बिकने वाला गेहूं गोदामों में रख रखाव के बिना सड़ गया, बर्बाद हो गया और देश का कृषि विभाग चलाने वाले शरद पवार बेशर्मी से कहते हैं कि हमारे पास गोदामों की कमी है इसलिए गेहूं सड़ गया. शायद पवार यह नहीं मालूम कि उनके पास भूखे पेटों की भी कोई कमी नहीं है. इस गेंहू से उन पेटों को कुछ निवाले मिल जाते तो उसका सड़ने से कई गुना बेहतर इस्तेमाल हो जाता. लेकिन देश की सरकार चलाने वालों को न तो भूख का मतलब पता है और न ही उनके लिए रोटी के कोई मायने ही हैं. फ्रांस में लुई सोलहवें के जमाने में जब भूखी जनता ने पेरिस राजमहल पर धावा बोलकर रोटी का सवाल उठाया था तो रानी मैरी एन्त्वाएनेत ने कहा था ये लोग ब्रेड क्यों नहीं खाते. कुछ ऐसा ही हाल लोकतंत्र के नाम पर भेड़  की खाल ओढ़ कर   हम पर राज कर रहें भेड़ियों का भी है. किसी को इस बात पर जरा भी अफसोस नहीं कि अनाज के एक-एक दाने की कीमत क्या होती है. क्या करोड़ों लोगों का पेट भरने लायक अनाज को इस तरह बर्बाद कर देना जायज है. क्या यह मानवता के खिलाफ एक बड़ा अपराध नही हैं. क्या जाति के नाम पर निवाला ठुकरा देने वालों और गैर जिम्मेदाराना रूख के कारण लाखों लोगों का निवाला बर्बाद कर देने वालों के अपराध एक दूसरे से कमतर हैं. और क्या गरीब के लिए अनाज की भी कोई जाति होती है. इसका जवाब मायावती को भी देना चाहिए और शरद पवार की संरक्षक सोनिया गांधी को भी. लोकतंत्र में सवाल पूछने का सबसे बड़ा हक जनता को है और यह सवाल उसी जनता के हैं .यह सवाल उन सभी भूखें पेटों के हैं जो आज भी दाने-दाने को  तरस रहे हैं.

गोविन्द पंत राजू 

http://www.tehelkahindi.com/indinon/national/652.html


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