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न्यूज क्लिपिंग्स् | दुनिया में गुस्से और गैरबराबरी का नाता - एनके सिंह

दुनिया में गुस्से और गैरबराबरी का नाता - एनके सिंह

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published Published on Jan 28, 2016   modified Modified on Jan 28, 2016
दुनिया के मात्र 62 लोगों के पास विश्व के आधे लोगों की कुल संपत्ति से ज्यादा धन है। जाहिर है कि प्रकारांतर से जितना 62 लोगों के पास है, उतना शेष 350 करोड़ लोगों की कुल संपत्ति भी नहीं है। कहा तो गया था कि यह आर्थिक सुधार है, पर इन 20 सालों में फायदा मिला अमीरों को। तीन जानी-मानी आर्थिक आकलन संस्थाओं ने एक ही निष्कर्ष निकाला है कि दुनिया की संपत्ति चंद हाथों में सिमटती जा रही है। अगर 2000 से आज तक के आंकड़े आईना हैं तो भारत में भी ऊपरी एक प्रतिशत की ओर लगातार यह लक्ष्मी भागती जा रही है और 99 प्रतिशत गरीब होते जा रहे हैं।

ताज्जुब नहीं कि इन 99 प्रतिशत लोगों की अंतिम पूंजी भी एक दिन इन एक प्रतिशत धनपशुओं के पास पहुंच जाए और हम खाली हाथ खड़े हों, यह मानते हुए कि देश और दुनिया विकास कर रही है। ऑक्सफेम की रिपोर्ट के अनुसार आय और संपत्ति का रिसाव गरीबों की ओर होना था, लेकिन इन 20 सालों में यह खतरनाक रूप से ऊपर की ओर तूफान की गति से खिंचती जा रही है। यही वजह है कि भारत में पूंजी बढ़ती जा रही और असमानता भी। पांच साल पहले दुनिया की आधी से ज्यादा संपत्ति 388 लोगों के पास थी। आज मात्र 62 लोगों के पास है।

भारत आए दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने इस स्थिति पर चिंता जताते हुए इसी हफ्ते एक व्याख्यान में कहा कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था ने अगर इस असमानता पर रोक नहीं लगाई तो इसे हल करने के लिए समाज द्वारा गैर-प्रजातांत्रिक रास्ते अपनाने का खतरा है। अगर गहराई से देखें तो भारत में यह स्थिति नजर आ रही है। हर रोज देश किसी न किसी भावनात्मक मुद्दे से घिरता जा रहा है। ऐसा कोई दिन नहीं होता जब एक नया सामाजिक-भावनात्मक मुद्दा देश की प्रशांत सामूहिक चेतना को इस या उस दिशा में झकझोरता न हो। क्या कुछ दशक पहले तक भारत में किसी ने इतना सामाजिक तनाव देखा था?

ये तथ्य किसी भी समाज को क्रांति के लिए प्रेरित करने के लिए पर्याप्त कारण देते हैं। यहां क्रांति का मतलब खूनी क्रांति से नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए जन-दबाव बनाने से है। पूरे विश्व में कहीं धर्म के नाम पर खून बह रहा है तो कहीं अन्य भावनात्मक मुद्दों पर। हैदराबाद का मुद्दा दलित समाज के लिए अति-संवेदनशील हो जाता है। मालदा में डेढ़ लाख मुसलमान जुटते हैं, पर इसलिए नहीं कि उन्हें बेहतर रोजगार व शिक्षा मिले, बल्कि इसलिए कि एक माह पहले किसी नेता ने उनके धर्म के बारे में 1400 किलोमीटर दूर लखनऊ में कुछ कह दिया। कभी किसी मुसलमान या दलित नेता को उनकी शाश्वत गरीबी में रहने के खिलाफ लाखों की भीड़ जुटाते किसी ने नहीं देखा, न कोई महंत, कोई साध्वी, कोई आजम या ओवैसी पूछता है कि कैसे देश की संपत्ति एक आर्थिक चक्रवात में फंसकर एक प्रतिशत के पास जा रही है। यह भारत में क्यों हो रहा है? हमने इस बढ़ती असमानता को प्रजातांत्रिक तरीके से खत्म करने के सार्थक प्रयास नहीं किए। नतीजतन अपने गुस्से को अतार्किक व भावनात्मक मुद्दों के जरिए समाज निकाल रहा है।

हमने विश्व में नई आर्थिक नीति शुरू की। आर्थिक उदारवाद, नव-आर्थिकवाद, अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण और न जाने क्या-क्या नाम देकर। भारत ने भी इसे 1991 में अंगीकार किया। हमें बताया जाता रहा कि भारत की जीडीपी इस दौरान तीसवें पायदान से कूदकर नौवें स्थान पर आ गई है। जीडीपी विकास दर को देश की नियति का पैमाना बताया जा रहा है। किसी ने यह नहीं बताया कि 2000 में जहां देश के एक प्रतिशत संपन्न् लोगों के पास देश की 37 प्रतिशत संपत्ति थी, 2005 में वह बढ़कर 42 प्रतिशत, 2010 में 48 प्रतिशत और अब 2014-15 में 52 प्रतिशत कैसे हो गई है। एक अन्य आंकड़े के मुताबिक देश के एक प्रतिशत के पास आज 70 प्रतिशत संपत्ति है।

कालांतर में गरीब किसानों पर सामंती लोग चाबुक मारकर शोषण करते रहे थे, पर अगर 70 साल के लोकतंत्र और स्व-शासन में भी एक प्रतिशत बनाम 99 प्रतिशत के बीच चाकू-खरबूजे का रिश्ता बना रहा तो बदला क्या? हां, एक खास बात यह हुई है इस दौरान कि अब हमें अपना शोषण भी पता नहीं चलता। बाजार की ताकतों ने हमारे मन-मस्तिष्क पर एक घना कोहरा डाल दिया है। हम सोच भी नहीं पा रहे हैं कि पिछले 20 वर्षों से हर 36 मिनट पर एक किसान क्यों मर रहा है? इन 20 सालों में ही हर रोज 2052 किसान क्यों खेती छोड़कर मजदूरी करने लगे हैं? हैरानी की बात यह है कि इतना अभाव होने के बाद भी समाज में दृष्टिगोचर और असली मुद्दे को लेकर गुस्सा नहीं है और न ही व्यवस्था बदलने की तड़प है। वह इस बात से खुश है कि वह भी अपने इंटरनेट-समर्थ मोबाइल में फिल्में देख सकता है। देश में जितने लोग शौच के लिए खेत में या सड़क के किनारे जाते हैं, उनमें से कई के हाथों में लोटे के साथ नेट-समर्थ मोबाइल हैं!

पुराना सिद्धांत है कि किसी समाज की सोचने की ताकत छीननी हो तो उसे नशे में डाल दो। आज मुसलमान समाज इस बात से नाराज नहीं है कि उसके समान ही दलित समाज के लोगों को रोजगार मिला कि नहीं। उसकी चिंता है कि किसने उसके धर्म के खिलाफ कुछ कहा। दलित समाज का अभिजात्य वर्ग आरक्षण नहीं छोड़ना चाहता, ताकि वह भी उच्च जाति के लोगों की तरह लंबी गाड़ी और पांच सितारा होटलों में शाम गुजारे। लेकिन व्यवस्था से जुड़े लोगों को अब यह सोचना ही होगा कि किस तरह आर्थिक नीति को जनोन्मुख किया जाए। अन्यथा भावनात्मक मुद्दे समाज के क्रोध का सबब बनते चले जाएंगे, जिन्हें हल करना राज्य अभिकरणों की सामर्थ्य से बाहर ही होगा।

 


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