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न्यूज क्लिपिंग्स् | दो रुपए की बचत ने छीन ली 43 लोगों की आंख की रोशनी

दो रुपए की बचत ने छीन ली 43 लोगों की आंख की रोशनी

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published Published on Dec 25, 2015   modified Modified on Dec 25, 2015
संदीप चंसौरिया/शशिकांत तिवारी, भोपाल। बड़वानी में जिस संक्रमित आईवी फ्लूड के कारण 43 लोगों की एक आंख की रोशनी चली गई, वह बीएफएस (ब्लो फिल्ड शील्ड) प्लास्टिक की बॉटल में भरा होता है। इस बॉटल की कीमत आठ रुपए है, जबकि इससे महज 2 रुपए महंगी 10 रुपए की एफएफएस (फॉर्म फिल्ड शील्ड) में भरे आईवी फ्लूड के संक्रमिक होने का खतरा कई गुना कम हो जाता है।

बड़वानी घटना की जांच करने आए एम्स दिल्ली के ख्यात रेटीना विशेषज्ञ डॉ. अतुल कुमार ने स्पष्ट किया था कि चूंकि सभी पीड़ितों को एक समान संक्रमण हुआ है इसलिए संभव है जिस आई वॉश (आईवी फ्लूड) से रोगियों का मोतियाबिंद साफ किया गया वही संक्रमित होगा। इसके बाद ही मप्र पब्लिक हेल्थ सर्विसेस कार्पोरेशन के महाप्रबंधक डॉ. विनय दुबे ने बीएफएस की आईवी फ्लूड के इस्तेमाल पर सरकारी अस्पतालों में रोक लगा दी है। इसकी जगह अब एफएफएस आईवी फ्लूड का ही इस्तेमाल करने के आदेश जारी किए गए हैं।

एम्स भोपाल के फर्माकोलॉजी विभाग के एचओडी डॉ. बालाकृष्णन एस ने बताया दरअसल, आईवी फ्लूड बीएफएस (ब्लो फिल्ड शील्ड) प्लास्टिक बॉटल के पंक्चर होने व फिलिंग के दौरान संक्रमण होने का खतरा ज्यादा रहता। इसमें फिलिंग के दौरान बॉटल और लिक्विड हाथों के संपर्क में ज्यादा आता है। जबकि एफएफएस बॉटल बनने के साथ ही उसमें आईवी फ्लूड स्वचलित तकनीक से भरा जाता है।

पढ़ें : मर्ज बढ़ाने वाली दवा निति, दांव पर सेहत

हालांकि देश के अन्य राज्यों में एफएफएस से भी अच्छी 15 से 20 रुपए में बनी (स्टेरी पॉट) या 20 से 25 रुपए में बनने वाली कांच की बॉटल इस्तेमाल होती है, जो सबसे बेहतर है। जाहिर है स्वास्थ्य विभाग यह निर्णय पहले ही ले लेता तो बड़वानी अस्पताल में घटी बड़ी घटना शायद नहीं होती।

सरकारी अस्पतालों में इलाज में प्रोटोकॉल (मापदंड) की अनदेखी का खामियाजा मरीजों को लगातार भुगतना पड़ रहा है। बड़वानी का मामला (मोतियाबिंद आपरेशन में 43 मरीजों की आंख की रोशनी चली जाने की घटना) इसलिए सुर्खियों में आ गया क्योंकि पीड़ितों की संख्या ज्यादा थी। वर्ना, प्रोटोकॉल की अनदेखी प्रदेश में दवा खरीदी से लेकर दवाओं की जांच, दवा के रखरखाव और उनके उपयोग समेत हर स्तर पर हो रही है।

प्रदेश में स्वास्थ्य सुविधा के यह हालात तब हैं जबकि सिर्फ दवा खरीदी का बजट ही 300 करोड़ सालाना के आसपास है। इसके अलावा स्वास्थ्य सेवाओं पर हर साल अलग करोड़ों खर्च हो रहे हैं। रिटायर्ड ड्रग इंस्पेक्टर डीएम चिंचोलकर के मुताबिक दवा सप्लाई से लेकर उनके स्टोरेज में भी प्रोटोकॉल की अनदेखी होती है।अस्पतालों में न सिर्फ बेतरतीब ढंग से दवाओं की सप्लाई हो रही है, बल्कि दवाओं का स्टोरेज निर्धारित से अधिक तापमान पर किया जा रहा है। जिससे निर्धारित तापमान नहीं मिलने पर मानक दवाएं भी अमानक हो रही हैं।

इसका नतीजा यह है कि हर सरकारी व निजी मेडिकल स्टोर्स की मिलाकर हर साल अमानक दवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है, लेकिन यह रिपोर्ट शासन तक अस्पतालों में दवा बंट जाने के बाद पहुंच रही है। इसकी मुख्य वजह प्रदेश में दवा की जांच की पर्याप्त व्यवस्था और अमला नहीं होना है। व्यवस्थाओं में कमी के साथ-साथ जेपी अस्पताल के पूर्व अधीक्षक डॉ. डीके वर्मा कहीं न कहीं प्रदेश की दवा नीति को भी कमजोर कड़ी मानते हैं।

उनका मानना है सरकार अन्य क्षेत्रों की तरह ही स्वास्थ्य में भी सबसे सस्ते को प्राथमिकता की नीति अपना रही है। इस वजह से सरकारी अस्पताल की दवा की गुणवत्ता पर हमेशा से सवाल उठते आए हैं, वर्ना जैनरिक दवा भी असरकारक होती है। सरकार जब तक दवा नीति में सुधार के साथ-साथ जांच की पुख्ता व्यवस्था नहीं करेगी तब तक मरीजों के सुरक्षित इलाज पर प्रश्‍न खड़े होते रहेंगे।

 


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