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न्यूज क्लिपिंग्स् | निमाड़ को भी चाहिए 'सत्यार्थी' और 'मलाला'

निमाड़ को भी चाहिए 'सत्यार्थी' और 'मलाला'

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published Published on Dec 14, 2014   modified Modified on Dec 14, 2014
विवेक वर्द्धन श्रीवास्तव, खरगोन। सुमित। उम्र-14 साल। काम- बस स्टैंड की एक होटल में टेबल पर पोंछा लगाना। दिनेश। उम्र-12 साल। काम- नगर पालिका क्षेत्र में चाय की गुमटी पर ग्लास धोना। सुबह साढ़े 7 बजे से रात्रि 8 बजे तक इन्‍हें फुरसत नहीं। उधर रोली शहर के पॉश इलाके में घर-घर जाती है। उम्र-13 साल। यह अपनी मां के साथ झाड़ू-पोंछा, बर्तन साफ करने में हाथ बटाती है।

ये तीन केवल उदाहरण है। ना केवल मुख्यालय पर बल्कि पूरे जिले में यही हालात हैं। चंद 50 रुपए से 70 रुपए रोज की मजदूरी में ये मासूम यहां जुटे है। ये परिवार के लिए 'सोर्स ऑफ इनकम" बने हुए हैं। रुपए बचाने और मजदूरी में चोरी के नाम पर बड़े घरानों में ये बचपन दम तोड़ रहा है।

10 दिसंबर को जहां बचपन बचाओ आंदोलन की पहचान बन चुके कैलाश सत्यार्थी को नोबल से नवाजा वहीं पाकिस्तान की मलाला युसूफजई को शिक्षा के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार मिलने के बाद हम अपना सीना गर्व से चाहे चौड़ा कर रहे हो परंतु आदिवासी अंचल में आज भी ग्राउंड रिपोर्ट बद से बदतर है। यहां भी सत्यार्थी और मलाला की जरूरत महसूस की जा रही है।

बाल श्रमिकों का सर्वे तक नहीं

सरकार की व्यवस्थाएं कितनी ध्वस्त है इस बात का अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि शासकीय तौर पर पिछले एक दशक से बाल श्रमिकों को लेकर कोई सर्वे नहीं किया गया। देखरेख के नाम पर श्रम विभाग का दफ्तर खुला हुआ है। परंतु कार्रवाई के नाम पर कोई बड़ा अभियान नहीं देखा गया।

जबकि प्रमुख चौराहों, बस स्टैंड व कामकाजी दफ्तरों में नाबालिग श्रमिक अपनी जिंदगी के सपने मजदूरी में दफन कर रहे है। श्रम विभाग की जानकारी के अनुसार जिले में 38 बाल श्रम संस्थाएं अस्तित्व में आई थी जो 2007 में बंद हो गई। एक अनुमान के मुताबिक केवल मुख्यालय व बड़े स्थानों पर ही 2 हजार से अधिक बाल श्रमिक काम कर रहे हैं।

बिक चुके हैं भूरला और राल्या

इस जिले का कड़वा सच यह भी है कि राजस्थान और गुजरात से आने वाले चरवाहे 'औने-पौने दामों" पर मां-बाप से ही इन बच्चों को खरीद लेते है। वर्ष 2010-11 में ठेठ आदिवासी अंचल चिरिया-मुंडिया क्षेत्र के मासूम भूरला (8) व राल्या (12) (परिवर्तित नाम) 10 से 12 हजार रुपए के बीच खरीद लिए गए।

मां-बाप को बहला-फुसलाकर दो-दो साल के अनुबंध पर इन्हें बंधुआ श्रमिक बनवाया। भेड़-बकरियां और ऊंट चरवाए। इस पूरे मामले में नईदुनिया के खुलासे के बाद इन बच्चों को अभिभावकों के सुपुर्द किया। बावजूद इसके चरवाहों के झुंड में ऐसे कई बच्चे देखे जा सकते है। इन चरवाहों को लेकर जिले में कोई जानकारी या रोकथाम की कार्रवाई नहीं होती।

उम्मीद की है टिमटिमाती लौ

समूचे जिले में जहां विभाग और प्रशासन निष्क्रिय बना हुआ है वहीं कुछ सामाजिक कार्यकर्ता व संस्थाएं इस दिशा में टिमटिमाती लौ की तरह है। आस्था ग्राम ट्रस्ट द्वारा संचालित संस्था में मेजर डॉ. अनुराधा ने कई बाल श्रमिक बच्चों को पढ़ाई से जोड़ा। वहीं अंजलि खोड़े के मार्गदर्शन में निराश्रित बाल संरक्षण गृह में भी कई मासूम नए भविष्य की तलाश में पहुंचाए गए है। इसके अतिरिक्त जिले की कई संस्थाओं के साथ सामाजिक कार्यकर्ता अपने दायित्व निभा रहे है।

जिला श्रम अधिकारी एएस अलावा से सीधी बात

-जिले में बाल श्रमिकों का सर्वे कब हुआ : शासकीय सर्वे फिलहाल नहीं हुआ।

-जिले में बाल श्रमिकों को लेकर कितने प्रकरण बनाए : होटल-गुमटियों में इंस्पेक्टर जाने के पूर्व ऐसे श्रमिक मौका देखकर भाग जाते हैं। शिकायत मिलने पर कार्रवाई होती है।

-दुकानों पर बाल श्रम प्रतिबंध के डिस्प्ले बोर्ड नहीं लगाए जाते : जहां नहीं लगाए गए वहां कार्रवाई की गई है। लगभग 20 प्रकरण ऐसे बनाए जा चुके हैं।


http://naidunia.jagran.com/special-story-nimar-need-kailash-satyarthi-and-malala-yousafzai-255771


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