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न्यूज क्लिपिंग्स् | निर्धनता का विचित्र पैमाना- संजय गुप्त

निर्धनता का विचित्र पैमाना- संजय गुप्त

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published Published on Sep 27, 2011   modified Modified on Sep 27, 2011

उच्चतम न्यायालय में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियां दूर करने के मामले की सुनवाई के सिलसिले में योजना आयोग के इस हलफनामे ने देश को चौंका दिया कि शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 32 और ग्रामीण इलाकों में 26 रुपये खर्च करने वाले लोग गरीबी रेखा से ऊपर माने जाएंगे। इस हलफनामे से योजना आयोग के साथ-साथ केंद्र सरकार की भी फजीहत हुई। इस हलफनामे को लेकर सबने सरकार को कोसा। सुप्रीम कोर्ट सार्वजनिक वितरण प्रणाली को ठीक करने को लेकर लंबे समय से प्रयासरत है। इसी के तहत एक बार उसने यह टिप्पणी की थी कि अनाज को सरकारी गोदामों में सड़ाने से बेहतर है कि उसे गरीबों में बांट दिया जाए। सरकार को यह टिप्पणी नागवार गुजरी और उसकी ओर से यहां तक कहा गया कि शीर्ष अदालत नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप न करे। इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी की अनदेखी कर दी गई और सरकारी गोदामों में अनाज पहले की तरह सड़ता रहा। भले ही सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने के प्रति प्रतिबद्ध दिख रही हो, लेकिन जनता के बीच यह संदेश जाने से नहीं रोक पा रही कि वह गरीबों की संख्या कम करके दिखाना चाहती है। योजना आयोग ने सस्ती दर पर दिए जाने वाले अनाज में सब्सिडी कम करने के लिए ही सुरेश तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के आधार पर अपना हलफनामा पेश किया है। यह आश्चर्यजनक है कि उसने यह समझने की कोशिश नहीं की कि उसके इस हलफनामे पर कैसी प्रतिक्रिया होगी?

यह प्रश्न हमेशा से विवाद का विषय रहा है कि देश में गरीबों की संख्या कितनी है और निर्धनता का निर्धारण किस आधार पर करना चाहिए? यही कारण है कि गरीबों की संख्या संबंधी आंकड़े अलग-अलग हैं। इस मामले में केंद्र और राज्यों के बीच भी सहमति नहीं। जहां केंद्र का आरोप है कि राज्य अपने यहां गरीबों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं ताकि ज्यादा सब्सिडी ले सकें वहीं राज्यों की यह शिकायत है कि केंद्र सरकार इसलिए गरीबों की संख्या कम दिखाना चाहती है ताकि उसे कम से कम सब्सिडी देनी पड़े। पता नहीं कि इस विवाद का समाधान कैसे होगा, लेकिन यह जगजाहिर है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली भ्रष्टाचार, बर्बादी और कमीशनखोरी का पर्याय बन गई है। जो वास्तव में गरीब हैं और जिनके लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना मुश्किल है उन्हें सस्ते दर पर पर्याप्त अनाज नहीं मिल पाता। जैसे-जैसे खाद्यान्न सब्सिडी का बोझ बढ़ रहा है वैसे-वैसे योजना आयोग और केंद्र सरकार के माथे पर बल पड़ते जा रहे हैं। पिछले दिनों खुद वित्तमंत्री ने कहा था कि खाद्यान्न सब्सिडी का दुरुपयोग रोकने के लिए गरीबों को सीधे पैसा देने की योजना पर अमल किया जाएगा। प्रयोग के तौर पर यह काम शुरू भी कर दिया गया है, लेकिन माना जा रहा है कि सभी गरीबों के खाते खुलवाना और उनमें धन पहुंचाना खासा जटिल कार्य है। एक मान्यता यह भी है कि राज्य चाहें तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त कर सकते हैं। इसके लिए तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ का उदाहरण भी दिया जाता है। इस सबके बावजूद यह प्रश्न अनुत्तरित है कि गरीबी को तय करने के मानक क्या हों? तेंदुलकर समिति ने भोजन में कैलोरी की मात्रा और शिक्षा-स्वास्थ्य में खर्च के आधार पर गरीबी का निर्धारण किया था। योजना आयोग की मानें तो 2005 तक देश में गरीबों की संख्या 40 करोड़ थी, लेकिन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के हिसाब से गरीबों की संख्या इससे कहीं अधिक है। यह निराशाजनक है कि हमारे नेता और नौकरशाह गरीबी दूर करने का तरीका खोजना तो दूर रहा, यह नहीं तय कर पा रहे हैं कि गरीबों की सही तरह से गिनती कैसे की जाए?

ज्यादातर संस्थाएं भोजन में कैलोरी की मात्रा के आधार पर गरीबी का निर्धारण करती हैं। प्रो. टीडी लकड़वाला समिति के अनुसार शहरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 2100 कैलोरी और ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी भोजन लेने वाले गरीब नहीं। कुछ वैश्विक संस्थाएं अलग तरह से गरीबी का आकलन करती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं संयुक्त राष्ट्र मानव सूचकांक की रपटों से यही सामने आ रहा है कि भारत में कुपोषित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति में यह दावा हास्यास्पद है कि 32 अथवा 26 रुपये में जीवन यापन किया जा सकता है? योजना आयोग का यह भी आकलन है कि यदि शहरी इलाकों में चार लोगों का परिवार खुद पर 4800 रुपये प्रति माह खर्च करता है तो वह गरीब नहीं। क्या योजना आयोग इस सामान्य तथ्य से परिचित नहीं कि ज्यादातर परिवारों में एक ही व्यक्ति कमाने वाला होता है? मौजूदा समय तो दस-बारह हजार रुपये प्रति माह कमाने वालों के लिए भी अपने परिवार का सही तरह भरण-पोषण करना दूभर है। ऐसे परिवारों के बच्चों के लिए समुचित शिक्षा तो एक सपना है।

हम दशकों से यह सुनते आ रहे हैं कि भारत एक गरीब देश है। आज जब दुनिया यह मान नही है कि भारत तेजी से तरक्की कर रहा है तब भी यह सुनने को मिल रहा है कि भारत में गरीबी व्याप्त है। ऐसा नहीं है कि देश में धन की कमी है, लेकिन भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी ने विकास एवं जनकल्याणकारी योजनाओं का बंटाधार कर रखा है। आर्थिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो सब्सिडी का बढ़ता बोझ एक चुनौती है। आज दुनिया का हाल बढ़ती सब्सिडी के कारण ही बेहाल है। फिलहाल हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत है, लेकिन वह गरीबों का भला नहीं कर पा रही है। सरकारी तंत्र में निर्धनता निवारण के लिए जो जवाबदेही होनी चाहिए उसका अभाव है। यह भी चिंताजनक है कि कृषि क्षेत्र में आधारभूत ढांचे का निर्माण करने में कोताही बरती जा रही है।

गरीबी देश के लिए कलंक है। देशवासियों का सिर उस समय शर्म से झुक जाता है जब कुपोषण, निर्धनता के मामले में भारत की गिनती अफ्रीका के गरीब देशों के साथ होती है। ऐसे समय इन दावों का कोई मतलब नहीं रह जाता कि भारत महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। इस विरोधाभास को जल्द ही समाप्त करना होगा। यह काम तब होगा जब राजनीतिक दल एक-दूसरे पर लांछन लगाने के बजाय मिलकर काम करेंगे। यदि देश के पैर निर्धनता में धंसे हुए हैं तो उसके लिए राजनीतिक दल ही दोषी हैं। आजादी के बाद गरीबी दूर करने के तमाम प्रयासों के बावजूद वह बढ़ती जा रही है। अब यह स्पष्ट है कि संप्रग सरकार ने अपनी पहली पारी में निर्धनता निवारण के जैसे प्रयास किए थे वैसे दूसरी पारी में नहीं कर पा रही है। मंदी की आशंका ने गरीबी दूर करने की चुनौती को और कठिन बना दिया है। एक अन्य कठिनाई सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में अपनी-अपनी चलाने की होड़ शुरू हो जाना है। यह होड़ चाहे जिन कारणों से हो, उसके चलते इसकी संभावना और कम हो जाती है कि सरकार गरीबों की सुध ले सकेगी।

[संजय गुप्त: गरीबी रेखा के संदर्भ में योजना आयोग के हलफनामे को निर्धनता का उपहास उड़ाने वाला मान रहे हैं]


http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_8265090.html


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