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न्यूज क्लिपिंग्स् | नीति व सुविधा के बिना गहरा रहा एड्स का खतरा- राहुल सिंह

नीति व सुविधा के बिना गहरा रहा एड्स का खतरा- राहुल सिंह

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published Published on Dec 2, 2013   modified Modified on Dec 2, 2013
रांची के इटकी प्रखंड इलाके के एक गांव की 60 वर्षीया महिला टीबी से ग्रस्त हैं. दुर्भाग्य से इस महिला को एचआइवी एड्स भी है. पिछले दिनों तबीयत काफी बिगड़ने के बाद उन्हें रांची स्थित रिम्स में इलाज के लिए भरती कराया गया. हालांकि वे फिलहाल ठीक हैं और टीबी और एचआइवी का उनका इलाज चल रहा है. स्वास्थ्य कर्मी उनके नियमित संपर्क में रहते हैं और अपने क्षेत्र भ्रमण के दौरान उनके हाल से अवगत होते रहते हैं. इस महिला को अपने गांव के नजदीक स्थित इटकी की टीबी आरोग्यशाला व रिम्स के चिकित्सकों से बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मिल जाती है. लेकिन राज्य के प्रत्येक एचआइवी संक्रमित को यह सुविधा मयस्सर नहीं हो पाती है. राज्य के सुदूरवर्ती इलाकों में जहां स्वास्थ्य ढांचा बेहद खराब है, वहां यह पता करना भी मुश्किल होता है कि इस व्यक्ति को कौन-सी बीमारी है?

एचआइवी एड्स की प्रबलता दर को लेकर झारखंड की स्थिति हालांकि राष्ट्रीय औसत से बेहतर है, लेकिन इसका भविष्य चिंताजनक है. यूनिसेफ के झारखंड प्रमुख जॉब जकारिया के अनुसार, राज्य में एचआइवी की प्रबलता या संभाव्यता दर 0.13 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय औसत 0.31 के आसपास है. लेकिन राज्य के संदर्भ में चिंताजनक बात यह है कि यह दर धीमी गति से आगे बढ़ रही है. वे इसे राज्य की चिंता की बड़ी वजह बताते हैं. जकारिया कहते हैं राज्य से पलायन की दर बहुत अधिक है, गरीबी व अशिक्षा भी बहुत है. इतना ही नहीं राज्य में संस्थानिक प्रसव की दर भी काफी कम है. यह एचआइवी पॉजिटिव दंपती की अगली पीढ़ी (नवजात बच्चों) तक संक्रमण का बड़ा कारण है. राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में 23 हजार एचआइवी पीड़ित हैं और इनमें लगभग 700 बच्चे हैं. आखिर ये बच्चे एचआइवी एड्स से संक्रमित कैसे हुए? निश्चित रूप से ये बच्चे अपनी मां से संक्रमण के शिकार हुए. ये बच्चे वैसी माताओं की संतान हैं, जिनका प्रसव पारंपरिक व असुरक्षित तरीके से घर में ही कराया गया. अगर किसी अस्पताल में इनका प्रसव होता व गर्भधारण के बाद से ही इन्हें किसी चिकित्सक की देखरेख की सुविधा मिली होती तो ये नन्हें एचआइवी से ग्रस्त नहीं होते. जकारिया के अनुसार, इन बच्चों को एचआइवी से संक्रमित होने से पूरी तरह से बचाया जा सकता था, अगर इनकी मां के रक्त की जांच की गयी होती तो.

संस्थागत प्रसव नहीं होना बड़ा खतरा
राज्य में हर साल लगभग आठ लाख प्रसव हो रहा है. इसमें बमुश्किल 10 प्रतिशत महिलाओं की चिकित्सीय जांच होती है. झारखंड में 19 प्रतिशत संस्थागत प्रसव के साथ इस मामले में राज्यों की राष्ट्रीय सूची में 27वें स्थान पर है. राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं का सरकारी ढांचा बेहद खराब है और अशिक्षा व जागरूकता के अभाव में यहां लोग इसके महत्व को समझ नहीं पाते हैं. केरल व गोवा जैसे राज्यों संस्थागत प्रसव के मामले में शीर्ष पर हैं. इस कारण वहां एचआइवी की खराब स्थिति होने के बावजूद अगली पीढ़ी में उसके संक्रमण का खतरा कम रहता है. राज्य में गरीबी काफी ज्यादा है, इसलिए लोग महंगे निजी अस्पतालों में संस्थागत प्रसव करवाने में सक्षम नहीं है. सरकारी सुविधा मिलने पर ही वे संस्थागत प्रसव करवाने में सक्षम हैं. जॉब जकारिया झारखंड में एचआइवी के विस्तार को रोकने के लिए पहला जरूरी काम गर्भवती महिलाओं की रक्त जांच को बताते हैं. नाको की रिपोर्ट बताती है कि एचआइवी पीड़ित 35 प्रतिशत बच्चे पहले साल में, 50 प्रतिशत बच्चे दूसरे साल में और 60 प्रतिशत बच्चे तीसरे साल में मर जाते हैं. इसलिए सरकार एचआइवी संक्रमित 18 माह तक के बच्चों के लिए विशेष अभियान चलाती है. इसमें कई तरह की चिकित्सीय सुविधा की व्यवस्था उपलब्ध है.

राज्य के पास नहीं है महिला नीति
राज्य के पास अपनी कोई महिला नीति नहीं है. यानी यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार महिलाओं का विकास कैसे करना चाहती है. उन्हें कैसे मुख्यधारा में जोड़ना चाहती है. ऐसे में कई बार अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए महिलाएं यौन कर्म को अपना छुपा पेशा बना लेती हैं. सिमडेगा व खूंटी की महिला यौन कर्मियों के बीच लंबे समय से काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता शालिनी संवेदना कहती हैं : सरकार सेक्स वर्करों को तवज्जो नहीं दे रही है. उनके लिए मानवीय दृष्टिकोण का अभाव है और सिर्फ उनकी रक्त जांच करवा कर वह यह जानना चाहती है कि वे एचआइवी पॉजिटिव हैं या नहीं! जबकि यह जानना जरूरी है कि ऐसी कौन-सी मजबूरी है, जिसके चलते वह इस काम को करने को तैयार हुई. उनके अनुसार, झारखंड के लिए एक अच्छी बात यह है कि यहां होने वाला यौन कर्म फ्लाइंग नेचर का है. यानी वह संगठित रूप से या किसी एक जगह पर नहीं होता. बल्कि छुपे-ढके तौर पर होता है. ऐसे में अगर महिलाओं के लिए रोजगार व पुनर्वास की व्यवस्था हो तो वे इस पेशे से वापस लौट जायेंगी.                   

शालिनी अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहती हैं कि यौन कर्म में शामिल 60 प्रतिशत महिलाएं आर्थिक कारणों से इस काम से जुड़तीं हैं, जबकि 40 प्रतिशत महिलाएं अपने प्रेमी, रिश्तेदार या किसी अन्य मित्र के भावनात्मक शोषण का शिकार होकर इस पेशे में आती हैं. झारखंड में समुदाय के बीच से आने वाली ऐसी महिलाओं को रोजगार से जोड़ना आसान है. वे कहती हैं कि सरकार का व्यवहार दोहरा है : एक ओर यौन कर्मियों की वह एचआइवी से रक्षा करने के लिए कदम उठा रही है, वहीं पुलिस व ग्राहक उसे परेशान व प्रताड़ित करते हैं. शालिनी कहती हैं कई बार ऐसा देखने में आया हैकि एचआइवी पीड़ित यौन कर्मियों में काफी गुस्सा होता है, उन्हें लगता है कि यह काम करते हुए उन्हें यह बीमारी हुई, इसलिए इसके लिए जिम्मेवार दूसरे लोग भी उनके संसर्ग में आकर इससे पीड़ित हो जायें. इससे एचआइवी का खतरा बढ़ जाता है और इस खतरे को रोकने के लिए महिलाओं का पुनर्वास जरूरी है और इसके लिए यौन कर्मियों के लिए अलग से बजट का प्रावधान होना चाहिए. राज्य के सुदूरवर्ती इलाके इस तरह के खतरे से ज्यादा जूझ रहे हैं. वहां न महिलाओं को इस खतरे की सही सटीक जानकारी है और न ही संसर्ग में आने वालों को.

एचआइवी व टीबी की उलझी गुत्थी
एचआइवी पीड़ितों को तीन तरह का रोग होने का खतरा काफी अधिक रहता है. इसमें भी टीबी सबसे ऊपर है. इसके बाद निमोनिया व मुंह में घाव होने जैसे रोगों का नंबर आता है. नाको की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, एचआइवी संक्रमित 25 प्रतिशत रोगियों की मृत्यु टीबी के कारण ही होती है. इसी तरह अध्ययन यह भी बताता है कि टीबी से ग्रस्त रोगी के एचआइवी संक्रमण का खतरा काफी अधिक बढ़ जाता है. यानी टीबी रोग से एचआइवी संक्रमितों व एचआइवी संक्रमितों को टीबी से बचाना दोहरी चुनौती है. इसलिए एचआइवी व टीबी के नियंत्रण के लिए काम करने वाली संस्थाएं आपसी तालमेल से काम करती हैं. नाको के अनुसार, वर्ष 2012-13 (दिसंबर 12 तक) में एआरटी सेंटर में आने वाले व्यक्तियों में 1.03 लाख से अधिक पूर्वानुमान योग्य क्षय रोगियों को पता लगाया गया. इनमें 20 प्रतिशत से अधिक टीबी के रोगी पाये गये. झारखंड में यह खतरा और गहरा है. इटकी की टीबी आरोग्यशाला के प्रमुख डॉ आरजेपी सिंह कहते हैं किसी टीबी पेसेंट को एचआइवी होने पर उसका खतरा बढ़ जाता है.

इटकी की टीबी आरोग्यशाला के चिकित्सक डॉ ए मित्र बताते हैं कि टीबी व एचआइवी एक-दूसरे के परिपूरक हैं. स्वस्थ व्यक्ति को अपने जीवन काल में टीबी होने का खतरा 10 प्रतिशत रहता है. जबकि एचआइवी पीड़ित में यह खतरा 60 प्रतिशत हो जाता है. एचआइवी संक्रमण ऐसी बीमारी है, जो मनुष्य की बीमारियों से लड़ने की शक्ति को खत्म या काफी कम कर देती है. डॉ मित्र के अनुसार, एचआइवी पीड़ित में अगर टीबी का भी संक्रमण हो जाता है, तो वह शुरुआत में तो सामान्य रोगी की ही तरह लगता है, लेकिन चौथा चरण आते-आते उसके लक्षण बिल्कुल अलग तरीके से प्रस्तुत होते हैं. इस कारण चिकित्सकों को इसकी पहचान करना जरूरी होता है, लेकिन यह पहचान करना अत्यंत जरूरी होता है. क्योंकि अकेले टीबी या एड्स का इलाज करें तो मरीज ठीक नहीं हो पाता है.


इस खतरे से लड़ने के लिए नाको एवं आरएनटीसीपी ने एक साथ मिल कर एक मुहिम छेड़ा है. इसके तहत सभी निबंधित टीबी रोगियों की एचआइवी जांच और एचआइवी पीड़ितों की बलगम जांच जरूर की जाती है. इस प्रक्रिया को क्रॉस रेफरल कहते हैं. इसके लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरी है सभी टीबी संक्रमितों की एचआइवी जांच भी हो. इसके लिए जरूरी है कि सारे डीएमसी (बलगम जांच केंद्र) में एचआइवी की जांच सुविधा भी हो. झारखंड में लगभग 264 डीएमसी हैं. एक लाख से 50 हजार की आबादी पर एक डीएमसी होता है. लेकिन उन सभी डीएमसी में यह सुविधा नहीं है. राज्य में कुल आइसीटीसी-एफआइसीटीसी की संख्या 174 है. इसमें 54 आइसीटीसी व 120 एफआइसीटीसी हैं. यानी राज्य में 90 डीएमसी पर यह सुविधा नहीं है. अगर इन आंकड़ों को अनुपातिक तौर पर देखें तो राज्य की एक तिहाई आबादी के पास फिलहाल आसान तरीके से एचआइवी जांच की सुविधा उपलब्ध नहीं है.

एचआइवी संक्रमितों को संभालना अहम
किसी भी व्यक्ति की एचआइवी जांच से पहले उसकी काउंसेलिंग जरूरी है. काउंसेलिंग में उसे पहले यह बताना होता है कि उसकी एचआइवी जांच की जानी है. और इसके पॉजिटिव या निगेटिव रिपोर्ट आने पर क्या परिणाम होंगे. और उक्त व्यक्ति की लिखित सहमति, स्वीकृति के बाद ही उसकी एचआइवी जांच की जा सकती है. प्री टेस्ट काउंसेलिंग के बाद प्रो-टेस्ट काउंसेलिंग व मेंटेनेंस काउंसेलिंग करना होता है. यानी जांच से पहले उसे मानसिक तौर पर तैयार करना होता है और फिर जांच के बाद उसे रिपोर्ट पॉजिटिव आने पर उस संकट से लड़ने के लिए उसे मानसिक तौर पर तैयार किया जाता है. फिर उस चुनौती से लड़ने के दौरान उसकी निगरानी करनी होती है. जांच की भी तीन पद्धतियां हैं और उसके बाद एक अन्य विधि से उसकी जांच की जाती है, तभी रोगी को पक्के तरीके से चिह्न्ति किया जाता है. बिना अनुमति के किसी व्यक्ति के रक्त में एचआइवी जांच तभी की जाती है, जब कोई सर्वे करना होता है या रक्तदान के बाद उसे किसी व्यक्ति को चढ़ाना होता है. क्योंकि इसमें उस व्यक्ति के पहचान का खुलासा नहीं हो पाता और यह पता नहीं चलता कि यह रक्त किसका है.

हालांकि हाल के दिनों में चले बड़े पैमाने पर चले स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रम का लाभ मिला है. डॉ मित्र मानते हैं जन चेतना वाले कार्यक्रम के कारण मरीज सामने आ रहे हैं. सामाजिक कार्यकर्ता शालिनी संवेदना भी कहती हैं कि यौन कर्म को नया-नया अपनाने वाली लड़कियां इस संक्रमण को लेकर सावधान रहती हैं और वे उपाय करती हैं, जिससे वे संक्रमण से बच सकें. अब बिल्कुल जमीनी स्तर पर काम करने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता के लिए इंटिग्रेटेड डिजीज सर्विलांस प्रोग्राम चलाया जा रहा है. इसके तहत सभी स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं व कर्मियों को हर बीमारी के बारे में प्राथमिक जानकारी उपलब्ध करायी जाती है, ताकि वे इससे लोगों को, ग्रामीणों को अवगत करा सकें. इतना ही नहीं ये स्वास्थ्य कर्मी या कार्यकर्ता जमीन पर जब काम करने जाते हैं, तो उन्हें जमीनी सच्चई या जानकारी (फिडबैक) भी देनी होती है. यह कोशिश बेहतर नतीजे के लिए की जा रही है. क्या एचआइवी जैसी बीमारियों का इलाज दूसरी पद्धति से हो सकता है, इस सवाल पर पर काफी मतभेद है. डॉक्टरों का एक तबका मानता है कि आयुर्वेद या कोई भी दूसरी पद्धति एड्स के लिए कितनी कारगर है इसकी चर्चा एक साझा प्लेटफॉर्म पर होनी चाहिए. और, उसका आकलन किया जाना चाहिए, शोध होना चाहिए. चिकित्सक कहते हैं कि एचआइवी संक्रमित व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो जाती है, इसलिए ऐसे में कोई ऐसी चीज जिससे उसके शरीर की प्रतिरोधकता बढ़ सकती है वह मददगार हो सकती है. लेकिन नीम-हकीमों और सड़क-चौरहे पर दवा बेचने वालों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. डॉ शकील अहमद कहते हैं एड्स व टीबी के खतरे को एक दूसरे तरीके से भी चिह्न्ति करते हैं. वे कहते हैं नशाखोरी बुरी आदत है. जब कोई व्यक्ति नशा कर लेता है तो वह खुद को स्वस्थ महसूस करता है. इस कारण उसे अपनी बीमारी का सही स्थिति मालूम नहीं हो पाती.

सभी गर्भवती महिलाओं की एचआइवी जांच होनी चाहिए. जांच के बाद मां का प्रसव अस्पताल में कराया जाना चाहिए. हमें 90 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं की प्रसव के दौरान जांच का लक्ष्य तय करना होगा. फिलहाल यह मात्र 10 प्रतिशत है.
जॉब जकारिया, यूनिसेफ के राज्य प्रमुख.

स्वस्थ व्यक्ति को अपने जीवन काल में टीबी होने का खतरा 10 प्रतिशत रहता है. जबकि एचआइवी पीड़ित में यह खतरा 60 प्रतिशत हो जाता है.
डॉ ए मित्र, चिकित्सक, टीबी आरोग्यशाला, इटकी.


http://www.prabhatkhabar.com/news/67397-story.html


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