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न्यूज क्लिपिंग्स् | नौकरियों के लिए मुश्किल भरे दिन-- आकार पटेल

नौकरियों के लिए मुश्किल भरे दिन-- आकार पटेल

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published Published on Aug 9, 2016   modified Modified on Aug 9, 2016
भारत ने उस प्रक्रिया की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है, जिसे अनेक लोग बीते दो दशक का सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार मान रहे हैं. वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू करने से अप्रत्यक्ष कर सरल होंगे और कुछ लोगों की समझ में इससे आर्थिक वृद्धि को गति मिलेगी. कुछ इससे सहमत नहीं हैं, लेकिन उनकी नजर में भी यह एक अहम सुधार है.

हम अन्य किन सुधारों की उम्मीद कर सकते हैं? बहुत ज्यादा सुधार नहीं हो सकते और जीएसटी के स्तर का तो कोई सुधार नहीं है. नरेंद्र मोदी सरकार से कई सारे नाटकीय बदलावों की अपेक्षाओं को निराशा ही मिली है. बड़े आर्थिक सुधार के रूप में जीएसटी का प्रस्ताव पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार का विचार था. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी उस विधेयक का विरोध कर चुके थे.

लेकिन, लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने अपने रुख में बदलाव किया. मेरी राय में यह अच्छी और बुद्धिमत्ता भरी राजनीति है. कुछ समय पहले अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिये एक साक्षात्कार में मोदी ने कहा था कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि देश में कौन-से बड़े सुधार होने अभी बाकी हैं. उन्होंने कहा, 'जब मैं सरकार में आया, तो मैं विशेषज्ञों के साथ बैठा और उनसे पूछा कि आप लोगों के नजरिये से बड़े सुधार क्या हैं? लेकिन कोई भी मुझे यह नहीं बता सका.'

उन्होंने कहा कि बहुत सारे सुधार अब राज्यों का विषय हैं. श्रम कानूनों को और भी उदार बनाने के लिए वे राज्यों पर निर्भर हैं. यह एक जरूरी और विवादित मसला है. उन्होंने कहा, 'श्रम कानूनों में सुधार का मतलब केवल उद्योग को फायदा नहीं होना चाहिए. इसे श्रमिकों के हितों में भी होना चाहिए.' इससे जाहिर होता है कि नरेंद्र मोदी सचेत हैं. 

मेरी राय में प्रधानमंत्री पूरी तरह से सही थे. जो देश अब समाजवादी नहीं रहा, वहां उदारवादी नीतियों के कौन से बड़े सुधार वास्तविकता में बाकी रह गये हैं? सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्षी पार्टी, दोनों उदारवाद के पक्ष में हैं. हालांकि, हकीकत यही है कि उदारीकरण के लिए भी बहुत कुछ बचा भी नहीं है.

अगर ऐसा है और बहुत ज्यादा कानूनी बदलाव नहीं हो सकता, तो इसका मतलब हमारे आर्थिक विकास के लिए क्या है? मेरा मानना है कि अगले दशक और उससे भी आगे तक मौजूदा छह या सात फीसद विकास की दर नहीं बढ़ेगी. समय के साथ विकास की इस दर को भी कायम रखना मुश्किल होगा, क्योंकि अर्थव्यवस्था में अधिक लोग जुड़ते जायेंगे. 

हम दस फीसदी विकास दर की उम्मीद नहीं कर सकते हैं, क्योंकि कोई बड़ा बदलाव नहीं हो रहा है. और बड़े बदलाव के अभाव में स्थितियां जैसी हैं, वैसी ही रहती हैं. 

दुनियाभर की अर्थव्यवस्था की स्थिति भारत के पक्ष में नहीं है. अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही है और नौकरियां तेजी से घट रही हैं, इतिहास में सबसे तेज रफ्तार से. लंबे समय से मैनुफैक्चरिंग के क्षेत्र में नौकरियां घट रही हैं.

ऐसा इसलिए होने लगा है क्योंकि पैसा ऋण पर लेना, उत्पादन की लागत से सस्ता हो गया है. इसीलिए श्रम और उत्पादन की जगह सस्ती चीजों ने ले ली है. इसके अलावा स्वचालित यंत्रों ने भी सर्विस क्षेत्र की नौकरियों को बहुत हद तक प्रभावित किया है.

पहले इंफोसिस से जुड़े मोहनदास पई कहते हैं, 'मैं समझता हूं कि सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी) के क्षेत्र में कम-से-कम दस फीसदी नौकरियां हर साल कम होंगी. अगर हर साल दो से 2.5 लाख नौकरियां सृजित होती हैं, तो 25 हजार से 50 हजार नौकरियां गायब होंगी.'

मोहनदास पई के अनुसार, भारत के आइटी सेक्टर में काम करनेवाले 45 लाख लोगों में दस फीसदी यानी 4.5 लाख लोग मध्य स्तर के प्रबंधक हैं. इनमें से आधे लोगों की नौकरी अगले एक दशक में चली जायेगी और काम स्वचालित प्रणालियों से होने लगेगा. मोहनदास पई का कहना है, 'भारत में बड़ी संख्या में मध्य स्तर के प्रबंधक सालाना 30 लाख से 70 लाख रुपये कमा रहे हैं. अगले दस सालों में इनमें से आधे प्रबंधकों की नौकरी चली जायेगी.'

यह बेंगलुरु, मुंबई, गुड़गांव, पुणे और हैदराबाद जैसे भारतीय शहरों के लिए बुरी खबर है. इन शहरों के विकसित होने में सर्विस सेक्टर आधार की तरह काम कर रहा है. इस सेक्टर में स्वचालित व्यवस्था के आने से भारत के पास काम नहीं आयेगा. ऐसे में हमें अपने शहरी युवा मध्यवर्ग को रोजगार देने के दूसरे विकल्प तलाशने होंगे. गौरतलब है कि बीते दो दशक से ये युवा हमारे लिए कोई समस्या नहीं थे.

गरीबों के लिए मध्यवर्ग में शामिल होने का सबसे आसान रास्ता अंगरेजी सीख कर सर्विस सेक्टर की नौकरी में आना था. लेकिन, प्रवेश के स्तर पर नौकरियां समाप्त होने से यह सामाजिक बदलाव भी नहीं हो सकेगा.

ऐसे में जो सामाजिक अशांति गुजरात के पाटीदार आंदोलन और हरियाणा में जाट आंदोलन में नजर आती है, उसका दायरा बढ़ेगा. मुझे नहीं लगता है कि सरकार लोगों को इन सच्चाइयों से रू-ब-रू कराने की कोई तैयारी कर रही है.

देश की मौजूदा तसवीरों को गुलाबी अंदाज में पेश किया जा रहा है. ऐसी हलचलों को स्थानीय समस्याओं से जोड़ कर देखा जाता है, जबकि यह एक राष्ट्रव्यापी समस्या बनने की ओर अग्रसर है. कानूनी मसलों में नरेंद्र मोदी सरकार के सामने जो चुनौतियां हैं, उसे मोदी को बेहतर ढंग से समझाना होगा. उन्हें यह भी स्पष्टता से समझाना होगा कि अब बहुत बड़े सुधार की उम्मीद नहीं है. अब कोई बड़ा बदलाव तभी होगा, जब बाहरी दबाव भारत पर पड़ेगा.

आनेवाले दिन काफी मुश्किल भरे हैं. हालांकि, अच्छी बात यह है कि हमारे यहां लोकप्रिय सरकार है और एक लोकप्रिय नेता भी है, जिस पर हम भरोसा कर सकते हैं.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/842037.html


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