Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | न्याय की प्रतीक्षा में आदिवासी!- सी आर मांझी

न्याय की प्रतीक्षा में आदिवासी!- सी आर मांझी

Share this article Share this article
published Published on Aug 9, 2018   modified Modified on Aug 9, 2018
भारतीय संविधान के आधार पर आदिवासियों की पहचान को अनुसूचित जनजातियों के नाम से जाना जाता है. परंतु यह सर्वज्ञात है कि भारत की आजादी के पूर्व और आजादी के बाद भी व्यावहारिक दृष्टिकोण से आदिवासी समुदाय में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है.

यह समाज अपने स्तर से अपनी असली आदिवासी की पहचान एवं परिचय को संजोकर आदिम परंपरागत निष्ठा, निश्छलता, आदर्श एवं धार्मिक आस्था को बनाये रखा है. अंग्रेजों के शासनकाल में आदिवासी समुदाय को अंग्रेजों ने एबोरजीन/एबोरजीनल अथवा ट्राइबल कहा, जिसका मूल अर्थ वहां स्थायी ढंग से आदिकाल से निवास करने वाले लोगों से है. परंतु विडंबना है कि इस ऐतिहासिक तथ्य (जो आदिवासी समुदाय के अस्तित्व से संबंध रखता है) को संविधान में राजनीतिक साजिश के तहत, उन्हें आदिवासी अथवा इंडिजीनस के रूप में मान्यता देने के लिए कदापि तैयार नहीं है. इसके फलस्वरूप आदिवासियों के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हुआ है.

कहा जाता है कि संविधान बनने के समय मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा (जो अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के संस्थापक अध्यक्ष एवं तत्कालीन झारखंड पार्टी के अध्यक्ष एवं सांसद बने) ने संविधान समिति के तत्कालीन संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ भीम राव अांबेडकर के सामने यह प्रश्न उठाते हुए मांग रखी थी कि आदिवासी समुदाय भारत देश का भूमि पुत्र, मूल देशज एवं इस धरती का आदि मूल निवासी है. अत: इन्हें भारतीय संविधान में आदिवासी के रूप में ही उनके अस्तित्व को मान्यता दी जाये, क्योंकि अनुसूचित जनजाति तो अस्थायी सूची है, जिसे हर 10 वर्षों बाद उनके आरक्षण को नवीनीकरण देने का कानूनी प्रावधान किया जा रहा है.

यदि कोई आदिवासी वर्ग उस अनुसूचित सूची से हटा दिये जायें, तो उनकी पहचान को हम किस तरह से कायम रख पायेंगे? अथवा बाद में वे किस वर्ग के रूप में जाने जायेंगे? उन्होंने कहा कि आदिवासियों को आरक्षण देने की भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे अपने जल, जंगल एवं जमीन के सहारे अपना जीविकोपार्जन करने में स्वयं सामर्थ्यवान हैं.

लेकिन डॉ भीम राव अांबेडकर ने उसे एक सिरे से इन्कार करते हुए खारिज कर दिया और कहा कि आदिवासी शब्द कई अर्थों एवं विवादों को जन्म देगा और समय-समय पर गैर आदिवासी समुदाय भी अपने देश के मूल निवासी होने का गलत ढंग से ऐतिहासिक प्रमाण देते हुए
आदिवासी सूची में गलत रूप से शामिल होने के लिए प्रयास करने लगेंगे और वे आरक्षण पाने के लिए भी अपने अधिकार की मांग रखेंगे. इसके बाद आदिवासी समुदाय को संविधान में आदिवासी के बजाय अनुसूचित जन जाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया.

प्रश्न उठता है कि संविधान बनने के समय जिन जातियों को अनुसूचित जनजाति की सूची में रखा गया था, क्या आज की तारीख में वही जातियां उसी सूची में हू-ब-हू दर्ज हैं? अथवा अन्य जातियों को शामिल किया गया? यह सर्व ज्ञात है कि बहुत सी अन्य जातियों को अब राजनीतिक दबाव के कारण अनुसूचित जनजातियों में जाने-अनजाने शामिल किया गया है.

मूल आदिवासी पहचान की मुख्य एवं महत्वपूर्ण बिंदु है उनकी विशिष्ट जीवन शैली. उनकी इस जीवन शैली को पूर्ण समर्थित, मनोभावनाअों से आत्मसात करने की आवश्यकता है. आदिवासी समुदाय का मूल आधार एवं आस्था प्रकृति पूजा है. आदिवासी समुदाय मूर्ति पूजन, वर्ण व्यवस्था एवं ब्राह्मणवाद पर कदापि आस्था नहीं रखता है.

आदिवासी समुदाय अपने निराकार प्रभु को समस्त जड़-जेतन, पेड़-पौधों, पत्थर, पहाड़, पर्वत, पशु-पक्षी एवं समस्त जीवाणु में दर्शन पाते हैं. वे अपने अस्तित्व की पहचान को हर पल, हर जगह, हर जीव में अनुभव करते हैं. आदिवासी समाज भारतीय हिंदू समाज की ढांचागत संस्कृति एवं वर्ण व्यवस्था से पूर्णत: मुक्त है तथा उनके जातीय ध्रुवीकरण की परिधि से बाहर है. पूर्व में लिखित इतिहास के पन्नों में जाने-पहचाने अनार्य /आदिवासी/असुर ही भारत के मूल निवासी रहे हैं.

पंडित रघुनाथ शर्मा ने अपनी पुस्तक में आदिवासियों की पहचान के संबंध में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि आदिवासी की आकृति आर्यों की आकृति से भिन्न है. आदिवासियों की भाषा आर्यों की भाषा से भिन्न है. (3) आदिवासी प्रकृति पूजक हैं, वे मूर्ति के पूजक नहीं हैं. इस देश में विभिन्न आदिवासी जातियां निवास करती हैं.

पूर्वी भारत का क्षेत्र आदिवासी क्षेत्र (ट्राइबल क्षेत्र) अर्थात संविधान में छठी अनुसूची क्षेत्र कहा जाता है. इन क्षेत्रों में उनका अपना विशेष अधिकार है.

देश के अंतर्गत अब 10 आदिवासी बाहुल्य वाले राज्य हैं, जिन्हें संविधान में 5वीं अनुसूची क्षेत्र का दर्जा मिला है. इन अनुसूची क्षेत्रों में लागू किसी संवैधानिक विशेष प्रावधानों का प्रस्ताव राज्य सरकार के दायरे के बाहर हैं. 5वीं अनुसूची क्षेत्रों में निम्न राज्य हैं- राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओड़िशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना. संविधान के तहत, 5वीं अनुसूची क्षेत्र वाले राज्यों के राज्यपालों को कुछ विशेष अधिकार दिये गये हैं. इनमें जनजातीय परामर्शदात्री परिषद का गठन करना, राज्यपाल जन अधिसूचना के माध्यम से निर्देश दे सकते हैं कि संसद या राज्य की विधायिका का कोई खास कानून 5वीं अनुसूची क्षेत्र में लागू नहीं किया जायेगा, राज्यपाल अनुसूचित जनजातियों के हित के लिए क्षेत्र की शांति एवं सुशासन व्यवस्था के लिए विनिमय बना सकते हैं आदि.

इधर, देश एवं राज्य के विकास के नाम पर आदिवासी एवं 5वीं अनुसूची क्षेत्रों में आदिवासी के स्वामित्व भू-खंडों पर अौद्योगिक शहरों का विस्तार, कल-कारखानों की स्थापना, खान-खनिज की खुदाई, बड़े पैमाने पर नदी-घाटी परियोजनाअों को स्थापित करते हुए आदिवासियों को विस्थापित करने की साजिश अतीत में भी रची गयी थी और आज भी झारखंड में जारी है. पूर्व में भी विकास के नाम पर आदिवासियों को 5वीं अनुसूची क्षेत्र से विस्थापित कर उनकी जनसंख्या में कमी लायी गयी है. इस कारण आदिवासी समुदाय के बीच भुखमरी व अशिक्षा है और वे बेरोजगारी के शिकार हैं.


साथ ही बाहरी क्षेत्र से बहुतायत गैर आदिवासी झारखंड में आकर 5वीं अनुसूचित क्षेत्रों के कल-कारखानों में नियोजन पाने के अवसर बना चुके हैं. झारखंड की धरती भारत देश में रत्नगर्भा की धरती है. यहां लोहा, कोयला, अबरक, सोना, चांदी, यूरेनियम, बाॅक्साइट, अल्युमिनियम आदि पदार्थ पाये जाते हैं. लोहा का विश्वविख्यात कारखाना जमशेदपुर में है, जहां से 18गांवों के लोगों को विस्थापित किया गया. एचइसी, हटिया, रांची में है, वहां से भी हजारों लोग विस्थापित हुए. बोकारो स्टील प्लांट बना, वहां से लाखों लोग विस्थापित हुए.


किरीबुरू, मेघातुबुरु स्टील कंपनी बना, वहां से भी लाखों लोग विस्थापित हुए, लेकिन नियोजन के अवसर वहां के आदिवासियों को इन समस्त कल-कारखानों में बहुत ही कम मिले. बाहरी क्षेत्रों के गैर आदिवासी आकर यहां नौकरी करने लगे और आदिवासियों की जमीन छीन कर अपना घर, मकान बनाने लगे.


इस कारण आदिवासियों की आबादी में कमी आयी. अब झारखंड में नयी स्थानीय नीति बनी, जिसमें 1985 से रहने वालों को स्थानीयता का अधिकार प्राप्त है. झारखंड का क्षेत्रफल 79,714 वर्ग किलोमीटर है. अनुसूचित क्षेत्रों का क्षेत्रफल 43,604 वर्ग किमी है, जो 53.89 प्रतिशत के बराबर है. अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासियों की आबादी 54,97,800 है, जो कुल आबादी का 52.80 प्रतिशत है. झारखंड की 54 प्रतिशत अनुसूचित जमीन पर 53 प्रतिशत में आदिवासी निवास करते हैं.


इधर, सन 1951 की जनगणना के आधार पर आदिवासियों की जनसंख्या वृद्धि दर 02.01 प्रतिशत थी, जबकि गैर आदिवासियों की वृद्धि दर 13.97 प्रतिशत थी. सन 1961 में झारखंड में आदिवासियों की जनसंख्या वृद्धि दर 12.71 प्रतिशत व गैर आदिवासियों की वृद्धि दर 23.62 प्रतिशत थी. सन 1971 में झारखंड में आदिवासियों की वृद्धि दर 15.89 प्रतिशत व गैर आदिवासियों की वृद्धि दर 26.01 प्रतिशत रही. इसी तरह 50 वर्षों के बाद आदिवासियों की जनसंख्या 27,83,238 है और गैर आदिवासियों की जनसंख्या 1,10,61,936 हो गयी है.


5वीं अनुसूची क्षेत्रों में गैर आदिवासियों ने आदिवासियों से जमीन व जंगल को गैर कानूनी ढंग से छीन लिये. सबसे महत्वपूर्ण एवं विडंबना का विषय है कि सीएनटी एक्ट 1908, एसपीटी एक्ट 1949 तथा विल्किंसन रूल्स 1837 को पूर्णत: शक्तिहीन एवं शिथिल बना दिया गया है. यहां इस क्षेत्र में आदिवासियों को अपने स्वामित्व वाली जमीन से गैर कानूनी ढंग से बेदखल किया गया है. झारखंड सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 29(1) एवं (2) के तहत संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार को आदिवासियों की भाषा, शिक्षा, लिपि एवं संस्कृति की रक्षा और विकास की प्रक्रिया को पूर्णत: शिथिल एवं प्रभावहीन कर दिया है.


इधर, संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल संताली भाषा के पठन-पाठन की व्यवस्था प्राथमिक विद्यालय स्तर से नहीं किया जाना झारखंड सरकार के द्वारा गहरी साजिश का हथकंडा है.आदिवासियों की पांच भाषाएं, जिन्हें झारखंड राज्य में द्वितीय राज्य भाषा का दर्जा प्राप्त है, उनका पठन-पाठन प्राथमिक विद्यालय स्तर से अब तक प्रारंभ नहीं किया गया है.


सीएनटी एवं एसपीटी एक्ट के उल्लंघन कर अनेक गैर आदिवासियों ने गैर कानूनी ढंग से जमीन को दखल किया है, उसकी वापसी के लिए करीब 92 हजार मुकदमे झारखंड के विभिन्न न्यायालयों में अब तक लंबित हैं. आदिवासी समुदाय जमीन की वापसी संबंधी मामलों के लिए न्याय की प्रतीक्षा में है. पंचायत उपबंध (अनुसूची क्षेत्रों पर) विस्तार अिधनियम-1996 अर्थात संसद द्वारा पारित पेसा एक्ट के तहत 5वीं अनुसूची क्षेत्र में आदिवासियों की अपनी रूढ़िवादी परंपरागत के तहत जैसे मानकी मुंडा, मांझी परगना महल, पड़हा राजा, डोकलो-सेहोर के तहत ग्राम सभा में प्रधान एवं अध्यक्षता होना है तथा प्रत्येक सरकारी योजना ग्राम सभा के द्वारा पारित होनी है.


यह संवैधानिक ग्राम सभा का अधिकार पेसा एक्ट के तहत प्राप्त है, जो आज झारखंड में पूर्णत: शिथिल एवं उदासीनता की स्थिति में है. 24 जिलों के 199 प्रखंडों के 11590 गांवों में सखी मंडल का गठन हो चुका है, जिसमें 14 लाख 13 हजार परिवारों को इस कार्यक्रमों से जोड़ा गया है. 5678 महिला ग्राम संगठन को सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया गया है, ताकि गांवों में ग्राम सभा शिथिल हो जाये.


क्या झारखंड सरकार उपरोक्त महत्वपूर्ण अधिनियमों को प्रभावशाली ढंग से लागू करने के लिए तत्पर है? अथवा 5वीं अनुसूची क्षेत्र में जमीन अधिग्रहण बिल को पारित करने के बाद उसे त्वरित गति से लागू करना चाहती है? नौ अगस्त विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर झारखंड सरकार से हम आदिवासी समुदाय न्याय की प्रतीक्षा में खड़े हैं. विश्व आदिवासी दिवस का यही संदेश है.
लेखक झारखंड आंदोलनकारी सह समाजसेवी हैं.


https://www.prabhatkhabar.com/news/vishesh-aalekh/story/1192125.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close