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न्यूज क्लिपिंग्स् | पत्रकारिता के शीर्ष कुलदीप नैयर-- नीरजा चौधरी

पत्रकारिता के शीर्ष कुलदीप नैयर-- नीरजा चौधरी

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published Published on Aug 24, 2018   modified Modified on Aug 24, 2018
भारतीय पत्रकारिता के बड़े आधार-स्तंभों में से एक कुलदीप नैयर अब हमारे बीच नहीं रहे. मैं उन्हें भारतीय पत्रकारिता जगत का लिजेंड मानती हूं. मैं उनके काम करने के तरीके और उनकी पत्रकारिता को जितना नजदीक से जानती हूं, कह सकती हूं कि आज तकनीकी के इस दौर में भी कोई पत्रकार वैसा काम नहीं कर सकता. जिस तरीके से वे फैक्ट फाइंडिंग करते थे, उसमें कहीं भी कोई एकपक्षीय तथ्य खोजे नहीं मिलता था. पॉलिटिकल रिपोर्टिंग में उनका कोई सानी नहीं था और न ही उनके जैसी स्पष्टवादिता ही किसी में थी.


पॉलिटिकल रिपोर्टिंग करते हुए वे नेताओं से बात तो करते थे, लेकिन किसी एक नेता की बातचीत को ही खबर का आखिरी छोर नहीं मान बैठते थे, बल्कि उसका दूसरा पक्ष जब तक जान नहीं लेते थे या जब तक उसकी पुष्टि नहीं कर लेते थे, तब तक उस स्टोरी को पूरा नहीं करते थे.


हर एक से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, मगर सीधी बात करते थे. यही वजह है कि कोई नेता या राजनीति से जुड़ा व्यक्ति उनसे बात करने में जरा भी हिचकिचाता नहीं था, क्योंकि सभी जानते थे कि कुलदीप जी कभी भी इनपुट के साथ न तो पक्षपाती हो सकते थे और न ही बेवजह सिनिकल (निंदक) हो सकते थे. यही बात उनकी पत्रकारिता और उनके काम की जान थी. पॉलिटिकल रिपोर्टिंग करते हुए हर एक दल के नेताओं से व्यक्तिगत स्तर पर अच्छे संबंध होना इस बात का प्रमाण है कि वे पत्रकारीय नैतिकता के कितने धनी व्यक्ति थे.


तथ्यपरकता, सच्चाई, लकीर का फकीर न होना, किसी भी स्टोरी में अपनी लाइन नहीं लेना, जो है उसे ही लिखना है, ये सब चीजें उनकी पत्रकारिता में शामिल थीं.
लेकिन, अफसोस की बात है कि आजकल के ज्यादातर पत्रकारों में यह सब देखने तक को नहीं मिलता. कुलदीप नैयार सरकार के भीतर से फैक्ट फाइंडिंग खूब करते थे और नेता भी उन पर खूब विश्वास करते थे और स्पष्टता बताते थे. उस दौर के सभी नेता उनकी इस खूबी को जानते थे कि कुलदीप जी को 'ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर' की राह पर चलते हुए स्टोरी की सच्चाई और गरिमा बरकरार रखने की कला में महारत हासिल है. भारतीय पत्रकारिता और पत्रकारीय संस्थान यूएनआई को बनाने-संवारने में उनका बड़ा योगदान माना जा सकता है.


मेरे जैसे बहुत से लोग उनसे इसी बात की प्रेरणा लेते थे. मैं उनकी किताब 'बिटविन दि लाइंस' से बहुत प्रभावित थी. मैं हमेशा से यह चाहती थी कि मैं कुलदीप नैयर बन जाऊं. मैं ही क्या, उस दौर के कई और भी थे जो ऐसा सोचते थे.
लेकिन, ऐसा कहां मुमकिन है कि किसी और की तरह कोई दूसरा व्यक्ति बन पाये. शायद इसलिए भी उनके जाने से आज भारतीय पत्रकारिता जगत में एक बड़े खालीपन को महसूस किया जा सकता है. पॉलिटिकल रिपोर्टिंग करते हुए कैसे अपने निजी विचारों में एकदम स्पष्ट होना चाहिए, इस बात की सबसे अच्छी मिसाल अगर कोई है, तो वे कुलदीप नैयर ही हैं. इसलिए मैं उन्हें भारतीय पत्रकारिता जगत का लिजेंड मानती हूं.


कुलदीप नैयर से पहली बार मैं तब मिली थी, जब वे स्टेट्समैन के रेजिडेंट एडिटर हुआ करते थे. राजमोहन गांधी ने मुझे और कुछ अन्य पत्रकारों को कुलदीप जी से मिलवाया था. उस दौरान उनसे हुई बातचीत मुझे याद है.
उनसे बातचीत में, उनके बताने-समझाने में मैंने महसूस किया कि अपने देश को लेकर वे कितना गंभीर थे. बातचीत में कभी-कभार वे बंटवारे का जिक्र भी करते थे और उस राजनीतिक घटना को मौजूदा हालत के परिप्रेक्ष्य में जोड़कर बताते थे, लेकिन कहीं भी किसी और के प्रति वे सिनिकल नहीं होते थे. इससे समझ में आता था कि देश और नागरिकों के प्रति उनका कितना गहरा लगाव था.


उनके व्यक्तित्व का एक शानदार पहलू यह है कि उनमें माफ करने का गुण गहरे तक था. जबकि किसी अखबार का संपादक होना एक अलग तरह के रुतबे में रहना और दंभ का पालना भी हो सकता है, जो निचले पदों पर बैठे व्यक्तियों के लिए कई तरह की परेशानियों का कारण है.


मेरी बदकिस्मती यह है कि जहां-जहां, जिस भी अखबार में काम करने गयी, मेरे ज्वॉइन करने से पहले ही वे उसे छोड़ चुके होते थे. फिर भी उनका सानिध्य मिलता रहा और हम उनसे सीखते रहे.
उनकी पत्रकारिता और व्यक्तिगत जीवन के अलावा ऐसे बहुत से आयाम हैं, जिन पर चर्चा करने के लिए एक लंबा वक्त चाहिए. लेकिन हां, इतना तो जरूर कहूंगी कि मानवाधिकार, नागरिक अधिकार संरक्षण, आपातकाल और कश्मीर में लोगों के हक को लेकर उनका बड़ा काम है.


तब वे न तो पत्रकार रह जाते थे, न ही कोई व्यक्तित्व, बल्कि बिना किसी खांचे से बंधा एक बेहतर इंसान होते थे और इंसानियत की नजर से ही मानवाधिकारों पर लिखते-बाेलते थे. भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को वे बहुत ही गंभीरता से देखते थे. उनका मानना था कि हम अपना पड़ोसी नहीं बदल सकते, इसलिए हमें एक-दूसरे के साथ घुल-मिलकर ही रहना चाहिए.


इसी में देशों की कामयाबी है, नहीं तो बंटवारे का दर्द हमेशा गहरे तक सालता रहेगा. यही वजह है कि पड़ोसी देशों के नेताओं से भी उनके अच्छे रिश्ते थे. पाकिस्तान में उन्हें बहुत सम्मान की नजर से देखा जाता है. उन्हें नमन!

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1197559.html


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