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न्यूज क्लिपिंग्स् | पदोन्नति में आरक्षण का प्रश्न-उदित राज

पदोन्नति में आरक्षण का प्रश्न-उदित राज

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published Published on Dec 27, 2012   modified Modified on Dec 27, 2012

जनसत्ता 27 दिसंबर, 2012: पदोन्नति में आरक्षण का विवाद अभी थमा नहीं है और निकट भविष्य में थमने वाला भी नहीं है। पिछले अठारह दिसंबर को राज्यसभा ने पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए एक सौ सत्रहवां संवैधानिक संशोधन विधेयक पारित कर दिया था। दूसरे दिन यानी उन्नीस दिसंबर को इसे लोकसभा को पारित करना था। समाजवादी पार्टी के विरोध के कारण कई बार लोकसभा की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी। सरकार की जो इच्छाशक्ति एफडीआइ को लेकर दिखी थी, वह इस मामले में नहीं दिखी। लोकसभा में सपा के बाईस सदस्य ही हैं और उनके रोकने से भी विधेयक पारित किया जा सकता था। जब वह पारित नहीं हुआ तो आरक्षण विरोधियों ने मुहिम और तेज कर दी।


उत्तर प्रदेश से तमाम सूचनाएं आर्इं कि आरक्षण विरोधी कर्मचारी उतने सक्रिय नहीं थे, जितना मीडिया में दिखाया गया, बल्कि सरकार की शह पर पार्टी के कार्यकर्ताओं ने कर्मचारियों की ओर से तमाम कार्यालयों में तालाबंदी की। कांग्रेस और भाजपा को लगा कि उनका सवर्ण जनाधार खासतौर से उत्तर प्रदेश में खिसक जाएगा और इसलिए इस विधेयक को बिना पास किए संसद की कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई, जबकि उसे बाईस दिसंबर तक चलना था। बीस दिसंबर को भाजपा के कुछ नेताओं के सुर बदले नजर आए और जिस तरह से उन्होंने राज्यसभा में सहयोग दिया वैसा यहां नहीं किया।
वास्तव में इस मामले में भ्रांति बहुत है कि इससे सामान्य वर्ग की पदोन्नति पर असर पड़ेगा। 1955 से ही पदोन्नति में आरक्षण मिलता चला आ रहा है और जब अब तक प्रतिकूल असर नहीं पड़ा तो आगे क्या पड़ने वाला है? सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में पदोन्नति में आरक्षण नहीं खत्म किया था, बल्कि कुछ शर्तें लगा दी थीं, जिनका पालन करते हुए आरक्षण दिया जा सकता था। उन्हीं शर्तों को खत्म करने के लिए विधेयक संसद में है, न कि नए अधिकार के लिए।


दरअसल, इस समस्या का समाधान सतहत्तरवें, बयासीवें और पचासीवें संवैधानिक संशोधन में किया जा चुका है। इंदिरा साहनी मामले का फैसला 1992 में आया, जिसमें कहा गया कि पदोन्नति में आरक्षण आगे पांच साल तक चालू रहेगा। इस निर्णय से उपजी समस्याओं का समाधान 1995 में सतहत्तरवें संवैधानिक संशोधन के द्वारा किया गया। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐसे फैसले आए, जिससे भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने 30 जनवरी, 1997 और 22 जुलाई, 1997 को आरक्षण विरोधी आदेश जारी किया। बाईस जुलाई को जारी कार्यालय-विज्ञप्ति के मुताबिक पदोन्नति या विभागीय परीक्षा पास करने की जो छूट मिलती थी वह वापस ले ली गई।


इस अधिकार को पुन: बहाल करने के लिए बयासीवां संवैधानिक संशोधन सन 2000 में राजग सरकार द्वारा लाया गया। विभागीय परीक्षा पास करने की छूट और पात्रता के मापदंड में भी छूट के लिए संविधान की धारा 335 में पचासीवां संशोधन किया गया। धारा 335 के अनुसार, अनुसूचित जाति-जनजाति की नियुक्ति करते समय इस बात का ध्यान दिया जाना चाहिए कि प्रशासनिक दक्षता पर कोई प्रभाव न पड़े। 30 जनवरी 1997 की विज्ञप्ति के अनुसार वरिष्ठता के परिणामी लाभ को छीन लिया गया। इस अधिकार को वापस करने के लिए धारा 16(4-क) को 2001 में संशोधित किया गया। इसी संशोधन को कर्नाटक हाइकोर्ट में चुनौती दी गई और अंत में मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने की। इस प्रकरण को नागराज मामले के नाम से जाना जाता है।


पदोन्नति में आरक्षण और परिणामी लाभ को सर्वोच्च न्यायालय ने बरकरार तो रखा, लेकिन तीन शर्तें लगा दीं, जैसे- प्रतिनिधित्व की कमी, दक्षता और पिछड़ापन। नौ जजों की पीठ (इंदिरा साहनी) ने तय कर दिया था कि अनुसूचित जाति-जनजाति पिछड़े हैं, फिर भी नागराज मामले की सुनवाई करने वाली पीठ इस बड़ी पीठ के फैसले को उलट दिया है, जो कभी होता नहीं है। हुआ इसलिए कि यह मामला अनुसूचित जाति और जनजाति से संबंधित था। पिछले साल चार जनवरी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने पदोन्नति में आरक्षण खत्म कर दिया, यह कहते हुए कि सरकार ने नागराज के मामले में निर्धारित शर्तों को नहीं माना। मामला सुप्रीम कोर्ट में आया और इस साल सत्ताईस अप्रैल को उसने हाईकोर्ट के फैसले को उचित ठहरा दिया।


एक सौ सत्रहवें संवैधानिक संशोधन पर जो मैराथन बहस संसद में चली, वह हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों से संबंधित थी। इस संशोधन में फिर से लगभग वही प्रावधान रखा जा रहा है जो पहले से ही है। संविधान की धारा 341 में अनुसूचित जाति और 342 में अनुसूचित जनजाति को पिछड़ा माना गया है और अब इस संशोधन से फिर से इन्हें पिछड़ा माना जाएगा ताकि नागराज मामले में बताई गई शर्त पूरी की जा सके। क्या कोई शक है कि ये जातियां पिछड़ी नहीं हैं? वास्तव में हुआ यह कि किसी विशेष विभाग में कुछ अनुसूचित जाति के अधिकारी उच्च पदों पर ज्यादा पहुंच गए थे और उसी को न्यायालयों के सामने आधार बना कर बहस की गई, यानी अपवाद को सच्चाई मान लिया गया।


पदोन्नति में आरक्षण 1955 से होने के बावजूद अभी तक पहली श्रेणी में ग्यारह फीसद तक ही आरक्षण पहुंच सका है, जबकि होना पंद्रह फीसद चाहिए। अपवाद को छोड़ दिया जाए तो सारे सरकारी विभागों में इन वर्गों के प्रतिनिधित्व की कमी है। देश में किसी शोध ने अभी तक यह नहीं सिद्ध किया कि आरक्षण से प्रशासन पर प्रतिकूल असर पड़ा हो। तमिलनाडु में उनहत्तर फीसद तक   आरक्षण है और वह उत्तर भारत के राज्यों से कई मामलों में आगे है, चाहे कानून-व्यवस्था हो, स्वास्थ्य, शिक्षा, आइटी, उद्योग आदि। नागराज मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला उचित नहीं था। न्यायपालिका का मुख्य कार्य यह है कि विधायिका के द्वारा जो भी कानून बनाया जाए, उसकी सही व्याख्या करे, न कि वह खुद कानून तय करने लगे।


मायावती ने राज्यसभा में काफी दमखम दिखाया और कांग्रेस को भी लगा कि इसका श्रेय बसपा ले रही है। यह मुकदमा 2006 से इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में चला और चार जनवरी, 2011 को इस पर फैसला आया। हाईकोर्ट ने बार-बार सरकार से जानना चाहा कि क्या नागराज मामले में दी गई शर्तों को राज्य सरकार पूरा करके पदोन्नति में आरक्षण दे रही है? उचित जवाब न मिलने पर खिलाफ में फैसला आ गया। फिर भी निर्णय के अंतिम पैराग्राफ में यह बात कही गई थी कि राज्य सरकार चाहे तो पदोन्नति में आरक्षण आगे चालू रख सकती है, बशर्ते और जांच-समिति बना कर इन शर्तों को पूरा करे। इस तरह से मायावती सरकार को इस अधिकार को बचाने का दो बार मौका मिला, पर उसने ऐसा न करके मामले को सुप्रीम कोर्ट में भेज दिया। अनुसूचित जाति-जनजाति संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ की ओर से बहुत प्रयास किए कि सवर्ण वोटों के लालच में मायावती ऐसा न करें, लेकिन उन्हें कहां सुनना था? और अंत में सुप्रीम कोर्ट ने भी लखनऊ हाईकोर्ट के फैसले पर मुहर लगा दी। बिहार सरकार ने एक जांच समिति बना कर पदोन्नति में आरक्षण चालू रखा है और उत्तर प्रदेश सरकार भी यह कर सकती थी। अगर ऐसा किया होता तो आज ऐसी स्थिति पैदा ही न होती। समाजवादी पार्टी ने अपने दलित सांसदों को ही लोकसभा में दलित हितों के खिलाफ इस्तेमाल किया।


मुलायम सिंह का मतभेद मायावती से है, न कि दलितों से होना चाहिए। समाजवादी पार्टी ने जिस तरह से संसद में विरोध किया उससे देश में यही संदेश गया कि उसकी दुश्मनी सभी दलितों से है। इस बार छह दिसंबर को उत्तर प्रदेश में छुट्टी नहीं घोषित की गई। इसी दिन आंबेडकर का 1956 में निधन हुआ था। आंबेडकर अब हमारे बीच रहे नहीं, फिर भी मुलायम सिंह उनसे बदला लेने का काम क्यों कर रहे हैं?


भले ही सवर्णों को खुश करने के लिए समाजवादी पार्टी संसद में पदोन्नति में आरक्षण का विरोध करे, लेकिन उसे इनका वोट मिलने वाला नहीं है। जो एकता दलितों और पिछड़ों में बनी थी, उस पर बहुत असर पड़ा है और शायद इसकी भरपाई करना मुश्किल होगा। पिछड़े वर्ग के भी तमाम लोग समाजवादी पार्टी के इस रवैये से दुखी हैं। उनका भी मानना है कि बजाय दलितों के  लिएतरक्की में आरक्षण का विरोध करने के, सपा को पिछड़े वर्ग के लिए भी पदोन्नति में आरक्षण की मांग करनी चाहिए थी। इससे सामाजिक न्याय की लड़ाई भी आगे बढ़ती।


आरक्षण इस देश में बड़ा विवादित मसला है। कुछ लोगों का मानना है कि इससे देश पीछे जा रहा है। ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि आजादी के बाद से व्यवस्था के तीनों अंगों पर अधिकतर समय सवर्ण लोग ही काबिज हैं तो क्यों भ्रष्टाचार, गरीबी, पिछड़ापन और कानून-व्यवस्था की समस्या देश में बनी हुई है। अपवाद को छोड़ कर उच्च न्यायपालिका सदा सवर्णों द्वारा काबिज रही, तो क्यों दादा के जमाने के मुकदमों का फैसला नाती के समय में होता है? इस समय देश में बलात्कार के खिलाफ आंदोलन चल रहा है और सभी लोग पुलिस और सरकार को कोस रहे हैं, जबकि न्यायपालिका की भी जिम्मेदारी कम नहीं है। कहावत है कि देर से न्याय मिलने का मतलब है कि न्याय मिला ही नहीं। अपराधियों का हौसला इसीलिए बुलंद हो जाता है कि न्यायिक प्रक्रिया लंबी ही नहीं, बल्कि बहुत महंगी है।


आरक्षण समस्याओं का समाधान नहीं है, यह हम जानते हैं, लेकिन विकल्प क्या है? निजीकरण और उदारीकरण की वजह से तमाम नए क्षेत्र मान-सम्मान, धन-संपत्ति, खुशहाली और सत्ता के पैदा हुए, लेकिन उनमें अनुसूचित जाति-जनजाति की भागीदारी शून्य रही, चाहे सूचना प्रौद्योगिकी या दूरसंचार हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सेवा क्षेत्र, शेयर बाजार, एफडीआइ आदि। अनुसूचित जाति-जनजाति की भागीदारी केवल आरक्षण की वजह से राजनीति और सरकारी विभागों में है, अगर यह न होता तो अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि आज भी ये गुलाम बने रहते।


आज मुक्त अर्थव्यवस्था में भी सामाजिक न्याय की हवा बह रही है। हाल में ओबामा की जीत एक सामाजिक न्याय की लड़ाई ही है। गोरों का दिल बहुत बड़ा है। उनकी चौहत्तर फीसद आबादी होते हुए भी बारह फीसद की आबादी वाले अश्वेत समुदाय के एर व्यक्ति को उन्होंने राष्ट्रपति बनाया। हम तो कहते आ रहे हैं कि अनुसूचित जाति-जनजाति के लोग आरक्षण का त्याग करने के लिए तैयार हैं, अगर देश में सभी को समान शिक्षा मिले और जाति-विहीन समाज स्थापित हो जाए। जो लोग आरक्षण का विरोध कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि इस दिशा में काम करें। इन्हें पहले के आरक्षण का विरोध पहले करना चाहिए। आज भी हिंदू धर्म के चारों धामों पर आरक्षण ब्राह्मण का ही है, लेकिन आरक्षण विरोधी इस पर चुप रहते हैं। जिस दिन इस देश का सवर्ण इस आरक्षण के खिलाफ बोलने लगेगा उसी दिन से बड़ा बदलाव आना शुरू हो जाएगा।


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/3-2009-08-27-03-36-02/35452--10-


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