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न्यूज क्लिपिंग्स् | पानी के सवाल से क्यों बचते हैं राजनीतिक दल- विनीत नारायण

पानी के सवाल से क्यों बचते हैं राजनीतिक दल- विनीत नारायण

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published Published on Mar 26, 2014   modified Modified on Mar 26, 2014
चुनाव का बिगुल बजते ही राजनीतिक दल अब इस बात को लेकर असमंजस में हैं कि जनता के सामने वायदे क्या करें? यह पहली बार हो रहा है कि विपक्षी दलों को भी कुछ नया नहीं सूझ रहा है। दरअसल हाल ही में बड़े वायदे के साथ दिल्ली में सत्ता में आई केजरीवाल सरकार की जिस तरह की फजीहत हुई, उससे तमाम विपक्षी दलों के सामने चुनौती खड़ी हो गई है कि वे जनता को कौन से नए सपने दिखाएं!

आमतौर पर देश की जनता को केंद्र सरकार से यह अपेक्षा होती है कि वह देश में लोक कल्याण की नीतियां तय करे और उसके लिए आंशिक रूप से धन का भी प्रावधान करे। विकास का बाकी काम राज्य सरकारों को करना होता है। पर केंद्र सरकार की सीमाएं यह होती हैं कि उसके पास संसाधन तो सीमित होते हैं और जन आकांक्षाएं इतनी बढ़ा दी जाती हैं कि नीतियों और योजनाओं का निर्धारण प्राथमिकता के आधार पर हो ही नहीं सकता। फिर होता यह है कि सभी क्षेत्रों में थोड़े-थोड़े संसाधनों को आवंटित करने की कवायद हो पाती है। अब तो यह रिवाज ही बन गया है और इसे ही संतुलित विकास के सिद्धांत का हवाला देकर चला दिया जाता है।

पूरे देश में पिछले 40 वर्षों से लगातार भ्रमण करते रहने से यह तो साफ है कि देश की सबसे बड़ी समस्या आज पानी को लेकर है। पीने का पानी हो या सिंचाई के लिए, हर जगह संकट है। पीने के पानी की मांग तो पूरे साल रहती है, पर सिंचाई के लिए पानी की मांग फसल के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। पीने का पानी एक तो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है और है, तो पीने योग्य नहीं। चौतरफा विकास के दावों के बावजूद स्वच्छ पेयजल की सार्वजनिक प्रणाली का आज तक नितांत अभाव है। पर कोई भी राजनीतिक दल इस समस्या को लेकर चुनावी घोषणा पत्र में अपनी तत्परता नहीं दिखाना चाहता। आम आदमी पार्टी ने इस मुद्दे को बड़ी चालाकी से भुनाया। फिर उसकी दिल्ली सरकार ने जनता को अव्यावहारिक समाधान देकर गुमराह किया।

स्वच्छ पेयजल का अभाव ही भारत में बीमारियों की जड़ है। यानी अगर पानी की समस्या का हल होता है, तो आम जनता का स्वास्थ्य भी आसानी से सुधर सकता है। मजे की बात यह है कि स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर हर वर्ष भारी रकम खर्च करने वाली सरकारें और इस मद में बड़े-बड़े आवंटन करने वाला योजना आयोग भी पानी के सवाल पर कन्नी काट जाता है। मतलब साफ है कि देश के सामने मुख्य चुनौती जल प्रबंधन की है। इसीलिए एक ठोस और प्रभावी जल नीति की जरूरत है, जिस पर कोई राजनीतिक दल नहीं सोच रहा। इसलिए ऐसे समय में जब देश में आम चुनाव के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र बनाए जाने की प्रक्रिया चल रही है, पानी के सवाल को उठाना और उस पर इन दलों का रवैया जानना बहुत जरूरी है।

चुनावी घोषणापत्रों में पानी के मुद्दे को शामिल करने से पहले राजनीतिक दलों को इस समस्या के हल होने या न होने का अंदाजा लगाना पड़ेगा, वरना यह घोषणा चुनावी नारे से आगे नहीं जा पाएगा। इस विषय पर विद्वानों ने जो शोध और अध्ययन किया है, उससे पता चलता है कि सिंचाई के अपेक्षित प्रबंध के लिए पांच वर्ष तक हर साल कम से कम दो लाख करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी। पीने के साफ पानी के लिए पांच साल तक कम से कम एक लाख बीस हजार करोड़ रुपये हर वर्ष खर्च करने पड़ेंगे। दो बड़ी नदियों-गंगा और यमुना के प्रदूषण से निपटने का काम अलग से चलाना पड़ेगा। पानी जैसी बुनियादी जरूरत का मुद्दा उठाने से पहले मैदान में उतरे सभी राजनीतिक दलों को इस समस्या का अध्ययन करना होगा। पर हमारे राजनेता चतुराई से चुनावी वायदे करना खूब सीख गए हैं।

http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/why-political-parties-not-solve-water-problems/


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