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न्यूज क्लिपिंग्स् | पूंजी के प्रतीकों पर प्रश्नचिह्न् : केविन रैफर्टी

पूंजी के प्रतीकों पर प्रश्नचिह्न् : केविन रैफर्टी

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published Published on Feb 8, 2012   modified Modified on Feb 8, 2012
जरूरत है.. जरूरत है.. जरूरत है.. 60 करोड़ नए जॉब्स की जरूरत है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन (आईएलओ) की जनवरी 2012 की रिपोर्ट की यह हैडलाइन पूरी दुनिया के लिए एक चेतावनी की तरह है। रिपोर्ट कहती है कि अगले एक दशक में 60 करोड़ नए उत्पादक जॉब सृजित करने की आसन्न चुनौती का सामना करने के लिए दुनिया को अब कमर कस लेनी चाहिए। प्रेस और बीबीसी ने इस रिपोर्ट की अनदेखी कर दी।

शायद यह अप्रत्याशित भी नहीं था। लेकिन सवाल यह है कि आईएलओ ने यह आंकड़ा कैसे पाया? आखिर कोई कैसे आगामी दस वर्षो के बारे में अनुमान लगाते हुए ठीक 60 करोड़ का आंकड़ा हमारे सामने रख सकता है? क्या आईएलओ आंकड़ों का आतंक फैलाना चाहता है? आईएलओ के आंकड़े के बारे में यह संदेह इसलिए भी पैदा होता है, क्योंकि उसने उसी रिपोर्ट में अन्यत्र यह भी कहा है कि आज दुनिया में 1.1 अरब लोग या तो बेरोजगार हैं या घोर गरीबी में जी रहे हैं। लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि जिस दुनिया को नए और उत्पादक जॉब्स सृजित करने की सख्त जरूरत है, उसे चलाने वाले आखिर कौन हैं?

बेरोजगारी आधुनिक पूंजीवाद की सबसे भयावह देन है। अमेरिका या यूरोप में इसके परिणाम साफ देखे जा सकते हैं। पश्चिम के परिष्कृत समुदायों ने इससे पहले कभी ऐसी स्थिति का सामना नहीं किया था कि नौकरी छिन जाने पर जीवन में कैसी उथल-पुथल मच जाती है या कॉलेज से निकलने के बाद बेरोजगार बैठे रहने पर क्या बीतती है। 21वीं सदी के पश्चिम जगत की यही सच्चाई है, जहां धीरे-धीरे सामुदायिकता की भावना से भरे समूह विलुप्त होते चले गए और उनकी जगह निष्प्राण और विकराल शहरों ने ले ली।

आज स्पेन की 24 फीसदी आबादी बेरोजगार है और यूरोपीय संघ में सवा दो करोड़ से अधिक लोग काम की तलाश में मारे-मारे फिर रहे हैं। अमेरिका के पुराने औद्योगिक कस्बों की हालत तो और बदतर है। द अटलांटिक के ताजा अंक में तो यह चुटकुला है कि अमेरिका की टेक्सटाइल इंडस्ट्री इतनी ऑटोमेटेड है कि वहां काम के लिए केवल एक व्यक्ति और एक कुत्ते की ही दरकार है। व्यक्ति का काम होगा कुत्ते की देखभाल करना और कुत्ते का काम होगा उस व्यक्ति को यथासंभव मशीनरी से दूर रखना।

दुनिया के सबसे बड़े मैनुफेक्चरर के रूप में अमेरिका तेजी से चीन से पिछड़ता जा रहा है। अमेरिका की जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान पिछले तीन सालों में 21 प्रतिशत से घटकर 11 प्रतिशत हो चुका है। विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार का भी बड़ा संकट पैदा हुआ है और इस कारण पिछले एक दशक में ही छह करोड़ लोगों को जॉब से हाथ गंवाना पड़ा है। पिछले पचास सालों में अमेरिका में विनिर्माण क्षेत्र द्वारा सृजित किए जाने वाले रोजगारों का प्रतिशत जहां 38 फीसदी से घटकर 14 फीसदी रह गया है, वहीं सेवा क्षेत्र द्वारा सृजित किए जाने वाले रोजगार 62 फीसदी से बढ़कर 86 फीसदी हो गए हैं।

वर्ष 2010 तक तो अमेरिका में सेवा क्षेत्र ही सबसे बड़ा रोजगार निर्माता क्षेत्र था। अमेरिका के साथ ही यूरोप में भी मैनुफेक्चरिंग को सबसे बड़ा आघात ऑटोमेशन और आउटसोर्सिग की दोहरी साझेदारी से पहुंचा है। आने वाले समय में हालात और बदतर होने की आशंका है, जिसके चिंतनीय सामाजिक परिणाम हो सकते हैं। ऐसे में निम्न आय वर्ग वाले रिटेल या क्लर्किग जॉब ही एकमात्र विकल्प रह गए हैं, लेकिन उनके कारण अमीर और गरीब के बीच आय का अंतर बेहद बढ़ जाएगा।

सच तो यह है कि आर्थिक जगत के आकाओं के विरुद्ध जनाक्रोश की तीखी अभिव्यक्ति का समय अब आ गया है। पूंजीवाद के ये सारथी लाखों डॉलर की तनख्वाह पा रहे हैं, जबकि लोग एक अदद नौकरी के लिए तरस रहे हैं। विकासशील तीसरी दुनिया में, जहां आज भी दुनिया की आबादी का 80 फीसदी हिस्सा रहता है, रोजगार का संकट और विकराल है। द न्यूयॉर्क टाइम्स में हाल ही में श्रंखलाबद्ध रूप से प्रकाशित हुए लेखों में बताया गया है कि एप्पल के आईफोन्स और आईपैड बनाने वाली कुछ चीनी फैक्टरियों में कर्मचारियों को अमानवीय स्थितियों में काम करना पड़ रहा है और इससे उनके स्वास्थ्य को भी बहुत नुकसान पहुंच रहा है।

चीन को अपने श्रम कानूनों के भयावह दुरुपयोग को नियंत्रित करने के लिए जल्द ही कुछ करना होगा। एप्पल वाली खबर का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि कंपनी ने आईफोन की स्क्रीन बदलने का निर्णय अंतिम क्षण में लिया था और इसका खामियाजा चीनी कर्मचारियों को भुगतना पड़ा। लगभग आठ हजार कर्मचारियों को आधी रात को उठाया गया और एक कप चाय पिलाकर उन्हें 12 घंटे की अर्जेट शिफ्ट पर लगा दिया गया। महज 96 घंटे के भीतर वह फैक्टरी एक दिन में दस हजार आईफोन्स का उत्पादन कर रही थी। अमेरिका में ऐसा कभी नहीं हो सकता और शायद भारत में भी नहीं।

यदि भारतीय उपमहाद्वीप के ग्रामीण क्षेत्रों में जाएं और अफ्रीका के एक बड़े हिस्से में जाकर देखें तो यह पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि रोजगार और बेरोजगारी के बीच क्या फर्क है। लाखों परिवारों के पास अपनी कोई जमीन नहीं है, वे दूसरों के खेत में जानवरों की तरह काम करते हैं और उनके बच्चे स्कूल जाने के बजाय ढोर-डंगर चराते रहते हैं। शिक्षा और पूंजी के विस्तार के इस युग में बांग्लादेश या वियतनाम की किसी महिला के लिए जरूर यह संभव है कि वह अमेरिका या चीन या थाईलैंड के किसी उद्यमी द्वारा खोली गई कपड़ा फैक्टरी में जाकर काम करे, लेकिन यह एक संदिग्ध और अनिश्चित प्रक्रिया है और पश्चिम की आर्थिक सेहत से इसका सीधा नाता है।

तीसरी दुनिया में श्रमशक्ति कहीं सस्ती दरों पर मिल जाने के कारण आउटसोर्सिग जारी रहेगी, यह पश्चिम के लिए बुरी खबर है। लेकिन सबसे दुखद यह नहीं है कि दुनिया संकट की स्थिति का सामना कर रही है, सबसे दुखद यह है कि दुनिया को संकट से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। यूरोजोन संकट से आईएमएफ और विश्व बैंक दोनों ही स्तब्ध हैं। अकेला डब्ल्यूटीओ अरण्यरोदन कर रहा है। जबकि दूसरी ओर दुनियाभर के राजनेता अपनी संकीर्ण राजनीति में व्यस्त हैं।

लेखक विश्वबैंक के पूर्व मैनेजिंग एडिटर व प्लेनवर्डस मीडिया के एडिटर इन चीफ हैं।
 

http://www.bhaskar.com/article/ABH-strong-expression-of-public-2831611.html


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