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न्यूज क्लिपिंग्स् | बड़े सवालों से मुंह छुपाता वाम- उर्मिलेश

बड़े सवालों से मुंह छुपाता वाम- उर्मिलेश

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published Published on Oct 31, 2014   modified Modified on Oct 31, 2014
चुनावी विफलताओं से उपजी हताशा और अपनी निष्क्रियता के चलते काफी लंबे समय से देश के पारंपरिक वामपंथी दल राष्ट्रीय-चर्चा से लगभग बाहर हैं. इधर, अचानक मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में महासचिव प्रकाश करात और पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी के पक्ष-विपक्ष की दलबंदी के चलते वाम-राजनीति की एक खास बहस सामने आयी है. यह प्रमुखत: गंठबंधन की राजनीति को लेकर है. लेकिन इस बहस में वे सवाल कहीं नहीं हैं, जो देश की वामपंथी राजनीति के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती बन कर खड़े हैं.

ये सवाल हैं- बुनियादी वर्गो से लेकर समाज के अन्य हिस्सों में पार्टी अपने लिए खास आकर्षण क्यों नहीं बना पा रही है? दलित-आदिवासी, पिछड़े-अल्पसंख्यक और आम गरीबों के साझा संघर्ष की रणनीति का नया विमर्श और परिप्रेक्ष्य क्या है? दक्षिणपंथी उभार की काट क्या है? वैश्विक पूंजी, कॉरपोरेट-खुशहाल मध्यवर्गीय सरोकारों और उसके द्वारा अनुकूलित प्रचारतंत्र से आम समाज को कैसे बचाया जाये? कैसी विडंबना है, 2014 के इन सवालों को दरकिनार कर वामपंथी खेमे की सबसे बड़ी पार्टी माकपा 1978 की अपनी ‘जालंधर पार्टी कांग्रेस' की लाइन की प्रासंगिकता-अप्रांसगिकता पर बहस कर रही है! जालंधर के बाद पार्टी के 10 अधिवेशन हो चुके हैं. पार्टी नेतृत्व इन 10 अधिवेशनों के दौरान क्या करता रहा? सवाल उठना लाजिमी है, यह बहस वैचारिक है या अगले पार्टी अधिवेशन के लिए नेतृत्व संबंधी लामबंदी भर है.

अपने सबसे बड़े पारंपरिक आधार प्रदेश-बंगाल में माकपा का जिस तरह पतन हुआ है, वह हैरतंगेज है. कुछ ही समय पहले मैं कोलकाता में था. पार्टी से जुड़े नेताओं-बुद्धिजीवियों, समर्थकों, छात्रों-युवाओं और आम लोगों के बीच संवाद से एक बात पुरजोर ढंग से उभर कर सामने आयी, वह थी- नेतृत्व-विहीनता की.

पार्टी में नेतृत्व का ऐसा अकाल पहले कभी नहीं देखा गया. प्रमोद दासगुप्ता, हरेकृष्ण कोनार, विनय चौधरी, ज्योति बसु और अनिल विश्वास की पार्टी के पास आज न तो अच्छे संगठक रह गये हैं और न ही असरदार जन-नेता. जिनमें संभावना थी, वे पहले ही हाशिये पर कर दिये गये. वैश्विक पूंजी-प्रेरित आर्थिक सुधारों के मौजूदा दौर में जन-आंदोलन की संभावनाएं कम नहीं हैं, पर संगठन और वैचारिकता की कमजोरियों के चलते पार्टी पस्ती के दौर में है. खेत-खलिहानों, कारखानों या महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों से पहले की तरह नये कार्यकर्ता-नेता नहीं उभर रहे हैं. बुद्धदेव भट्टाचार्य के शुरुआती करिश्मे को सिंगूर-नंदीग्राम ने ही पोंछ कर रख दिया था.

माकपा के विरुद्ध ममता बनर्जी किसी धूमकेतु की तरह उभरीं. आज वह भी लगातार धुंध में घिरती नजर आ रही हैं, पर बंगाल माकपा इस मुंहमांगे मौके का भी रचनात्मक उपयोग करने में अक्षम दिख रही है. उसके मुकाबले दक्षिणपंथी भाजपा बंगाल के लोगों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की ज्यादा जोरदार कोशिश कर रही है. 2011 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी शर्मनाक हार के बावजूद अगर माकपा बंगाल में अपनी रणनीति नहीं खोज पा रही है, तो दोष किसका है? क्या पार्टी ने कभी विचार किया कि बंगाल के दलित-अल्पसंख्यक, पिछड़े और आम मध्यवर्गीय लोग उससे इतना निराश क्यों हो गये? एक पार्टी, जिसने बंगाल में 34 साल राज किया, उसकी आज आज ऐसी दुर्गति क्यों? क्या माकपा नेतृत्व ने इस बात का कभी आकलन किया कि ‘आपरेशन बर्गा' के बाद उसने ऐसा कौन सा बड़ा एजेंडा अपने हाथ में लिया, जिससे समाज के बड़े तबके का उसे विश्वास मिलता! ट्रेड यूनियन आंदोलन जिस तरह अर्थवाद के दलदल में फंसता रहा, उसके नतीजे जल्दी ही सामने आये. पार्टी संगठन में ऊपर नौकरशाही तामझाम और ‘एरोगेंस' दिखा, तो बीच और निचले स्तर पर लंपट-आपराधिक तंत्र को हावी होते देखा गया. बंगाल के उजड़ते औद्योगिक माहौल को संभालने और समृद्ध करने की मुख्यमंत्री के तौर पर बुद्धदेव ने कोशिश जरूर की पर गलत दिशा और रणनीति, खासकर भूमि-अधिग्रहण विवाद के चलते उनकी कोशिशों पर पलीता लग गया.

माकपा के लिए केरल के हालात कुछ कम निराशा भरे नहीं हैं. बीते डेढ़ दशक से जिस तरह पार्टी पर एक खास गुट हावी होता गया है, उसके चलते संगठन में चौतरफा विकृतियां उभर रही हैं. नंबूदरीपाद और गोपालन की पार्टी में भी ‘मुद्राशक्ति' और ‘बाहुबल' ने पकड़ मजबूत की है. पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता वीएस अच्युतानंदन इन प्रवृत्तियों के खिलाफ लगातार आवाज उठाते आ रहे हैं, लेकिन प्रदेश पार्टी के ताकतवर सचिव पी विजयन के दबदबे के चलते केंद्रीय नेतृत्व मूकदर्शक बन कर निहित-स्वार्थो को मजबूत करता रहा है.

अब से 35 साल पहले पार्टी ने अपने ‘सलकिया-प्लेनम' में तय किया था कि वह बंगाल वाम मोर्चे के मॉडल को हिंदी क्षेत्रों में प्रचारित करेगी और पार्टी का तेजी से विस्तार होगा. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. विफलता के लिए दलील दी गयी कि इन प्रदेशों में जाति-संप्रदाय का दबदबा है, इसलिए वामपंथी कामयाब नहीं हो पा रहे हैं. दुनिया के वामपंथी इतिहास में शायद ही किसी देश के वामपंथियों ने ऐसी मूर्खतापूर्ण दलील दी हो. दरअसल, हिंदी क्षेत्र ही नहीं, संपूर्ण देश के एक खास पहलू को लेकर भारतीय वामपंथी आंदोलन में एक अजीब किस्म की ‘उपेक्षा-मनोवृत्ति' रही है. वह पहलू है-जाति का. माकपा तो जाति और सामाजिक न्याय के मुद्दे पर हमेशा अस्पष्ट और संभ्रम में रही. ऐसा उसने अनजाने में नहीं, एक सोच और विचार-योजना के तहत किया. वर्ग की धारणा को तवज्जो देने के नाम पर उसने भारत की खास सामाजिक विशिष्टता-जाति को नजरंदाज किया. मंडल रिपोर्ट पर वामपंथियों के ‘संदिग्ध रवैये' से हिंदी क्षेत्र के पिछड़े वर्गो में उनकी साख बुरी तरह गिरी. वामपंथियों, खासकर माकपा के पोलित ब्यूरो, केंद्रीय समिति और राज्य नेतृत्व में दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की उपस्थिति नगण्य है. इससे दलित-पिछड़ों को लगातार महसूस हुआ कि भारतीय वामपंथी गरीबों की लड़ाई एक हद तक लड़ना तो चाहते हैं, पर दलित-पिछड़ों की अगुवाई में नहीं. मंडल रिपोर्ट को वामपंथियों ने बस आरक्षण का दस्तावेज मान लिया व आरक्षण के सवाल पर वे मुंह लटकाये दिखे.

माकपा आज 1978 के दस्तावेज और गंठबंधन-राजनीति पर चर्चा कर रही है. समता, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, समाज-सुधार, जाति-संप्रदाय और सामाजिक-गंठबंधन के वृहत्तर सवालों पर जिस सजगता की अपेक्षा है, वह उसमें नहीं दिखती. दक्षिणपंथी उभार के इस नये दौर में उसे अपने को प्रासंगिक बनाना है, तो गुणात्मक रूप से बदलना होगा. सिर्फ कुछ बुद्धिजीवी नेताओं से काम नहीं चलेगा. पार्टी अधिवेशनों या बैठकों से भी यह संभव नहीं होगा. इसके लिए उसे फिर से नये आंदोलनों की जमीन तलाशनी होगी और उससे उभरनेवाले जमीनी लोगों को नेतृत्व में आने देना होगा. क्या वामपंथी इसके लिए तैयार हैं?


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/167672.html


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