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न्यूज क्लिपिंग्स् | बढ़ रहा है जनता में जनाक्रोश

बढ़ रहा है जनता में जनाक्रोश

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published Published on Jul 15, 2010   modified Modified on Jul 15, 2010

नई दिल्ली [उमेश चतुर्वेदी]। महंगाई की आग के खिलाफ पाच जुलाई के भारत बंद पर कारपोरेट तरीके से मूल्याकन के जरिए भले ही लाख सवाल उठाए जा रहे हों, लेकिन यह सच है कि इस बंद ने महंगाई की आग से झुलस रहे अधिसंख्य भारतीयों के गुस्से और क्षोभ को ही अभिव्यक्ति दी है। इस क्षोभ और गुस्से का महत्व इसलिए कम नहीं हो जाता कि इससे तेरह हजार या बीस हजार करोड़ का नुकसान हुआ।

इस पूरे मसले में सबसे मूल सवाल यह है कि आखिर क्या वजह है कि समूचे भारत में गुस्से की एक साथ और ऐसी अभिव्यक्ति हुई, जिसे सरकारी लाठिया भी नहीं रोक पाई। लोकतात्रिक तकाजा तो यही है कि गुस्से की देशव्यापी इस अभिव्यक्ति को देखते हुए सरकार जनहित में कदम उठाने की कोशिश करती, लेकिन सरकार की महत्वपूर्ण शख्सियत प्रणब मुखर्जी उल्टे यह कहने से नहीं हिचके कि इस बंद से कुछ नहीं होने जा रहा।

प्रणब मुखर्जी के इस बयान में कोई नयापन नहीं है। कारपोरेट तरीके से बंद से हुई हानियों के मसले को उभार कर दरअसल बाजारवादी व्यवस्था भयानक महंगाई को ही जायज ठहरा रही है। चूंकि सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले प्रणब मुखर्जी की भूमिका इस बाजारवादी नजरिए को ही पोषित करने की है। इसीलिए उन्हें विपक्षी आदोलन को नकारने से भी गुरेज नहीं है। कुछ ऐसी ही नकार 1987 में भी राजीव गाधी की अगुआई वाली काग्रेस सरकार ने की थी। तब काग्रेस के पास लोकसभा में 409 सासदों का अपार बहुमत था। देश के लोकतात्रिक इतिहास में ऐसा अपार बहुमत अब तक किसी को हासिल नहीं हो पाया है।

इस बहुमत के दम पर तब की काग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार भी जनभावनाओं की उपेक्षा करने से नहीं हिचक रही थी। तब काग्रेस से ही काग्रेस से ही निकले वीपी सिंह की अगुआई में समूचे विपक्ष ने 28 मार्च 1987 को भारत बंद का ऐलान किया था। देश व्यापी भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ आयोजित उस भारत बंद को विफल बनाने के लिए तब की सरकार ने कोई कसर नहीं रखी थी। उस वक्त के कैबिनेट सचिव टीएन शेषन ने पूरे देश के अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए 27 मार्च की रात को दफ्तर में ही बिस्तर डलवा कर रोटी-पानी का इंतजाम करा दिया था, ताकि कर्मचारी अपने घर न जाएं और विपक्ष का भारत बंद नाकामयाब हो जाए, लेकिन जनता में इतना गुस्सा था कि वह भारत बंद पूरी तरह सफल रहा। इसके साथ ही केंद्र की अपार बहुमत वाली सरकार की विदाई की तैयारिया शुरू हो गई थीं।

कहना न होगा कि आज की केंद्र सरकार भी कुछ उसी अंदाज में जनता के गुस्से को नकार रही है और विपक्ष पर आरोप लगा रही है कि वह जनता को गुमराह कर रहा है। हमारे प्रधानमंत्री की ख्याति गंभीर अर्थशास्त्री के तौर पर है। प्रणब मुखर्जी और चिदंबरम भी आर्थिक मामलों के जानकार माने जाते हैं।

प्रधानमंत्री के ही साथी रहे प्रोफेसर अर्जुन सेन गुप्ता की अध्यक्षता वाली कमेटी दो साल पहले ही रिपोर्ट दे चुकी है कि इस देश के 83 करोड़ 70 लाख लोगों को रोजाना बीस रुपये और उससे कम पर गुजारा करना पड़ रहा है। जिस योजना आयोग ने यह कमेटी बनाई थी, उसके भी मुखिया मौजूदा प्रधानमंत्री ही हैं। प्रधानमंत्री के ही साथ दिल्ली स्कूल आफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाते रहे और उनके आर्थिक सलाहकार सुरेश तेंदुलकर तक बता चुके हैं कि आर्थिक उदारीकरण के बावजूद गरीबों की संख्या में इजाफा हुआ है।

इन आकड़ों के आलोक में सामान्य आदमी की भी समझ में आ सकता है कि मौजूदा महंगाई की वजह से बीस रूपया रोजाना कमाने वाले के परिवार की थाली में नमक-रोटी भी ठीक से नहीं आ सकती है। ऐसे में अव्वल तो यह होना चाहिए था कि सरकार बढ़ती महंगाई पर काबू पाने की दिशा में ठोस कदम उठाती। यह सच है कि पेट्रोल, रसोई गैस और डीजल पर सब्सिडी ज्यादा है और अंतरराष्ट्रीय बाजार से महंगे दामों पर खरीद के बाद भारत में मुहैय्या कराने से तेल कंपनियों पर घाटे का बोझ बढ़ता जा रहा है।

इनकी कीमतें बढ़ाते वक्त सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि डीजल की कीमत में एक रूपए की बढ़त एक किलो आलू और आटे की कीमत में एक रुपये की बढ़ोतरी कर देती है। इस तरह महंगाई का एक पूरा का पूरा चक्र शुरू हो जाता है और लागत व ढुलाई की दरें बढ़ जाती हैं और इसके चलते कीमतों को बाजार नए सिरे से तय करने लगता है। इसकी कीमत सबसे ज्यादा समाज के निचले पायदान पर मौजूद आम आदमी को ही चुकानी पड़ती है।

काग्रेस का नारा है-काग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ, लेकिन सरकार का महंगाई रोकने को लेकर जो टालू रवैया है, उससे साफ है कि आम आदमी का साथ काग्रेस का हाथ कम ही निभा पा रहा है। 2009 के आम चुनावों में महंगाई को कम करने का काग्रेसी वादा भी पूरा होता नजर नहीं आ रहा है। यही वजह है कि समूचा देश एक हो गया और सड़कों पर अपने गुस्से का इजहार करने उतर आया।

इस गुस्से में सबसे बड़ी बात यह रही कि भाजपा को अछूत मानने वाले वामपंथी दलों और मुलायम सिंह तक सड़कों पर साथ नजर आए। मीडिया ने वामपंथी नेताओं से सवाल भी पूछे, आमतौर पर ऐसे मौकों पर वामपंथी दल बीजेपी की लानत-मलामत करने से पीछे नहीं रहे हैं, लेकिन इस बार वामपंथी नेताओं का जवाब था कि महंगाई पर विचार करने की जरूरत ज्यादा है।

कभी एनडीए का साथ देते रहे चंद्रबाबू नायडू और जयललिता ने पिछले कुछ साल से अलग राह अख्तियार कर ली है, लेकिन पाच जुलाई के बंद में वे भी साथ थे। बिहार में लालू यादव और रामविलास पासवान भी बंद के पैरोकार बनकर उभरे। शाब्दिक खेल में भले ही काग्रेस का अब तक रणनीतिक साथ देते रहे नेता इस विरोध प्रदर्शन को महंगाई के विरोध बता रहे हों, लेकिन हकीकत यही है कि वे काग्रेस और उसकी नीतियों का ही विरोध कर रहे थे। यानी अब उनका भी मन काग्रेस से भर चुका है।

इस पूरे आदोलन में अगर समूचे विपक्ष को साथ लाने की भूमिका जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव ने निभाई। उन्होंने बीजेपी को पहले से प्रस्तावित पाच जुलाई के भारत बंद में शामिल करने के लिए मनाया। इसका नतीजा साफ है। बाजार के दबाव में मुद्दा आधारित राजनीति का अब तक जो अंत माना जा रहा था, वह फिर से उठ खड़ा होता दिख रहा है। अनजाने में ही सही, विरोध की यह सफलता गैरकाग्रेसवाद की ही नींव में एक बार खाद-पानी देती दिख रही है।

अगर विरोध की यह एकता संसद के मानसून सत्र में भी बनी रह सकती है, जिसका सिर्फ अनुमान ही लगाया ही जा सकता है तो तय है कि यह आदोलन एक बार फिर गैरकाग्रेसवाद का शुरुआत विंदु बन सकता है।

बढ़ रहा है जनता में जनाक्रोश

महेश रंगराजन [राजनीतिक विश्लेषक]। देश में लगातार बढ़ रही महंगाई आज चिंता का विषय है। महंगाई को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में जिस तरह लोगों के बीच आक्रोश बढ़ रहा है, वह कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता। खाद्य पदार्थो, ईधन और दूसरे चीजों की कीमतें जितनी तेजी से आज बढ़ रही हैं, उससे लगता नहीं कि सरकार को आम लोगों के हितों की जरा भी चिंता है।

देश की तकरीबन 77 फीसदी जनता की प्रतिदिन की कमाई महज 20 रुपये की है, जिससे वह बमुश्किल ही अपना जीवन-बसर कर पाते हैं। इस स्थिति में देश में करीब 11-12 प्रतिशत मुद्रास्फीति रहने के कारण वस्तुओं की कीमतों में बेहिसाब बढ़ोतरी हो रही है। इस महंगाई से अब मध्य और उच्च वर्ग भी खुद को असहज पा रहा है।

ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि कांग्रेस का जनाधार इस सरकार के बारे में क्या सोच रही होगी। हाल के दिनों में पूरे देश में आयोजित बंद की सफलता भी इसका गवाह है। यह सही है कि बंद आयोजनों से हजारों करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ है, जिसे किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन सवाल यह भी उठता है कि ऐसा होने ही क्यों दिया जा रहा है?

क्या सरकार को नहीं मालूम के देश के लोगों की वास्तविक स्थिति क्या है, उनकी वार्षिक आमदनी कितनी है और वह किस तरह अपना जीवन निर्वाह कर पा रहे हैं। इन सवालों का उत्तर आखिर कौन देगा? सरकार कह रही है कि यदि इस वर्ष मानसून अच्छा रहता है तो खाद्य पदार्थो की कीमतों में गिरावट आएगी। यह सही है कि पिछले कुछ वर्षाें में मानसून अच्छा न होने से इन पर विपरीत असर पड़ा है, लेकिन इस वर्ष भी यदि किसी कारण से मानसून ठीक नहीं होता तो क्या देश की जनता को इसी हाल पर रहने देने के लिए छोड़ना ठीक रहेगा। संयुक्त विपक्ष द्वारा पूरे देश में बंद के असर को देख चुकी है, इससे वह थोड़ी सहमी भी है। इसीलिए सरकार गरीबों के लिए कुछ योजनाओं को शुरू करके अपने किए-धरे पर मरहम लगाने का बहाना खोज रही है।

इसी के तरह बीपीएल परिवारों को प्रति महीने 30 किलोग्राम अनाज मुहैया कराने और एपीएल परिवारों को 15 किलो अनाज मुफ्त देने की घोषणा की गई है। इससे साफ है कि सरकार के पास अनाज की कोई कमी नहीं है, बल्कि इसका वितरण किस तरह किया जाए इसका अभाव है। यदि समय रहते सरकार योजनाओं के सही क्रियान्वयन पर जोर नहीं देती है तो आने वाले समय में स्थिति और भी भयावह हो सकती है।

महंगाई के मुद्दे पर पूरे देश में जनआक्रोश को देखते हुए राजनीतिक पार्टियों के बीच जो राजनीतिक धु्रवीकरण देखा जा रहा है, वह ठीक नहीं है। बंद में शामिल राजनीतिक पार्टियों क एकसाथ आने भर से इस बात को बल नहीं मिल जाता कि भविष्य में भी ये कांग्रेस के खिलाफ एकजुट रहेंगे। यह एक तात्कालिक कारण था, जिसका राजनीतिक पार्टियों के बीच वैचारिक और भविष्यगामी आधार नहीं देखा जाना चाहिए। हां, यदि अभी किसी राज्य में चुनाव कराए जाते हैं तो कांग्रेस के विरोध में पड़ने वाले मतों का धु्रवीकरण किया जा सकता है। इस आधार पर कुछ राजनीतिक समीकरण बन जाएं तो आश्चर्य नहीं, लेकिन फिलहाल इसकी दूर-दूर तक अभी कोई संभावना नहीं दिख रही।

2009 के आम चुनावों में कांग्रेस ने जनता से वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह महंगाई पर विराम लगाने की भरपूर कोशिश करेगी और आम लोगों के हितों का खयाल रखेगी। परंतु सरकार का यह दावा आज भी एक दावा ही है, जिस पर अमल के लिए कुछ भी कदम उठाना सरकार जरूरी नहीं समझ रही। इस बात को जनता भूली नहीं है। इसका अंदाजा शायद अब कांग्रेस को भी हो चला है। गोदामों में अनाज पड़ा सड़ रहा है और सरकारी कोष भी भरा है, लेकिन लोग परेशान है। हम आर्थिक विकास के किस मॉडल को अपना रहे हैं, जिसमें आम जनता को कोई फायदा नहीं। तेज आर्थिक विकास को ही शायद सरकार ने देश की प्रगति का मानक सूचकांक बना लिया है। संतुलित और समान विकास की अवधारणा पर काम किए जाने की जरूरत है, ताकि देश के सभी हिस्सों में रहने वाले सभी वर्गो के लोगों को लाभ मिल सके।

यदि ऐसा नहीं होता है तो यह कांग्रेस के दीर्घकालिक राजनीतिक इतिहास और भविष्य के साथ भी नाइंसाफी ही होगी। आज हालत यह हो गई है कि कांग्रेस के सहयोगी ही कांग्रेस का विरोध करने लगे हैं। यदि जनआक्रोश और बढ़ता है तो सरकार के लिए खतरे की घंटी भी बज सकती है।


http://in.jagran.yahoo.com/news/national/politics/5_2_6571860.html


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