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न्यूज क्लिपिंग्स् | बात निकली है तो दूर तलक जाएगी - भवदीप कांग

बात निकली है तो दूर तलक जाएगी - भवदीप कांग

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published Published on Apr 29, 2015   modified Modified on Apr 29, 2015
गजेंद्र सिंह की मौत का राजनीतिकरण इस पूरे प्रकरण का सबसे दु:खद पहलू था। हो सकता है उसकी आत्महत्या 'जेनुइन" हो। यह भी हो सकता है, जैसा दिल्ली पुलिस का मानना है कि उसकी आत्महत्या महज एक दुर्घटना हो, एक नाटकीय प्रसंग। लेकिन गजेंद्र की मौत इन मायनों में अपने लक्ष्य को अर्जित करने में जरूर कामयाब रही कि उसने किसानों की दुर्गति की ओर पूरे देश का ध्यान आकृष्ट कर दिया है।

यह साल किसानों के लिए अच्छा साबित नहीं हो रहा है। इसके पीछे मौसम की मार तो है ही, देश की खाद्य अर्थव्यवस्था की स्थिति सुधारने के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे असामयिक प्रयास भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। साल की शुरुआत में ही अंतरराष्ट्रीय कारणों के चलते कपास और धान की कीमतों में तेजी से गिरावट दर्ज की गई थी। चीन ने कपास के रिजर्व भंडार को बाजार में उतार दिया और ईरान ने भारत से चावल का आयात बंद कर दिया था। इसका सीधा असर कपास और धान की खेती करने वाले किसानों पर पड़ा। इससे यह भी पता चला कि आज भी किसान किस तरह से वैश्विक बाजार पर निर्भर हैं और देश में उनकी सहायक प्रणालियों का कितना अभाव है।

फिर आलू की कीमतों में तेजी से गिरावट दर्ज की गई। अलबत्ता इस बार इसके कारण स्थानीय थे, जैसे कि अत्यधिक उपज। आलुओं की कीमत इतनी गिर गई कि किसान उन्हें सड़कों पर फेंककर चले आए, क्योंकि मंडी तक ले जाने की लागत भी नहीं निकल पा रही थी। अत्यधिक आपूर्ति व वैश्विक कारणों से गन्ने की कीमतें भी गिरीं। गन्ना उत्पादक किसानों पर बकाया राशि (राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित मूल्य पर) बढ़कर 15 हजार करोड़ तक पहुंच गई, क्योंकि शकर मिल मालिकों ने कह दिया कि कीमतों में गिरावट के कारण वे भुगतान करने की स्थिति में नहीं।

उर्वरकों की किल्लत से समस्या और बढ़ी। सरकार समय पर उर्वरकों का आयात करने में नाकाम रही, जिससे कालाबाजारी को बढ़ावा मिला। गुस्साए किसानों ने उर्वरकों से लदे ट्रकों पर धावा बोल दिया और रेल रोको अभियान के लिए मजबूर हो गए। हरियाणा में तो यह स्थिति निर्मित हो गई कि अव्यवस्था से बचने के लिए उर्वरकों की बोरियों का वितरण पुलिस थानों से किया गया। सरकार अभी तक इसकी माकूल सफाई नहीं दे पाई है कि वह मांग के आधार पर उर्वरक का आयात करने में क्यों विफल रही।

फिर सरकार ने राज्य सरकारों द्वारा दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बोनस देना बंद करने का फैसला लिया। इससे मध्य प्रदेश के किसान खासतौर पर प्रभावित हुए। गत वर्ष उन्हें गेहूं पर 1550 रुपए प्रति क्विंटल (1400 रुपए न्यूनतम समर्थन मूल्य और 150 रुपए बोनस) प्राप्त हुए थे, लेकिन इस साल बोनस समाप्त कर दिए जाने से 1450 रुपए ही मिले। अन्य राज्यों के किसानों को भी इससे परेशानी हुई। केंद्र सरकार ने फसलों के अधिग्रहण में कटौती का भी निर्णय लिया, ताकि किसान खुले बाजार में उपज बेच सकें। लेकिन खुले बाजार में मिलने वाली कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम होती हैं।

मध्य प्रदेश में पिछले कुछ सालों में खेती-किसानी में जिस तरह की उन्‍नति देखी गई, उसका एक बड़ा कारण राज्य सरकार द्वारा किसानों को दिया गया प्रोत्साहन भी था। सरकार किसानों की गेहूं की उपज बोनस दरों पर खरीदने को तत्पर रहती थी, लेकिन अब यह बंद हो गया है। कम कीमतों पर उपज के कम अधिग्रहण को यह कहते हुए जायज ठहराने की कोशिश की गई कि भारतीय खाद्य निगम के पास जरूरत से ज्यादा बफर स्टॉक हो गया था। पर अगर ऐसा ही था तो ऑस्ट्रेलिया से 80 हजार टन गेहूं आयात क्यों किया गया?

इसके बाद किसानों पर प्रकृति की मार पड़ी। बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि ने फसलों को बर्बाद कर दिया। इससे यह पोल भी खुल गई कि फसलों के बीमा कवर की स्थिति कितनी बुरी है। बीमा कंपनियों ने फसलों के बीमा के लिए अजीबोगरीब मानदंड तय कर रखे हैं, जिसके चलते किसान अपनी फसलों का बीमा कवर नहीं करवा पाते हैं। किसानों की फसल बर्बाद होने की स्थिति में सरकार द्वारा दिया जाने वाला मुआवजा भी नौकरशाहों द्वारा निर्धारित मानदंडों के अनुरूप होता है, जिससे अकसर जरूरतमंद किसानों को न के बराबर मुआवजा मिल पाता है। दिल्ली में जान देने वाले गजेंद्र सिंह की यही त्रासदी थी। राजस्थान के दौसा जिले के बांदीकुई प्रशासन ने उसे मुआवजे के लायक मानने से इनकार कर दिया था।

भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में संशोधन करने की सरकार की जिद को इसी पृष्ठभूमि में समझने की कोशिश की जानी चाहिए। सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और उसके बाद प्रस्तुत किए गए संशोधन विधेयक का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि वह किसानों से भूमि अधिग्रहण को 'ना" कहने का अधिकार छीन लेता है। साथ ही किसानों का यह अधिकार भी जाता रहता है कि वे अपने क्षेत्र में होने वाले विकास की प्रकृति में हस्तक्षेप कर सकें। मिसाल के तौर पर, अगर अधिग्रहीत भूमि पर बड़े पैमाने पर जलदोहन करने वाली औद्योगिक फर्म स्थापित होती है तो वह क्षेत्र का पूरा भूजल सोख लेगी और किसानों के ट्यूबवेल सूख जाएंगे। इस पर सरकार का तर्क यह था कि हम किसानों को भरपूर मुआवजा और उनके परिवार के सदस्यों को रोजगार देंगे! मनरेगा में कटौती किसानों के लिए एक और झटका थी। चूंकि अधिकांश छोटे किसान खेतिहर-मजदूर भी हैं, लिहाजा वे अपनी आमदनी के लिए बहुत हद तक मनरेगा पर निर्भर हैं। लेकिन केंद्र द्वारा जारी की जा रही कम धनराशि के कारण मनरेगा के तहत नई परियोजनाएं नहीं प्रारंभ की जा रही हैं। देशभर में कार्यदिवसों की संख्या में भी कटौती की गई है।

केंद्र की रुचि जीएम फसलों में भी है। जीएम फसलों के बीज बहुत महंगे होते हैं, क्योंकि मोन्सांतो और सिन्जेंता जैसी कंपनियां अपना रॉयल्टी शुल्क भी लेती हैं। इसके बावजूद इसकी कोई गारंटी नहीं है कि ये बीज अन्यों की तुलना में बेहतर उपज देंगे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा जीएम बीजों के आक्रामक प्रचार के कारण बीजों की अन्य किस्में धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ जैसी संस्थाओं द्वारा इसीलिए इसका विरोध किया जा रहा है, लेकिन नतीजा सिफर है।

सरकार की रुचि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली में नहीं और वह खुले बाजार को प्रोत्साहन देना चाहती है। लेकिन खेती-किसानी इतनी महंगी होती जा रही है कि खुले बाजार में मिलने वाले मूल्य से किसानों का गुजारा नहीं हो सकता। सरकार यह भी चाहती है कि किसान खाद्यान्न् का उत्पादन करने के बजाय 'कैशक्रॉप्स" के उत्पादन में अधिक रुचि लें। लेकिन इसका मतलब होगा वैश्विक बाजारों पर निर्भरता का बढ़ना। सरकार का यह भी दावा है कि इस साल किसानों को दिए जाने वाले कर्ज में 50 हजार करोड़ रुपए तक की बढ़ोतरी की गई है, लेकिन अध्ययन साफ बताते हैं कि किसानों के लिए दिए जाने वाले कर्ज का बड़ा हिस्सा कृषि संबंधी सामग्रियों का उत्पादन और क्रय करने वाली एजेंसियां हड़प जाती हैं। जिससे किसान सूदखोरों के रहमोकरम पर निर्भर हो जाते हैं।

ऐसे में बेचारा किसान भला क्या करे? अचरज नहीं कि किसानों द्वारा आत्महत्याएं की जा रही हैं। अचरज नहीं कि आज किसान अपने बेटे को खेती-किसानी के काम में लगाने के बजाय किसी दफ्तर में चपरासी बनाना ज्यादा पसंद करता है। गजेंद्र सिंह की मौत महज एक अलग-थलग घटना नहीं। यह बात अब निकली है तो दूर तलक जाएगी और सरकारें इसकी अनदेखी नहीं कर सकतीं।

(लेखिका पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

 


http://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-talk-will-go-a-long-way-358497


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