Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | बाबा साहेब का सपना - सतीश देशपांडे

बाबा साहेब का सपना - सतीश देशपांडे

Share this article Share this article
published Published on Apr 28, 2015   modified Modified on Apr 28, 2015
हमारे समय की विडंबना है कि एक युग-व्यापी समाज चिंतक की भूमिका में डॉ बाबा साहेब आंबेडकर के ‘अच्छे दिन' अब आते लग रहे हैं। उनके एक सौ चौबीसवें जन्मदिन के अवसर पर हम उनकी बढ़ती प्रासंगिकता में यह सांत्वना ढूंढ़ सकते हैं कि हमारे पश्चिम-परस्त, ब्राह्मणवादी बुद्धिजीवी जगत में देर है अंधेर नहीं। आधी सदी की ‘रुकावट' के लिए खेद है, मगर देर-सवेर डॉक्टर साहेब को अपना मुनासिब स्थान मिल तो रहा है! लेकिन इतने में इतमीनान कर लेने से हम यह समझ नहीं पाएंगे कि डॉ आंबेडकर का अभी उभरना विडंबनापूर्ण क्यों है।

आंबेडकर युग-चिंतक कहलाने के हकदार हैं क्योंकि उन्होंने जाति-ग्रस्त भारतीय समाज के लिए जाति-रहित भविष्य रचने की गुरु-गंभीर चुनौती को स्वीकारते हुए इसके विभिन्न आयामों का गहन विश्लेषण किया और एक सुविचारित व्यापक रणनीति सुझाई। जाहिर है कि उन्होंने यह सब अपने समय-संदर्भ में रहते हुए किया। उनके समय और हमारे समय में यह समानता है कि तमाम बदलावों के बावजूद भारतीय समाज आज भी जाति-ग्रस्त है, और जाति-उन्मूलन हमारे लिए आज भी एक ऐसा लक्ष्य है जिसे हासिल करना सुदूर भविष्य में ही संभव हो सकेगा। लेकिन दोनों युगों में बहुत बड़ा अंतर यह है कि जहां आंबेडकर के जमाने में जाति-उन्मूलन प्राय: सभी राजनीतिक आंदोलनों का घोषित उद््देश्य था, वहीं हमारे जमाने में जाति का एक अपरिहार्य राजनीतिक मुद्दा होने के बावजूद- या इसी वजह से- जाति-उन्मूलन किसी भी दल या आंदोलन का व्यावहारिक लक्ष्य नहीं रहा।

पिछले आठ दशकों के अनुभव का लाभ उठाते हुए आज हम इस निर्विवाद निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं कि बीसवीं शताब्दी के जाने-माने सामाजिक-राजनीतिक विचारकों में अकेले आंबेडकर हैं जिन्होंने जाति के मर्म को पकड़ा। उनकी तुलना में गांधी, सावरकर, नेहरूऔर नंबूदरीपाद जैसे समकक्ष विचारकों का जाति-बोध सतही, अधूरा, पूर्वाग्रहपूर्ण या सरासर गलत साबित हुआ। इस नतीजे तक पहुंचने में आधी सदी की देरी जरूर हो गई, जिस दौरान बाबा साहेब की पहचान प्राय: एक अल्पसंख्यक जाति-विशेष के नेता तक सीमित रही। देर आयद दुरुस्त आयद कहावत अपनी जगह ठीक है, लेकिन इसे तो विडंबना ही कहा जाएगा कि जाति-उन्मूलन के सबसे मेधावी विश्लेषक की सही शिनाख्त तभी हो पाई है जब जाति-उन्मूलन का मुद््दा लगभग अप्रासंगिक लगने लगा है।

ऐसा क्यों और कैसे हुआ कि एक जमाने में जाति-उन्मूलन सभी राजनीतिक दलों के लिए अनिवार्य मुद्दा था, पर आज यह किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में नहीं है? क्या इसका आशय यही है कि हमारा युग उस आदर्श युग की तुलना में नैतिक रूप से गिर चुका है? इन सवालों का जवाब पाने के लिए हमें अपनी कहानी 1915 के निर्णायक साल से शुरूकरनी होगी जब मोहनदास करमचंद गांधी नामक वकील और सामाजिक कार्यकर्ता ने दक्षिण अफ्रीका से आकर भारत में बसने का निर्णय लिया, और भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति में तेजी आई।

देश को आजाद आधुनिक राष्ट्र में तब्दील करने की चाह ने जाति के मुद््दे को स्वाभाविक रूप से सार्वजनिक मंच के बीचोंबीच खड़ा कर दिया। राष्ट्र की धारणा समान नागरिकता और आपसी भाईचारे के आदर्शों पर टिकी थी तो जाति का संस्थान निर्विवाद रूप से गैर-बराबरी और सामाजिक पृथकता पर आश्रित था। दोनों का नैतिक-वैचारिक सह-अस्तित्व असंभव था, हालांकि गांधी समेत कई उच्चजातीय राष्ट्रवादियों ने इनमें आपसी तालमेल बिठाने के भरसक प्रयास किए। इस माहौल में जब ब्रिटिश सरकार ने दलित समुदाय को एक विशिष्ट राजनीतिक इकाई के रूप में पहचानते हुए अन्य समुदायों की तरह उन्हें भी निर्वाचन समूह की हैसियत दी, तो गांधीजी ने इसका कड़ा विरोध करते हुए पहली बार आमरण उपवास की घोषणा की।

इस घोषणा से उपजे सार्वजनिक दबाव के आगे आंबेडकर सहित सभी दलित-आदिवासी नेताओं को आत्मसमर्पण करना पड़ा। 1932 के ‘पूना समझौता' के तहत विधान परिषद में दलितों को आरक्षित स्थान मिले, जिसके बदले उन्होंने कांग्रेस और गांधी का नेतृत्व स्वीकारा और स्वतंत्र दलित राजनीति की संभावनाओं को किनारे कर दिया गया। जाति के प्रश्न का यह गांधीवादी ‘समाधान' आधी सदी से अधिक समय तक कायम रहा। आजादी और नए संविधान ने पूना समझौते को आरक्षण नीति का कानूनी जामा पहनाया तो जाति उन्मूलन पर जो नैतिक सर्वसम्मति बनती दिखी उसे नेहरूयुग में जाति-निरपेक्ष राज्य का स्वरूप दिया गया। इसका व्यावहारिक असर यह रहा कि जाति राष्ट्रीय राजनीति से ओझल हो गई, हालांकि प्रांतीय राजनीति और ‘कांग्रेस व्यवस्था' में यह निर्णायक भूमिका अदा कर रही थी।

चूंकि नेहरूयुगीन राज्य ने जातिगत विषमताओं की खोज-खबर लेने से इनकार कर दिया, हमें इस समस्या के बढ़ते आयामों का अहसास ही नहीं था। 1990 के दशक में मंडल विस्फोट के साथ ही जाति लगभग आधी सदी के अंतराल के बाद एकाएक राष्ट्रीय मंच पर एक ज्वलंत सवाल के रूप में उभरी।

मंडल प्रसंग एक ऐसा निर्णायक मोड़ था जिसने जाति के प्रश्न की राजनीतिक और वैचारिक केंद्रीयता को निर्विवाद रूप से उभारा। औपचारिक जाति निरपेक्षता की आड़ में पोषित घोर जातीय विषमताओं को नजरअंदाज करना नामुमकिन हो गया और सभी राजनीतिक दलों ने मंडल सिफारिशों का समर्थन किया। यही नहीं, बुद्धिजीवी वर्ग में भी जाति के प्रति एक नई संवेदनशीलता उभरी और जाति-संबद्ध विषयों पर नवाचारी शोध का दौर शुरूहुआ। इसी दौर में बाबा साहेब के जाति-बोध का पुनराकलन भी संपन्न हुआ, जिसके जरिए उनके सोच की मौलिकता को व्यापक स्तर पर पहचाना गया।

जाति के विषय पर अपनी पीढ़ी के चिंतकों के मुकाबले बाबा साहेब की समझ क्यों और किस प्रकार बेहतर है, इसे समझने के लिए पांच मुख्य पहलुओं पर ध्यान देना होगा। पहला यह है कि जाति एक परस्पर सामाजिक संबंध है, न कि कोई तत्त्व या गुण। यही कारण है कि जाति सर्वव्यापक है और भारतीय समाज का कोई भी अंश इससे सर्वथा मुक्त नहीं है, यहां तक कि गैर-हिंदू समुदायों में भी इसकी प्रबल उपस्थिति है। दूसरा पहलू यह है कि जाति की मूल प्रवृत्ति सामाजिक पृथकता है जिसके कारण जातीय समाज अपने आप में एक विरोधाभासी धारणा है। समाज और सामाजिकता आपसी भाईचारे और बंधुत्व पर निर्भर हैं, मगर जाति किसी भी प्रकार के आत्मीय सामाजिक संबंधों को जातिगत विभाजनों से ऊपर उठने नहीं देती।

आंबेडकरवादी समझ की मूल अंतर्दृष्टि यही है कि जहां आधुनिक राष्ट्र की परिकल्पना नागरिकों के आपसी भाईचारे और गहरे समता-मूलक बंधुत्व पर आश्रित है, वहीं जाति का संस्थान इस प्रकार के भाईचारे की संभावना को ही नकारता है। अत: जातिगत समाज में राष्ट्र-निर्माण असंभव है- जब तक जाति है तब तक राष्ट्र नहीं बन सकता, और अगर राष्ट्र है तो जाति नहीं रह सकती। बंधुत्व का अभाव ही बराबरी के विरोध का आधार पैदा करता है, और बराबरी की अनुपस्थिति में स्वाधीनता की नींव नहीं डल सकती। इस प्रकार आधुनिक गणराज्य के तीनों ही आधार-स्तंभ- स्वाधीनता, समता और बंधुत्व- जातिगत समाज के संदर्भ में असाध्य हैं।

आंबेडकरवादी जाति-बोध की तीसरी अंतर्दृष्टि यह है कि जात-पांत के नियमों का पालन करना औसत व्यक्ति के लिए अंततोगत्वा एक धार्मिक नियम या आदेश का रूप धारण करता है। यही वजह है कि जाति कोई विकृति या रोग-बीमारी नहीं है बल्कि एक स्वस्थ और सुव्यवस्थित समाज का लक्षण है। इसलिए नेक और भले लोग भी जाति के निष्ठुर नियमों का आज्ञाकारी भाव से पालन करते-करवाते हैं। अत: जाति-विरोध कहीं से भी शुरूहो, अंत में उसे हिंदू धर्म और धार्मिक ग्रंथों के खिलाफ आवाज उठानी ही होगी। चौथा पहलू है जाति के लगभग असीम लचीलेपन की पहचान।

अपने लंबे इतिहास में जाति-व्यवस्था में इतनी अधिक व्यावहारिकता आत्मसात हो चुकी है कि यह हर तरह के प्रतिकूल वातावरण में भी अपने को बनाए रखती है। आपद धर्म और प्रायश्चित जैसी धारणाओं के सहारे जाति व्यवस्था खुद को बदलते हालात के अनुरूप ढालने में पूरी तरह सक्षम है। आंबेडकरवादी जाति-बोध का पांचवां और आखिरी पहलू है जाति की विशिष्टता। जाति का अपना अलग वजूद है, वह किसी अन्य आयाम या क्षेत्र की उपज नहीं है। खासकर यह खुशफहमी सर्वथा निराधार है कि आर्थिक विकास के साथ जाति खुद-ब-खुद लुप्त हो जाएगी। जाति-व्यवस्था अर्थव्यवस्था की परछार्इं या उसका उप-उत्पाद कतई नहीं है।

हालांकि यह दावा नहीं किया जा सकता कि उपरोक्त प्रत्येक बिंदु केवल आंबेडकर के विश्लेषण में पाए जाते हैं, लेकिन पांचों एक साथ किसी और चिंतक के लेखन में नहीं मिलते। साथ ही इन पांचों की जो धारदार समग्र व्याख्या बाबा साहेब की सुप्रसिद्ध रचना ‘दी एन्निहिलेश्न आॅफ कास्ट' (जाति का उन्मूलन) में पाई जाती है वह विलक्षण है।

मगर तमाम खूबियों के रहते हुए भी बाबा साहेब की समझ अपने देश-काल की उपज है और बदले हुए हालात में उनका यंत्रवत दोहराव न तो उचित है और न ही उपयोगी। हम उनकी अंतर्दृष्टियों का लाभ जरूर ले सकते हैं लेकिन हमारे समय के विश्लेषण की जिम्मेदारी और जोखिम को हमें खुद ही उठाना होगा।

1930 के दशक में अगर जाति-उन्मूलन का मुद्दा आम सहमति का विषय प्रतीत होता था तो इसके पीछे मुख्य कारण था राष्ट्र-निर्माण की अनिवार्यता। लेकिन राष्ट्र के गठन के बाद औपचारिक समता और जातिगत भेदभाव पर कानूनी प्रतिबंध का दौर आया। इसके साथ-साथ लोकतांत्रिक चुनावी राजनीति का व्यापक प्रभाव हमारे समाज पर लंबे समय तक रहा है। इन सभी प्रक्रियाओं के सम्मिलित असर ने जाति को अस्मिता और लामबंदी का कारगर जरिया बना दिया है। जातिगत विषमताएं और अत्याचार जब तक रहते हैं तब तक जातिगत राजनीति की जरूरत बनी रहेगी। और जब तक यह जरूरत कायम है तब तक जाति का उन्मूलन संभव नहीं लगता। यह भी सही है कि जाति को लेकर कई हित-समूह स्थापित हो चुके हैं जिनका स्वार्थ जातीय अस्मिताओं को जिंदा रखने से ही सध सकता है।

हमारे समय में जाति उन्मूलन के क्या मायने हो सकते हैं? क्या इस पद को जाति-जनित विषमताओं और दमन तक सीमित रखना संभव होगा? क्या पिछले छह दशकों के दलित-बहुजन संघर्षों के अनुभव से जाति-अस्मिता के सकारात्मक पहलू सामने आए हैं जिनके सहारे हम यह दावा कर सकें कि जाति में भी सहेजने योग्य अंश हैं और इसका समुचित सर्वनाश अनावश्यक है? क्या जातीय भिन्नता अनिवार्य रूप से जातीय विषमता का आधार बनती है? इन सभी प्रश्नों के समकालीन उत्तर हर पीढ़ी को डॉ साहेब से सीख लेते हुए मगर अपने पैरों पर खडेÞ होकर ढूंढ़ने होंगे।


http://www.jansatta.com/politics/jansatta-editorial-bheem-rao-ambedkar-dreams/24191/


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close